जिनके सिमरण मात्र से सिद्ध होय सब काज
परमपिता, सर्वव्यापक आनन्दघन, जगनियन्ता आदिकारण श्रीदत्तात्रेय प्रभु जी के श्रीचरणों में साष्टांग प्रणाम
जिनके सिमरण मात्र से सिद्ध होय सब काज।
सो हम पर कृपा करें श्रीदत्तात्रेय महाराज ।।
जिनके स्मरण मात्र से मनुष्य का कल्याण हो सकता है, कार्य सिद्ध हो सकते हैं तो हम क्यों दर-दर भटकें झाड़-फूँक, तंत्र-मंत्र, ज्योतिष-पंडित के चक्र में क्यों फँसें ? क्या आपको अपने प्रभु पर भरोसा नहीं है ? ज्ञान से हमें यह पता लगता है कि प्राप्त परिस्थिति हमारे कर्मों का फल है। उसे कोई बदल नहीं सकता। परन्तु प्रभु जी यदि चाहें तो उसे बदल सकते हैं, उसके लिए हमें ऐसा कोई कार्य साधना, सिमरण करना होगा जिससे आपको उचित फल प्राप्त हो । सन्त हमें समझाते हैं -
जिनके सिमरण करने से कार्य सिद्धि प्राप्त होती है तथा कृपा प्राप्त होती है ऐसे श्रीदत्तात्रेय प्रभु जी को याद करो, उनको जानो और समझो।
प्रभु प्रेमियों ! भगवान श्रीदत्तात्रेय जी का चतुर्युगी अवतार है, चारों युगों में विद्यमान रहने वाले अवतार हैं। बाकी परमेश्वर अवतार अपने मायापुर त्यागने के समय तथा किसी भी अन्य कारण से अपने शिष्यों, ज्ञानियों को भगवान श्री दत्तात्रेय जी प्रभु के अधीन करके जाते हैं। चारों युगों में भगवान श्रीदत्तात्रेय प्रभु से जीवों को दर्शन, अनुसरण, सेवा, सम्बन्ध तथा कैवल्यदान प्राप्त होता है।
वे प्रतिदिन प्रातःकाल मेरुवाला में जलक्रीडा (स्नानादि) करते हैं, कोल्हापुर में भिक्षा मांगते हैं, पंचालेश्वर (आत्मतीर्थ) पर भोजन ग्रहण करके कुछ देर गुफा में विश्राम करते हैं और सायंकाल के समय सैंहाद्री पर्वत पर लौट आते हैं। हर रोज मातापुर माहुर में रात्रि निद्रा करते हैं। ऐसा उनका सृष्टि पर्यन्त का स्वीकार किया हुआ नियम है।
इसके अतिरिक्त भगवान श्रीदत्तात्रेय प्रभु जी ने सहस्रार्जुन, शंकराचार्य तथा ऋचिक ऋषि को वर प्रदान किये। युदराजा को ज्ञान दिया, अर्लक राजा के तीनों तापों का हरण करके उसे अनुसरण दिया।
भगवान श्रीचक्रधर जी का निवास पैठन में था। एक दिन भगवान श्रीचक्रधर जी श्रीदत्तात्रेय प्रभु जी की महिमा भक्तों को सुना रहे थे। तब भगवान ने कहा श्रीदत्तात्रेय प्रभु जी चारों युगों में विद्यमान रहने वाले अवतार हैं। भगवान जी ने अपने ब्रह्मविद्या शास्त्र के अन्तर्गत ईश्वर के पाँच मुख्य अवतारों का पंचकृष्ण का ज्ञान करवाया है।
इन ईश्वर अवतारों में से द्वितीय पंचकृष्ण परमेश्वर के अवतार भगवान श्रीदत्तात्रेय जी हैं, जब तक है, चारों युग हैं, तब तक उनका अवतार विद्यमान हैं। भगवान श्रीचक्रधर जी की जब उतरापंथ जाने की प्रवृत्ति बन चुकी थी, तब उन्होंने अपने शिष्य परिवार को आचार्य नागदेव, महदाइसा आदि को ऋद्धपुर में क्रिडा करनेवाले परमेश्वर अवतार भगवान श्रीगोविन्द प्रभु जी के अधीन किया था। तब आचार्य नागदेव ने भगवान श्रीचक्रधर जी से पूछा भगवान ! आप जो हमें श्री गोविन्द प्रभु जी के अधीन करके उन्हें सौंप कर जा रहे हो तो क्या वे कैवल्यदान देते हैं? भगवान बोले ‘हाँ ’
आचार्य श्रीनागदेव ने भगवान श्रीचक्रधर जी से फिर पूछा भगवन् यदि श्री गोविन्द प्रभु हमें छोड़ कर चले गये तो फिर कैसे होगा? भगवान ने कहा तुम सारे अब श्रीगोविन्द प्रभु जी का सन्निधान करो । और हमारी आज्ञा का पालन करो ।
परब्रम्ह परमेश्वर अवतार श्री गोविन्द प्रभु जी ने अपने मायापुर का त्याग करते समय श्री नागदेवाचार्य सहीत अपनी शिष्य मंडली को कहा, "आवो मेला जाए, मातापुरासि जाए म्हणे।" अर्थात् नागदेव तुम सब माहुर में भगवान श्रीदत्तात्रेय जी के पास जाओ।
भगवान श्री गोविंद प्रभु जी जी के वचन मानकर श्री नागदेव आचार्य जी माहुर श्रीदत्तात्रेय जी के पास गये। और वहा श्री दत्तात्रेय महाराज ने उन्हे दर्शन देकर कहां, ‘‘अब से तुम गंगातीर में रहकर परधर्म का प्रसार करो, हम तुम्हे आज्ञा देते हैं । गंगातीर में रहकर ज्ञान दान का महान कार्य करो ।’’ तम श्री नागदेवाचार्य जी आज्ञा का पालन करते हुए गंगातीर आ गये । वहीं से महानुभाव पंथ का प्रचार प्रसार शुरु हुआं ।
सैह्याद्री पर्वत पर क्रीड़ा करने वाले, लीलाएं करने वाले भगवान श्रीदत्तात्रेय जी के दर्शन मात्र से अनेक जीवों का कल्याण हो चुका है, हो रहा है और भविष्य में भी होगा। भगवान श्रीदत्तात्रेय जी का प्रतिदिन का नियम है कि वह चार स्थानों पर उपस्थित होकर जीवों का कल्याण करते हैं। श्रीदत्तात्रेय प्रभु को आशुतोष अर्थात् शीघ्र प्रसन्न होने वाले अवतार कहा है। उनके दर्शन मात्र से ही जीव को ज्ञान प्राप्त हो जाता है।
माता मदालसा के सात पुत्र थे, जिनमें से छः माता मदालसा के आदेश अनुसार श्रीदत्तात्रेय प्रभु से अनुसरण लेकर उनके वचन अनुसार आचरण कर रहे थे। सातवाँ पुत्र राजा अर्लक राज वैभव में मगन होने के कारण संसार का त्याग नहीं कर सका। तब मदालसा ने अपने भाई काशीराज से कहकर राजा अर्लक पर आक्रमण करवाकर उसे युद्ध में पराजित करवा दिया। राजा अर्लक तीनों तापों से ग्रसित था। सेना सहित पराजित होने पर आधिभौतिक ताप, युद्ध करने से शारीरिक श्रम के कारण आध्यात्मिक ताप तथा ईश्वर की सहायता न होने के कारण आधिदैविक तापों से दुखी था।
राजपाठ चले जाने के कारण सब कुछ नष्ट हो जाने के कारण वह श्रीदत्तात्रेय जी की शरण में आया। उस समय भगवान श्रीदत्तात्रेय जी ने शंबोली-शंबोली शब्दों का उच्चारण करके उसके तीनों का हरण किया और श्रीदत्तात्रेय जी की अमृत वाणी सुनकर उसके तीनों ताप नष्ट हो गये। भगवान श्रीदत्तात्रेय प्रभु जी के दर्शन "अमोघ हैं। अर्थात् उनके दर्शन कभी निष्फल नहीं जाते। जो ज्ञान व प्रेम प्राप्ति के अधिकारी नहीं भी हैं उन्हें भी श्रीदत्तात्रेय प्रभु जी के दर्शन हो जायें तो उनमें भी ज्ञान संचार स्वयमेव हो जाता है।
श्रीदत्तात्रेय प्रभु इस ईश्वरीय धर्म के मूल कारण माने गये हैं। आरम्भ में उन्होंने स्वयं ज्ञान शक्ति स्वीकार की। भगवान श्रीदत्तात्रेय प्रभु को निमित्त करके द्वारावतीकार श्रीचक्रपाणि भगवान ने ज्ञान शक्ति स्वीकार की तथा श्रीचक्रपाणि प्रभु को निमित्त करके भगवान श्रीचक्रधर जी ने ज्ञान शक्ति स्वीकार की। भगवान श्रीदत्तात्रेय जी को निमित्त करके श्री चांगदेव राऊल जी ने उनका शिष्यत्व स्वीकार किया था, उनके शिष्य श्री गोविन्द प्रभु जी तथा उनके शिष्य भगवान श्रीचक्रधर जी, इस गुरु परम्परा की दृष्टि से भगवान श्रीदत्तात्रेय प्रभु को भगवान श्रीचक्रधर जी ने इस कार्य का आदिकारण कहा है। जीव को ज्ञान तथा ज्ञान शक्ति परमेश्वर के अवतारों से ही मिलती है। असन्निधान में परमेश्वर अधिकरण (गुरु) को निमित्त बनाकर ज्ञान देते हैं। श्रीदत्तात्रेय जी के सम्बन्ध में कुछ बातें यहाँ लिखी हैं, पढ़कर धर्म लाभ प्राप्त करें। अन्त में मैं यही कहूँगा कि
जिनके सिमरण मात्र से सिद्ध हो सब काज,
सो हम पर कृपा करें श्री दत्तात्रेय महाराज।
हमारी निष्ठा, श्रद्धा, विश्वास हो तो निश्चित रूप से आज भी प्रभु जी हम पर कृपा कर सकते हैं। तो क्या आपकी ऐसी निष्ठा व श्रद्धा है?