श्रीकृष्ण भगवान् ही एकमात्र नियंता हैं

श्रीकृष्ण भगवान् ही एकमात्र नियंता हैं

श्रीकृष्ण भगवान् ही एकमात्र नियंता हैं 

श्रीकृष्ण भगवान् ही एकमात्र नियंता हैं और सारे जीव (जड़ और चेतन) उनकी पराशक्ति है क्योंकि उनके गुण ईश्वर के समान हैं। उनके सब कार्य देवी-देवता से भिन्न अलौकिक हैं। वे सब समय अपनी लीला दिखाते हुए, छल करते हुए (जो कोई भी न जान सके) दिखाई दिये। ना तो उन्होंने कभी दुख भोगा और ना रोये। वे हरेक ऐसे करते थे कि जब उनकी लीलाएं हम याद करते हैं तो ऐसा आनन्द विभोर कर देती हैं वह भौतिक वस्तुएं (क्षणिक सुख वाली) नहीं देती। 

ब हम आँख बन्द करके उनकी लीलाओं को याद करते हैं तो लगता है कि हम कहाँ पहुँच गये जो उस समय उनके साथ रहे होंगे, वे कितने आनन्द मगन रहे होंगे। हम महसूस करते हैं कि हम किन बँधनों में फँसे हुए हैं जो झूठे हैं, बनावटी हैं, दुःख देने वाले हैं, आवागमन के चक्कर में रखने वाले हैं, कभी भी मुक्त न करने वाले हैं।

एक दिन दुःखी थी तो सोच रही थी कि, हे भगवान् ! अपनी शरण में ले ले, मैं किन बंधनों में बंधी हुई हूँ। फिर सोचा कि ये बंधन भी क्या बने हैं? मनुष्य जन्म लेता है तो उसे माँ-बाप पालते हैं और बड़ा होता है तो सगे-सम्बन्धी, समाज, दोस्त, भाई-बहनों का रिश्ता बनाकर बंधन में होते हैं और बड़े होने पर पति-पत्नी और फिर बच्चों के बंधन में बंधते हैं तो क्या संन्यास से ये बंधन टूट सकते हैं पर नहीं एक सन्त महात्मा भी अपने भक्तों के बंधन में बंधे होते हैं। 

उनके भी जो रिश्ते सम्बन्ध हैं वे भी वही कहलायेंगे। वह तो समय अब है नहीं कि जंगलों में जाकर ईश्वर स्मरण किया जाये तो आज यह श्री चक्रधर स्वामी के शब्द - सब कुछ ईश्वर का है, मनुष्य को अपना कुछ भी कहने का अधिकार नहीं है। अतः स्वार्थ से परे होकर ईश्वर का नाम लेकर प्रत्येक सम्बन्ध निभाया जाये। जिस दिन यह भावना आ जायेगी कि सब कुछ भगवान् का है, हमें चलते फिरते, उठते-बैठते भगवान् का नाम लेकर प्रत्येक बंधन को निभाना है। अगर आप मन्दिर में हैं तो अपनापन छोड़कर अर्थात् स्वार्थमुक्त होकर ईश्वर का स्मरण करना अर्थात् भोग लगाना, भोजन बनाना, दान देना सभी कर्त्तव्य करते हुए श्री कृष्ण भगवान को अर्पित करना चाहिए तभी आप आनन्द का अनुभव कर सकते हैं।

अनेक ग्रंथों में या महात्माओं के मुख से सुनते हैं कि धन का लोभ छोड़ दीजिए पर यह किसी भी तरह आज संभव नहीं है क्योंकि धन के बिना मनुष्य कोई कर्म नहीं कर सकता। अगर हम कहीं जाते हैं तो भी वाहन, जूते, कपड़े आदि सभी चाहिए। के लिए भोजन भी चाहिए, बिना धन कुछ भी नहीं। हाँ, पर सबसे बड़ी सम्पत्ति तो ईश्वर है उस पर भरोसा रखना चाहिए, परन्तु धन भी जरूरत के हिसाब से रखें। उसे सर्वोच्चता न दें, यह माया तो आनी-जानी है। 

जो भी मनुष्य भौतिक वस्तुओं के भोगने के अहंकार से अपने को नहीं बचा पाते, जो सदैव हर वस्तु पर अपना प्रभुत्व जमाना चाहते हैं, जिनके मन और इन्द्रियां उसी में लिप्त होते हैं वे तामसी कहलाते हैं। यदि मनुष्य इनका त्यागकर दे तो वह दिव्य पद को प्राप्त कर अमृत का पान करता हुआ सुख भोग सकता मेरे मन में हमेशा अब यह विचार रहता है कि जो आना है या मिलना है वह तो मिलना ही है परन्तु जो जाना हे उसे हम रोक नहीं सकते। 

कल ही की बात है कि यह उक्ति मैं किसी को सुना रही थी तभी मेरा ध्यान अपनी अंगूठी पर गया तो उसका हीरा निकल गया था, वह अंगूठी मुझे 27 साल पहले शादी में मिली थी तो मुझे उसका जरा भी दुःख नहीं हुआ, मैं उससे विचलित नहीं हुई क्योंकि ध्यान हमेशा रखती हूँ पर ऐसा फिर भी हो जाये तो कोई बात नहीं, ये तो भौतिक सम्पत्ति है, ये चली भी गयी तो क्या परन्तु ईश्वरीय सम्पत्ति हमेशा मेरे पास रहे। 

ऐसे ही ये एक बार विदेश गये हुए थे तो मुझे पता चला कि इनका बैग चोरी हो गया है, जिसमें पैसा और कागज थे। दो मिनट तो अजीब लगा फिर वही सोच और हँसकर कहा कि ध्यान रखो, फिर भी ऐसा हो जाये तो कोई बात नहीं। रात को बच्चों के साथ पूजा कर रही थी तो एकदम याद आया कि ये तो विशेष (एक प्रकार की पूजा) साथ लेकर गये थे, वह भी कहीं चोरी न हो गया हो। अगले दिन सुबह फोन आते ही विशेष के बारे में पूछा तो ये बोले कि वह तो मैंने जेब में रख लिया था तो मैंने कहा कि फिर कोई बात नहीं या तो हमने उसका देना होगा या अगले जन्म में वह हमें दे देगा क्योंकि यह भौतिक सम्पत्ति तो आनी-जानी है।

हमेशा जो ईश्वर में लीन होते हैं या परमार्थ सेवा करते हैं और ईश्वर में मगन होते हैं, पार लौकिक कार्य करते हैं। अधिकांश कार्य काम, क्रोध, मोह, लोभ आदि विकारों और इन्द्रिय वासनाओं से मुक्त हो करते हैं वे ही दिव्य पद को प्राप्त करते हैं, जहां से कभी लौटकर नहीं आना पड़ता। 

जिस प्रकार हम एक गुब्बारे को लेकर उसमें गैस की हवा भरते हैं तो वह फूल जाता है। जब वह आसमान में हवा में जाता है तो और हवा भर जाती है और वह आसमान में फट जाता है। इसी तरह मनुष्य को यज्ञ, तप, दान, जप, अनुष्ठान, व्रत आदि कृष्णमय भावना से निष्काम अर्थात् बिना फल माँग करता है तो मनुष्य में इतनी पवित्रता बढ़ती है कि उसमें सतोगुण की वृद्धि हो जाती है। साधक कभी पीछे नहीं लौट सकता। 

श्री भगवान् ने गीता में कहा है - 'यद्गत्वां न निवर्तन्ते तद्वाम् परमं मम्' । जहाँ जाकर फिर लौटना नहीं पड़ता ऐसा मेरा धाम है। जीवन में उदारता, विशाल हृदयता, दया, सहानुभूति, सच्चाई ऐसे गुण हैं जिन्हें अपनाकर आप वहाँ पहुँच सकते हैं। जीव अपने अमर और अखण्ड होने का प्रमाण अपने ही अंदर धारण किये हुए । 

साधक दुनिया के भारी कष्टों की दशा में हँसता रहता है। वह अपनी भुजा उठाकर कहता है कि जाओ, चले जाओ जिस अंधकार से तुम उत्पन्न हुए हों, उसी में विलीन हो जाओ। मैं हर हाल में सन्तुष्ट हूँ। हमेशा धैर्य और संतोष धारण करो। कार्य कठिन है पर इसका फल मीठा है। यदि अभ्यास और मनन द्वारा भी तुम अपने पद, सत्ता, महत्त्व और गौरव शक्ति की चेतना प्राप्त कर सको तो वह अवश्य करना चाहिए।

वैसे अपना तो कुछ भी नहीं है। न मन अपना है, न बुद्धि अपनी है, न शरीर अपना है, न प्राण अपने हैं, न इन्द्रियाँ अपनी हैं, न घर अपना है, न सम्पत्ति अपनी है, न कुटुम्ब अपना है। जब हम सोचते हैं कि सब चीजें भगवान् की हैं तो आनन्द ही आनन्द का अनुभव होता है। एक छोटी सी बात यह है कि मैं भगवान् का हूँ, बस और किसी का नहीं हूँ। जब हम तन, मन, धन से अपने को समर्पित कर देंगे तो घर भगवान् का, दरबार भगवान् का, परिवार भगवान् का, धन भगवान् का, प्रसाद भी भगवान् का, सब भगवान् को हो जायेगा। ऐसे ही हम भगवान् के बनकर जो भी करें तो हमारी हर क्रिया भगवान् की हो जायेगी। भजन, कीर्तन, भोग लगाना क्या है भगवान् की प्रसन्नता भगवान् को समर्पित होना। यह सोचा कि अपनी हर शक्ति ईश्वर के कार्य में लगानी है।

‘त्वदीयं वस्तु गोविन्द तुभ्यमेव समर्पये’ नाम, स्मरण, भजन कीर्तन में समय बिताना है। "सर्व भावेन भजति" का नियम लेने पर आप कितने ऊँचे हो जायेंगे। कितना श्रेष्ठ और सुगम जीवन हो जायेगा। हम तो भगवान् को अर्पण हो गये और हर काम भगवान् का करेंगे तो ना काम हमारा है, ना घर हमारा, हर वस्तु भगवान् की हो जायेगी। 

भगवान् के चरणों में भगवान् की हर चीज अर्पण करते हुए आप कितने आनन्दमय हो जायेंगे। यदि तुमने अपने को अर्पित कर दिया तो चाहे चिन्ता, विपरीत भावना या राग, द्वेष की भावना हो भी जाये तो चिन्ता या भय करने की आवश्यकता नहीं रहती। ‘मा शुच’ अर्थात् चिंन्ता मत कर । चिन्ता आ भी जाये तो कोसों दूर भगा दे। दृढ़ता होने पर चिन्ता भी नहीं रहती। आपने अपने को अर्पित तो कर दिया, परन्तु आपको भगवान् के दर्शन नहीं हुए, चरणों में प्रेम नहीं हुआ, नाम-स्मरण न कर सका तो केवल भगवान् को पुकराते रहो और अनन्य भक्त बन जाओगे। 

जैसे कुम्हार मिट्टी गीली करके रौंदकर कुछ भी बनाता है तो मिट्टी यह नहीं कहती कि क्या कर रहे हो। ऐसे ही मिट्टी की तरह भगवान् के प्रेम में लग जाओ। मैं तो बस भगवान् का हूँ, ऐसा सोचकर निश्चिन्त हो जाओ पर अपना कर्म न छोड़ो। भगवान् के शरण होने पर भगवान् की कृपा होती है। मनुष्य को यह समझना चाहिए कि यह शरीर और संसार नाशवान है और ईश्वर अविनाशी है। अतः मनुष्य जब तक संसार के काम आता है तब तक ईश्वर से दूर है अर्थात् न ईश्वर के काम आ सकता है, न उनका बन सकता है। जब ईश्वर कार्य में लग जाता है तो ईश्वर उसके हर कार्य में सहायता करते हैं। अतः अपने को ईश्वर का मानने से मनुष्य ईश्वर की प्राप्ति कर सकता है। हमेशा यह भावना चाहिए कि ईश्वर मेरे हैं और मैं उनका।

जय श्रीकृष्ण


Thank you

Post a Comment (0)
Previous Post Next Post