महानुभाव-पंथिय-ज्ञान-सरिता-Mahanubhavpanth-dnyansarita,
प्रति उपकार की भावना का त्याग करे
किसी भी क्षेत्र में चले जाएं , त्याग के बिना शान्ति का मिलना कठिन ही नहीं असंभव है आनन्दकन्द , परमानन्द भगवान श्रीकृष्णचन्द्र जी ने श्री गीता के बारहवें अध्याय में भक्त तथा भक्ति के विषय को समझाते हुए बतलाया है कि कर्मों के फलों की आशा का त्याग करने पर ही शान्ति प्राप्त हो सकती है. माता पिता यदि अपना कर्तव्य समझते हुए बालकों का पालन पोषण करते हैं, तो उन्हें दुःख नहीं होता और इसके विपरित यदि वे प्रति उपकार की भावना रखते हुए पालन पोषण करते हैं कि - बुढ़ापे में बच्चे हमारी सेवा करेंगे, इस भावना से लालन - पालन करते हैं और बच्चे सेवा नहीं करते, तो उन्हें दुःख होता है.
वैसे ही गुरु शिष्य को विद्या पढ़ाता है और साथ ही साथ शिष्य के द्वारा सेवा की अपेक्षा रखता है , तो ऐसे गुरु को भी दुःख ही प्राप्त होता है. क्योंकि यदि शिष्य सेवादार नहीं निकला , तो दुःख ही होता है. इसी तरह किसी की भी मदद - सहायता करते समय प्रति उपकार की भावना रखना ही दुःखदाई है. प्रति उपकार की भावना से किये हुए कर्मों का फल बहुत ही सामान्य होता.
फल की भावना का होना ही हीनता है यदि हम किसी साधु - महात्मा को कुछ दान दक्षिणा देते - हैं , तो हमारा केवल यही उद्देश्य हो कि ये सन्त जन मेरे प्रभु के प्यारे हैं , इनकी सेवा से परमात्मा प्रसन्न होंगे परमेश्वर प्रसन्न हों , यह हेतु नहीं है यदि हम किसी हेतु को सन्मुख रख कर कोई सेवा करते हैं और उस हेतु के पूरा नहीं होने पर दुःखी होते हैं ,
और भविष्य में भी सेवा से वंचीत रह जाते हैं , मन में दुःख होने से आगे भी कोई सेवा विधि उपलब्ध नहीं होती नही कर पाते.
कभी हम किसी मठ - मन्दिर या आश्रम में जाते हैं और, वहां पर हमारा उचित आदर - सत्कार किया , और कभी वहां के सन्त - महन्त हमारे शहर में आते हैं उस समय यदि हम उनके उपकारों को ध्यान में रख कर सेवा करते हे, तो सेवा स्वीकार में नहीं पड़ेगी परमात्मा भी प्रसन्न नहीं होगें उन्होंने किया है इसलिए हम भी करेंगे या हमने किया है तो इसलिए उन्होंने भी करना चाहिए ऐसी अपेक्षा नहीं रखनी चाहिए .
हमें किसी की सेवा करने का मौका मिला है और हम उस समय ये सोचें की आज हम इनकी सेवा करेंगे , तो इनके यहाँ जाने पर हमारी सेवा होगी , इससे भी परमात्मा प्रसन्न नहीं होंगे जिस परमात्मा ने इतनी बड़ी दुनियाँ की रचना की , जीवों की सुविधा के लिये नानाविध साधन बना दिये , फिर भी प्रति उपकार की भावना महाराज ने कभी नहीं रखी माता पिता का अनुकरण करने वाली औलाद ही उनकी कहलाती है , वैसे ही परमात्मा का अनुकरण करने वाले भक्त ही उसके सच्चे भक्त होते हैं.
प्रत्येक ईश्वर.अवतारों की यही शिक्षा है कि कर्म करो , परन्तु फल की इच्छा मत रखो यदि एक तरफ तो हम परमात्मा के भक्त कहलाएं और दूसरी तरफ सकामता का त्याग नहीं कर सकें , तो हम उस परमात्मा के सेवक कैसे ? अपने “ साधनदाता " सर्वज्ञ श्री स्वामी जी ने दासी और पतिव्रता स्त्री का दृष्टान्त देकर समझाया है कि भक्त के दिल में किसी भी प्रकार की सकाम भावना नहीं होनी - चाहिये पूजा - पाठ , स्मरण करते किसी भी प्रकार की हुए सकाम भावना नहीं होनी चाहिये.
परन्तु आजकल तो आम देखा जाता है कि प्रत्येक धार्मिक विधान के साथ माँग जरुर होती है मेरा अमुक कार्य हो जाएगा , तो मैं यह दान दूँगा यदि गृहस्थ आदमी कुछ सकाम क्रिया कर भी ले , तो इतना दोष नहीं माना जाता परन्तु महात्मा लोग हमेशां ही आज किसी का पाठ है , तो कल किसी और का पाठ है और पाठ करेंगे तो उसके बदले में दान- दक्षिणा अच्छी मिलेगी, इसी हेतु से पाठ करते रहते हैं क्या “ ब्रह्मविद्या शास्त्र " में ऐसा विधान कहीं मिलता है कि महात्माओं ने जिन्दगी भर लोक दुनियाँ के पाठ स्मरण ही करते रहना चाहिये?
जो महात्माजन् दुनियाँ का दुःख दर्द और कष्ट मिटाने के लिये, गरीबी मिटाने के लिये , कारोबार के लिये अथवा सन्तान हो, उसके लिये पाठ स्मरण करते हैं , तो जिस - जिस भी कार्य के हेतु पाठ किया जाता है अथवा जिसके लिये किया गया, उसका तो कार्य पूरा हो जाएगा परन्तु पाठ स्मरण करने वालों को क्या मिलेगा ? इतना ही है कि दान दक्षिणा वस्त्रादि मिल जाएंगे परन्तु परमात्मा की प्रसन्नता का प्राप्त होना संभव नहीं है धर्म- शास्त्रों की आज्ञा है कि किसी भी - प्रकार की दुनियावी नश्वर वस्तुओं के लिये पाठ स्मरण न करें भक्त हो चाहे महात्मा.
अतः - पर नहीं रहा जाता , तो अपने आप करें , दूसरों को कष्ट न पहुँचाएं अपने आप किये हुए पाठ स्मरण के द्वारा परमेश्वर की ओर से अधिक सहायता होती है
कनाशी के ब्राह्मण को स्वामी ने माँगने के लिये कहा , तो उसने नश्वर वस्तुओं की माँग की स्वामी ने कहा - ब्राह्मण ! ये वस्तुएं तो कर्मों के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति को जन्म जन्मान्तरों में मिलती आई , मिल रही हैं और मिलती रहेंगी ऐसी कुछ मांग करो , जो आज तक तुम्हें कभी नहीं मिली फिर भी ब्राह्मण ने नश्वर वस्तुओं की ही मांग की स्वामी ने वरदान तो दे दिया परन्तु देने के बाद खेद प्रकट किया कि परमेश्वर के प्रसन्न होने पर उसका प्रेम माँगना चाहिये।
कनाशी का ब्राह्मण न तो ज्ञानी था और न वह भक्त था उसको स्वामी ने नश्वर वस्तु मांगने का निषेध किया तो साधु- महात्मा अथवा भक्त , जिनको परमात्मा का ज्ञान है , यदि हम भी कनाशी के ब्राह्मण जैसे ही नश्वर वस्तुओं की मांग करें या दूसरों को नश्वर वस्तु दिलाने के लिये पाठ - स्मरण करके , परमात्मा को मजबूर करें तो हमारे जैसा दुर्भागी और कौन हो सकता है ? इसका मतलब यही निकलता है कि - स्वामी के वचनों पर हमें - विश्वास नहीं है और न हम अनन्य भक्त ही हैं।
अनन्य भक्तों के लिये तो गीता में भगवान ने कहा है अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जना पर्युपासते तेषां नित्याभियुक्तानां योग क्षेमंवहाम्यहम् जो भक्त अनन्य भाव से मेरी भक्ति करता है, निष्काम भाव से मेरा भजन - स्मरण करता है उसका योग जिन वस्तुओं की उसे आवश्यकता होती है, वे मैं उसे बिना मांगे ही देता हूँ) और क्षेम (जो वस्तु भक्त के पास होती है, उसकी रक्षा भी मैं करता हूँ) मैं चलाता हूँ अतः यही कहना पड़ता है कि फलों की वासनाओं का त्याग करके , आशाओं- इच्छाओं का त्याग करके , नश्वर प्रपंच की अपेक्षा अविनाशी परम सुख को प्राप्त करने के लिये , प्रति उपकार की भावना को छोड़ करके निष्काम कर्म करें..
एक जगह महाराज कहते हैं तू सब कुछ अपना मेरे पर छोड़ कर तो देख मैं तेरे सारे काम बना दूंगा मैं तेरे सारे काम सबार दूंगा लेकिन हम लोग स्वार्थी जीव के कि हुई हर क्रिया के बदले में उपकार भावना साकाम भावना होती हैं जिससे भगवान प्रसन्न नहीं होता और हम लोगों को सिर्फ दुख ही दुख भोगना पड़ता है।