महानुभाव पंथीय ज्ञानसरिता
भेटकाल- एक दुर्लभ विधि
कलियुग के अवतार भगवान श्री चक्रधर महाराज जी इस परमेश्वर धर्म के साधन दाता हैं। यद्यपि पाँच परमेश्वरावतार की भक्ति इस परमेश्वर धर्म के अनुयायी करते चले आ रहे हैं परन्तु इन पाँच अवतारों की भक्ति भी हमारे साधन दाता भगवान श्री चक्रधर महाराज जी ने ही बताई है। श्री भगवान जी ने इस परधर्म के अनुयायियों को चार साधन का वंदन करने का आदेश दिया है
(1) सर्व प्रथम इन पाँच अवतारों के श्री चरणों से सम्बन्धित स्थानों को तथा पाषाणों को मस्तक रखकर नमन वंदन करने को कहा
(2) दूसरा इन अवतारों द्वारा दिये गये वस्त्रों तथा अन्य वस्तुओं को प्रसाद कहा है जिन पर अपना मस्तक रखकर उनका वंदन करना चाहिए। जो भी वस्तु परमेश्वरावतार प्रसन्नतापूर्वक देते हैं वे प्रसाद माने जाते हैं।
(3) श्री भगवान जी के वचनों के अनुसार जो भी आचरण करते हैं उनको भिक्षु कहा गया है। इन भिक्षुओं का भी पूजन करना चाहिए परमेश्वर समझकर नहीं अपितु परमेश्वर के सेवक समझकर
(4) उन वासनिकों का भी वंदन करना चाहिए जो गृहस्थाश्रम में तो हैं परन्तु उन्होंने परमेश्वर का ज्ञान प्राप्त कर लिया है तथा वे ग्रहस्थाश्रम में किसी कारण तो रह रहे हैं परन्तु वे इस गृहस्थाश्रम को अनिष्ट पाप ही समझते हैं तथा इसका त्याग करने के बारे में सदैव सोचते हैं। फिर साधन दाता भगवान श्री चक्रधर महाराज जी ने इस परधर्म का अनुसरण करने वालों को 11 विधि ने का पालन करने का आदेश दिया है। वे 11 विधि इस प्रकार हैं -
(1) अटन (2) विजन (3) भिक्षा (4) भोजन (5) संग (6) संघात (7) भेट (8) सुश्रुषा (9) प्रसाद सेवा (10) स्मरण (11) निद्रा ।
इनमें पहली चार विधियों को नित्य विधि कहा है तथा उसके बाद अगली 4 विधियों को निमित्य विधि, कहा है। बाकी 3 विधियां नित्यविधि निमित्य विधि का आचरण करने वाले सभी साधकों लिए है। यहाँ पर भगवान श्री चक्रधर महाराज जी के द्वारा बताई विधि भेंट विधि के बारे में बताया जा रहा है।
भगवान श्री चक्रधर महाराज जी ने इस भेंट विधि को दुर्लभ विधि कहा है। एक साधक को सदैव स्थान, प्रसाद, वासनिक, भिक्षुक, शास्त्र, धर्म की भेंट करने की तीव्र उत्कंठा होनी चाहिए। यदि इनकी भेंट न हो तो उसे इनकी कमी का आभास कर दुःख करना चाहिए यदि इन साधनों की अपने आप भेंट हो जाये तो ऐसी सर्वोत्तम भेंट होती है परन्तु यदि अपने आप भेंट न हो तो स्वयं प्रयत्न कर इन साधनों की भेंट करनी चाहिए। ज्ञानी, वैराग्य पूर्ण साधकों की भेंट लेने पर ज्ञान तथा वैराग्य की शिक्षा प्राप्त होती है।
भेंट होने पर ही शास्त्र चर्चा हो सकती है। एक दूसरे की भेंट होने से दृष्ट पर तो भाव बढ़ता है, आर्त जागृत होता है तथा अदृष्ट पर योग्यता प्राप्त होती है। अतः गुरु, सुहृद, अनुसर ले, ज्ञात विरक्त, वासनिकों की, वेधवन्तों की भेंट प्रयत्न कर प्राप्त करनी चाहिए। जब इस परमेश्वर के परिवार की भेंट होती है तो स्थान-प्रसादों का वंदन भी होता है तथा प्रभु की लीलाओं का भी गुण गान होता है परन्तु स्मरण रहे कि किसी की भी भेंट करते समय वहाँ के दोषों को कदापि ग्रहण नहीं करना है।
इन साधनों की भेंट होने पर जो प्रीति पहले होती है वही अन्त तक बनी रहनी चाहिए। जब किसी भी साधनवन्त से भेंट हो तो उसका यथा योग्य सम्मान भी करना चाहिए। उसको यथा योग्य आसन पर बैठाना चाहिए, उसका भजन-पूजन करना चाहिए, स्तुति करनी चाहिए, उसकी सेवा शुश्रुषा भी करनी चाहिए।
भेंट विधि परम श्रेष्ठ विधि है, यही मोक्ष प्राप्ति, परमेश्वर प्राप्ति का सर्वोत्तम साधन है। श्री नागदेव जी ने भगवान श्री चक्रधर महाराज की सिन्नर (श्री नगर) स्थान पर भेंट ली और उसका जीवन ही बदल गया। सभी प्रकार के दुर्व्यसनों से भरा नागदेव, एक परमेश्वर का आज्ञा पालक भक्त बन गया। उसने भी गृहस्थाश्रम का त्याग कर प्रभु की शरण ली।
परमेश्वरावतार की तथा परमेश्वर के भक्तों की भेंट लेने से जीवात्मा पर जो अनन्तजन्मों से एकत्रित मैल बैठी है, वह दूर हो जाती है तथा यह जीवात्मा शुद्ध, निर्मल तथा पवित्र हो जाता है। भगवान श्री चक्रधर प्रभु भ्रमण करते हुए मनसर से भांडारा में नीलकंठ भांडारे कार के घर उसे भेंट देने पहुँचे। उनके स्नान के लिए पानी गर्म हो रहा है। उनके शरीर पर धोती के अतिरिक्त और वस्त्र भी नहीं था। उनके नहाने की तैय्यारी हो रही थी। भांडारेकार के मन में कुछ शंका थी जिसका समाधान वे एक धार्मिक पुस्तक में ढूंढ रहे थे। श्री भगवान जी उसके घर पाणि पात्र (हाथ में भिक्षा) करने पहुँचे। वे उसके घर के दरवाजे के बाहर एक भिक्षु बनकर खड़े हो गये तथा उन्होंने भिक्षा शब्द उच्चारण किया। उसकी स्त्री ने महाराज को भिक्षा दी। नीलकंठ भांडारेकार का ध्यान महाराज की ओर नहीं गया। अन्तर्यामी सर्वज्ञ भगवान जी ने उसके मन के भाव को जानकर कहा - ‘अरे, इस पुस्तक के पिछले प्रकरण में देखो तुम्हारी शंका का समाधान हो जायेगा।’
उसने पिछले प्रकरण में देखा तो उसकी शंका का समाधान हो गया। तब उसके मन में यह भाव आया कि ये भिक्षा मांगने वाले ज्ञात हैं तथा मेरे हितचिंतक हैं। ऐसी आत्म प्रतीति आने पर वे जिस अवस्था में थे उसी स्थिति में अपने गृह का त्याग कर श्री भगवान जी के साथ चल पड़े और उन्होंने एक श्रेष्ठ निर्गुण त्याग का उदाहरण प्रस्तुत किया तथा वे प्रभु जी के सेवक बन गये। 16 वर्ष तक प्रभु जी की सेवा कर वे प्रभु जी की गोद में सिर रखकर श्रीमूर्ति का दर्शन करते हुए इस संसार से विदा हो गये। यह सब कैसे हुआ, श्री भगवान जी की भेंट से ।
संसार के सभी दुःखों से त्रस्त वसमत जि० परभणी की माई बाईसा ने भगवान श्री चक्रधर जी की भेंट वेरूळ (एलोरा) में की और उसके सभी दुःख दूर हो गये। इस माता को गृहस्थाश्रम में दुःख ही दुःख प्राप्त हुए । इसको तीन संताने हुई एक लड़का तथा दो लड़कियां । जब बच्चे छोटे थे तो पति ने जवानी की अवस्था में ही इसका साथ छोड़ दिया। बच्चों के पालन-पोषण का सब भार इस बेचारी माता के कंधों पर आ गिरा। उसका लड़का जवान हुआ तो उस पर माता की आशाऐं टिक गई परन्तु दुर्भाग्य ने पीछा नहीं छोड़ा और भरी जवानी में उसका एकलौता पुत्र चल बसा। अब तो उस पर दुःख का पहाड़ ही आ गिरा। उसने अपनी बड़ी लड़की एकाइसा का विवाह किया तो शीघ्र ही वह भी विधवा बनकर उसके पास ही आ गई।
दूसरी कन्या जसमाईसा का विवाह किया तो उसे ससुराल में फिट (दौरे) पड़ने लगे जिससे उसका पति तथा ससुराल वाले उससे घृणा करने लगे तथा उन्होंने इस कन्या को भी माईबाईसा के पास सौंप दिया। ऐसे दुःखों से भरे जीवन को जी कर क्या करना ? अतः ऐसे जीने से तो मरना अच्छा है।
वसमत नगर के लोग द्वारका तीर्थ यात्रा के लिए जाने लगे तो वह भी अपनी दोनों बेटियों को लेकर जाने को तैय्यार हो गई उसने सोचा द्वारका जाकर एक लड़की को पीठ पर बांधकर तथा दूसरी को पेट से बांधकर द्वारका में डूब जाऊँगी तथा इस प्रकार सब दुःखों से छुटकारा हो जायेगा। यह सोचकर वह द्वारका यात्रा पर चल पड़ी। रास्ते में सभी यात्री पैठण पहुँचे।
पैठण में उसके भाई का लड़का सारंग पंडित रहता था। वह सारंग पंडित से मिली तथा उसने अपने सब दुःख उसको सुनाये। वह रात को सारंग पंडित के पास ही रुकी जिसने उसका यथायोग्य सम्मान किया। दूसरे दिन जब वह यात्रियों के साथ चलने लगी तो सारंग पंडित बोले– ‘तुम यात्रा पर जाते हुए वेरूळ (एलोरा) में हमारे स्वामी भगवान श्री चक्रधर जी का दर्शन जरुर करना, हो सकता है वे तुम्हारे दुःखों का निवारण कर देवें।’ डूबते कोतिनके का सहारा ।
माई बाईसा को जीवन के घोर अंधकार में एक आशा की किरण दिखाई दी। वे अपनी लड़कियों को लेकर यात्रियों के साथ वेरूळ (एलोरा) आई। भगवान श्री चक्रधर महाराज प्रातः विहरण कर अपने निवास पर आकर अपने आसन पर विराजमान थे। श्री भगवान जी के दर्शन कर वह फूट -2 कर रोने लगी तथा उसने अपनी दुःखद कहानी श्री भगवान जी को सुना दी।
श्री भगवान जी ने माई बाईसा को शान्त करते हुए कहा, ‘बाई रोओ मत दुःख मत करो रोकर दुःख करना भी एक प्रकार का पाप ही है तथा इस पाप से नर्क ही प्राप्त होता है।’ श्री भगवान जी की भेंट लेने से उसकी छोटी लड़की के दौरे ठीक हो गये तथा वह अपने ससुराल जाकर सुखी हो गई तथा माई बाईसा को श्री भगवान जी के दर्शन कर इतना सुख मिला कि जब श्री भगवान जी ने उसे तीर्थ यात्रियों के साथ वहाँ से द्वारका जाने को कहा तो वह महाराज से बोली, ‘प्रभु जी जहाँ महाराज के श्रीचरण हैं वहीं सच्ची द्वारका है।’ उसकी द्वारका यात्रा महाराज के पास ही रहकर पूरी हो गई तथा उसे यात्रा का फल वहीं मिल गया, उसके सभी दुःख दूर हो गये। इस सबका कारण श्री भगवान जी की भेंट ही है इसमें कोई संदेह नहीं है।
सभी शास्त्रों के ज्ञाता माहिमभट्ट जी जिनको अपनी विद्वता पर बहुत अभिमान था ने भगवान श्री चक्रधर महाराज जी से डोमे ग्राम में भेंट की। श्री भगवान जी से धर्म की दो बातें करने पर उनका अभिमान दूर हो गया तथा वे प्रभु के भक्त बन गये। वे संन्यास लेकर ऋद्धपुर में श्री गोविन्द प्रभु महाराज जी की सन्निधि तथा सेवा में रहकर धर्माचरण करने लगे। एक बार माहिमभट्ट जी भगवान श्री चक्रधर महाराज जी से जिला अहमदनगर में एळी नामक स्थान पर एक बड़ के पेड़ के नीचे मिले तो श्री भगवान जी ने माहिमभट्ट जी से पूछा, ‘तुमने कैसे गृहस्थाश्रम का त्याग किया?’ तो माहिमभट्ट जी श्री भगवान जी को सुनाते हैं कि मिट्टी का ढेला उनके लिए संसार त्याग कर संन्यास लेने का कारण बन गया।
माहिमभट्ट जी महाराज से, ‘प्रभु जी, आपसे बोध होने पर मैं अपने घर लौटा तथा अपने संसार का व्यवहार चलाने लगा। परन्तु आपसे सुनी ज्ञान की बातें मेरी बुद्धि में घूमती थी तथा मैं संसार का त्याग कर संन्यास लेने के बारे में विचार करता था। मेरा मन संसार की बातों में अब नहीं लगता था। फिर ज्येष्ठ मास की एकादशी का व्रत कर द्वादशी को व्रत तोड़कर तथा कुछ खाकर मैं बाहर शौच के लिए गया। मैं शौच विधि पूरी कर वापिस आ रहा था। अपने हाथ धोने के लिए मैंने एक मिट्टी ढेला उठा लिया तथा मैं नदी के किनारे गया। मिट्टी के ढेले पर पानी पड़ने से वह मिट्टी के ढेले के कण-2 अलग हो गये। हाथ में उस मिट्टी के ढेले की मिट्टी को देखकर मुझे यह ज्ञान कि मिट्टी के ढेले की तरह ही यह मनुष्य का शरीर भी नाशिवन्त है ऐसा आभास हुआ। यह शरीर नाशिवन्त है तथा यह जीवन अशाश्वत है सदा रहने वाला नहीं है इस बात का आभास कर मैं यह निश्चय करने लगा कि मुझे संसार का त्याग कर शीघ्राति शीघ्र संन्यास ले लेना चाहिए तथा ऐसा सोचते-2 मैंने उसी क्षण अपने घर का त्याग कर दिया तथा भिक्षा मांगते हुए भगवान श्री गोविन्द प्रभु महाराज जी की सेवा में ऋद्धपुर पहुँच गया।
इस प्रकार मैंने संसार का त्याग कर संन्यास धर्म स्वीकार किया। इस सबका कारण था भगवान श्री चक्रधर महाराज जी से डोमेग्राम में भेंट, इस भेंट से उसका विद्याभिमान दूर हुआ तथा वह गृहस्थाश्रम त्याग कर प्रभु सेवा में लग गया।
भगवान श्री चक्रधर महाराज जी ने पैठण में बाईसा नामक बाई को भेंट देकर उसे प्रेम दान दिया। बाईसा में तीन मुख्य दोष थे वयोवृद्ध, पयोवृद्ध तथा मार्ग श्रेष्ठत्व हूँ अर्थात् मैं वयोवृद्ध हूँ अतः श्रेष्ठ हूँ, पयोवृद्ध हूँ अर्थात् मैं केवल दूध पीकर जीवित रहती हूँ यह भी मेरा श्रेष्ठ भाव है तथा मार्ग श्रेष्ठत्व अर्थात् जिस साधना को मैं करती हूँ वह श्रेष्ठ साधना है। इस प्रकार उसमें तीन दोष थे और सबसे बड़ा दोष तो अहंकार था।
भगवान श्री चक्रधर महाराज जी छः मास तक मेहकर नामक स्थान पर बोणों बाईयों के पास रहे तथा सदैव बाईसा का चिन्तन करते रहे। महाराज के छः मास शुभ चिन्तन से बाईसा के त्रिदोष दूर हुए तथा महाराज स्वयं चलकर पैठण नगरी में उसके निवास पर गये तथा उसे भेंट देकर उसे अपनी प्रेम शक्ति प्रदान की जिससे वह परमेश्वर की ऐसी भक्तिन बन गई कि श्री भगवान जी के बिना एक पल भी जीवित रह नहीं सकती थी। जब उसे श्री भगवान जी का वियोग हुआ तो उसने प्रभु जी के लिए अपने प्राणों को त्याग दिया। इस प्रकार बाईसा का ऐसा श्रेष्ठ जीवन का कारण श्री भगवान जी द्वारा उसे दी गई भेंट ही थी ।
भगवान श्री कृष्णजी के भक्त उद्धव देव की भेंट विदुर देव से हुई जिसके फलस्वरुप उद्धव देव तथा विदुरदेव के सात रात तथा दिन भगवान श्री कृष्ण महाराज जी की कथावार्ता के प्रसंग में व्यतीत हो गये। जैसे उद्धव देव ने विदुरदेव को भेंट देकर उसे परम प्रीति दी, ऐसे हमें भी परमेश्वर के परिवार के लोगों से भेंट होने पर परमप्रीति का व्यवहार करना चाहिए। यदि हम परमेश्वर के परिवार वेधवन्त, बोधवन्त, ज्ञानी, त्यागी, अनुसरले, चर्यावन्त से भेंट करते रहेंगे तो निश्चित ही परमेश्वरावतार किसी दिन हमारे पास आकर हमे भेंट देंगे तथा परमेश्वर की भेंट होने पर ही हमारा उद्धार तथा कल्याण हो सकता है।
मनुष्य अनेक दोषों से भरा हुआ है अत: उसने परमेश्वर की भेंट होने में अड़चने अर्जित की हैं जिससे परमेश्वर उन्हें भेंट नहीं देते। भगवान श्री चक्रधर महाराज जी ने अपने भक्त दायबा से कहा- ‘तुम हमारी शरण आकर संन्यास ले लो अन्यथा तुम्हें इस जीवन के बाद नरक योनियां प्राप्त होगी।’ परन्तु दायंबा ने श्री भगवान जी की आज्ञा का पालन नहीं किया जिसके फलस्वरुप वह श्री भगवान जी के उत्तर की ओर प्रयाण करने के बाद धर्म से ही पतित हो गया।
श्री भगवान जी कहते कि दायंबा को यदि हम एक ओर भेंट दे देते तो वह संन्यास ले लेता तथा हमारी शरण में आ जाता परन्तु उसने अपने जीवन में ऐसी अड़चने अर्जित की थी कि श्री भगवान जी ने उसे वह आखरी भेंट ही न दी। इसके फलस्वरुप वह धर्म से ही पतित हो गया। देवगिरी का राजा महादेवराय को महाराज ने बचपन में भेंट दी थी जब वह अबोध बालक था। बड़े होने पर वह महाराज की कीर्ति को सुनकर महाराज के दर्शन के लिए उत्कंठित हो गया, परन्तु श्री भगवान जी ने पास आने पर भी उसे भेंट दर्शन नहीं दिये।
श्री भगवान जी कहते रहे कि यदि महादेवराय राजा को हम भेंट दे देते तो वह अपना समस्त राज्य हमें समर्पित कर स्वयं संन्यास ले लेता परन्तु उसने महाराज के ऐसे दर्शन का अधिकार ही अर्जित नहीं किया था। उसको भेंट देने में अड़चने बनी ही रही दूर न हो पाई। अत: उसकी भेंट श्री भगवान जी से हो न सकी। अत: ऐसी बातों का विचार करते हुए हमें प्रतिदिन प्रभु जी से अत पूर्वक अश्रुपात करते हुए प्रार्थना करनी चाहिए- ‘हे प्रभु जी, हमारी आपसे भेंट होने में जो भी अड़चनें हैं उन्हें प्रभु जी आप कृपाकर दूर कीजिए तथा अपनी भेंट दीजिए। प्रभु आप कब मिलोगे, कब मिलोगे, कब मिलोगे।’
इस प्रकार एक परमेश्वर भक्त की दूसरे से भेंट तो फूल की कोमलता चन्द्रमा की शीतलता तथा पानी की निर्मलता के समान होती है जो इस मन को स्वच्छ कर उसमें ज्ञान, भक्ति, वैराग्य तथा शांति से भर देती है। इस जीवन का परमउद्देश्य ही प्रभु जी से भेंट करना है जब प्रभु जी से भेंट हो जायेगी तो जीव के उद्धार होने में कोई विलंब ही नहीं लगेगा तथा यह जीव संसार के दुःखों के सरोवर से निकल कर आनन्द के सागर में डुबकी लगाने लगेगा।