१४ फेब्रुवारी २०२२
एक सच्चा परमेश्वर भक्त
एक बहुत प्राचीन भजन हम पढ़ते थे -
"घड़ने वाला घड़े खिलौने, कोई रंगीले कोई
सलौने पंछी बावरेया काहे न प्रभु गुण गाई
अर्थात् यह जीवात्मा शरीर रूप पिंजड़े में बंद हुआ एक पक्षी है। उसे इस संसार में आकर सबसे बड़ा काम यह करना है कि प्रभु जी के गुणों का गुणगान करना है क्योंकि प्रभुजी सबसे बड़े मूर्तिकार हैं तथा खिलौने बनाने वाले हैं। एक खिलौने बनाने वाला अनेक प्रकार के खिलौने बनाता है। प्रभु जी भी कितने महान खिलौने बनाने वाले हैं जिन्होंने इस संसार में अनेक योनियों का निर्माण किया तथा प्रत्येक योनि में बहुत ही विचित्र विविधता है।
संसार में अनेक लोग हैं, एक की शक्ल दूसरे से नहीं मिलती तथा एक का स्वभाव दूसरे से नहीं मिलता। एक माता-पिता के अनेक बच्चे सब एक-दूसरे से भिन्न कोई अमीर तो कोई गरीब, कोई बुद्धिमान तो कोई अनपढ़, कोई कुल दीपक तो कोई कुलनाशी। वाह ! प्रभु आप कितने महान चित्रकार, मूर्तिकार तथा कलाकार हो धन्य हो आप। आपकी महानता के सामने तो मैं केवल अपना सर झुका देना चाहता हूँ धन्य हो प्रभु आप, धन्य हो, धन्य हो ।
मानव समाज में भी अनेक प्रकार के लोग होते है, कोई बुद्धिवादी तो कोई भौतिकवादी, कोई भोले-भाले तो कोई बहुत चालाक, कोई स्पष्टवादी तो कोई छल-कपट से भरे हुए-धूर्त सब जन होत न एक समाना। इस लेख में तो हमें यह विचार करना है कि एक सच्चा परमेश्वर भक्त कौन हो सकता है? इस प्रश्न का उत्तर जानने के लिए हमें उन लोगों के बारे में विचार करना चाहिए जो भगवान श्री चक्रधर महाराज जी की सन्निधि में आये तथा उनके उत्तर पंथ जाने के बाद आचार्य श्रीनागदेव जी की सन्निधि में आये तथा उनके उपरान्त गत 800 वर्षों में उनके अनुयायी बनें। सभी का नाम लेना तो यहां संभव नहीं है परन्तु कुछ प्रमुख भक्तों का यहां नाम अवश्यमेव लेना चाहिए तथा उनमें वे विशेषताऐं ढूंढनी चाहिए जिनके कारण वे एक सच्चे परमेश्वर भक्त बने। उन विशेषताओं को जानकर हम भी यह प्रयत्न कर सकते हैं तथा महानुभाव जय कृष्णी धर्म के एक सच्चे परमेश्वर भक्त बन सकते हैं।
सर्वप्रथम हम यह देखते हैं कि भगवान श्री चक्रधर महाराज जी के सान्निध्य में केवल पुरुष ही नहीं स्त्रियां भी आईं। अतः महानुभाव जयकृष्णी धर्म के अनुयायी स्त्री-पुरुष दोनों हो सकते हैं। भगवान श्री चक्रधर महाराज जी स्पष्ट रूप से कहते हैं कि पुरुष तथा स्त्री दोनों में ही जीवात्मा है और प्रत्येक जीवात्मा को मोक्षमार्ग का अनुसरण करने का तथा मोक्ष प्राप्त करने का पूर्ण अधिकार है।
भगवान श्रीकृष्ण महाराज जी भी गीता में कहते हैं कि चाहे स्त्री हो, वैश्य हो, शूद्र हो उनको परमगति मोक्ष पाने का पूर्णाधिकार है। अतः महानुभाव जयकृष्णी धर्म में भगवान श्री चक्रधर महाराज जी की शरण में श्री नागदेव, श्री माहिमभट्ट, श्री जानोपाध्याय जैसे महान भक्त आये तो बाइसा, आउसा, माहादाइसा, आबाइसा, माईबाइसा जैसी महान भक्तिन भी आई जिन्होंने श्री भगवान जी से ज्ञान प्राप्त कर अपना मोक्षमार्ग प्रशस्त किया।
भगवान श्री चक्रधर महाराज जी कहते हैं यह जीवात्मा सभी दोषों का आश्रय स्थान है। अतः दोषयुक्त जीव ही परमेश्वर की सन्निधि में जाते हैं और परमेश्वर अपनी कृपा कर उनके दोषों को दूर कर उन्हें उज्ज्वल बनाते हैं। इस बात को श्रीचक्रधर भगवान जी एक बहुत सुन्दर दृष्टांत समझाते है। वह है छुरी का दृष्टान्त-
एक गाँव में एक लौहार आया उसने छुरियाँ तेज करने के लिये एक स्थान पर अपनी दुकान लगा दी जहाँ सारे गाँव के लोग अपनी छुरियाँ लाकर तेज करवाते थे। गाँव के किसी एक व्यक्ति के घर के किसी कोने में एक बहुत पुरानी जंग लगी हुई छुरी पड़ी हुई थी। वह उस छुरी को उठा लाया तथा उस लौहार को कहने लगा कि इसको तेज कर दो। उस लौहार ने उस छुरी को अपने हाथ में लिया तथा उलट-पलट कर भली भांति देखकर यह जान लिया कि यह छुरी तो राजा के योग्य है परन्तु वह लौहार उस व्यक्ति को कहता है कि यह छुरी जंग खायी हुई है इसको आग में डालने से यह गल जायेगी। इसके दो-चार दाम ले लो मैं इसकी कीलें बना लूँगा। वह व्यक्ति चार दाम लेकर चला गया।
तब उस लौहार ने छुरी के फलक को अलग किया तथा उसकी मूठ को अलग। वह दिन भर लोगों की छुरियाँ तेज करता रहा परन्तु उसकी नजर तथा मन उस छुरी पर लगा हुआ था। सभी लोगों की छुरियां तेज करने के उपरान्त उसने उस छुरी के फलक को आग में डालकर गरम किया तथा हथौड़े से पीट कर उस पर लगी जंग की एक परत उतारी। फिर उसे खटाई में डालकर एक और परत उतारी। इसी प्रकार तेलसहान तथा तुपसहान नाम के पत्थर से घिसके उस छुरी को पूरी तरह साफ कर दिया और वह चम चम चमकने लगी।
फिर उसमें अपनी ओर से एक सुन्दर मूठ लगाकर वह छुरी उसने राजा को भेंट कर दी। राजा ने उसको उस छुरी के बदले में ईनाम भी दिया। फिर वह राजा जहाँ बैठता था उस छुरी को सामने रखता था। जब चलता था तो अपने हाथ में लेकर चलता था। जब वह भोजन करता था तो उसे वह अपनी जंघा पर रखता था और जब वह सोता था तो उसे अपने पास रखकर सोता था वह उस छुरी को कभी भूलता ही नहीं था।
इसी प्रकार यह जीवात्मा अधिकारी जीव है जो दोषों के जंग से भरा हुआ है। लौहार परमेश्वर अवतार हैं जो जीव रूपी छुरी को आचरण रूपी अग्नि में तपा कर उसके जंग रूपी दोष को दूर करते हैं तथा अशुद्ध जीव को शुद्ध बनाते हैं तथा अयोग्य को योग्य बनाते हैं। ऐसे अनेक अधिकारी जीव श्री भगवान जी के पास आये जिनके दोष दूर कर प्रभु जी ने उन्हें योग्य अर्थात् मोक्षाधिकारी बनाया।
श्रीनागदेव भट्ट जी को भगवान श्री चक्रधर महाराज जी के दर्शन हुए वे सभी दुर्व्यसनों से, बुरी आदतों से भरे हुये थे, दूसरों को लूटना, मारना उनका व्यवसाय था। परन्तु कहा जाता है लोहा जब पारस से छू जाता है तो सोना बन जाता है। इसी प्रकार श्री नागदेव जी जब श्री चक्रधर भगवान जी के सम्पर्क में आये तो उनके सभी दोष दूर हो गये। उनकी सातवी भेंट में खड़कुली नामक स्थान में उन्होंने श्रीचक्रधर भगवान जी को एक सुपारी देकर आत्मसमर्पण कर दिया तथा उनकी आज्ञानुसार चलने का संकल्प किया जिसे उन्होंने आजीवन प्रति पालन किया। श्री भगवान जी ने उन्हें इतना योग्य बनाया कि उन्हें इस परमार्ग के आचार्य पद पर प्रतिष्ठित कर दिया।
अतः इससे यह बात स्पष्ट होती है कि जब तक जीव सात व्यसन
(1) जुआ
(2) शराब
(3) माँस खाना
(4) वेश्यावृत्ति करना
(5) चोरी करना
(6) हिंसा करना
(7) दूसरे की स्त्री को बुरी दृष्टि से देखना, इन सात महादोषों का त्याग नहीं कर देता तब तक मनुष्य परमेश्वर का भक्त नहीं बन सकता ।
दुर्व्यसनों का त्याग कर आत्मसमर्पण करने पर ही एक परमेश्वर भक्त बन सकता है। भगवान श्री चक्रधर महाराज जी के सम्पर्क में श्री माहिमभट्ट नामक बुद्धिवादी, सभी शास्त्रों के ज्ञाता आये। सभी शास्त्रों को पढ़कर भी श्री माहिम भट्ट जी में नम्रता न आ सकी तथा वे अपने विद्वता के गर्व से इतने भर गये कि अपने आपको ज्ञान सूर्य समझने लगे तथा दूसरे विद्वानों को तिनके के समान तुच्छ मानने लगे। ऐसे बुद्धिवादी विद्वता का अभिमान करने वाले भी परमेश्वर के भक्त नहीं बन सकते।
भगवान श्री चक्रधर महाराज जी ने उनको यह प्रतीति दी कि वे एक जीवात्मा हैं तथा श्री भगवान जी परमेश्वर हैं। इस प्रतीति के कारण उनका विद्वान होने का, ज्ञान सूर्य होने का भ्रम दूर हुआ और वे श्री भगवान जी के अनुयायी बन गये परन्तु उनका बुद्धिवादी होना छूट न सका। अतः उन्होंने घर का त्याग तो कर दिया परन्तु अपनी स्वेच्छा से श्री गोविन्द प्रभु महाराज जी की सन्निधि में रहना उचित समझा।
वास्तव में उनको त्याग करने के बाद भगवान श्री चक्रधर महाराज जी, जिनसे उनको बोध हुआ, के पास आना चाहिए था तथा उनको वही रहना चाहिए था जहाँ श्री भगवान जी उनको आज्ञा देते सम्भवतः श्रीभगवान जी के उत्तर पंथ की ओर जाने के बाद उन्होंने इस दोष का अहसास किया तथा अपने इस दोष के लिये पश्चात्ताप भी किया। अतः बुद्धिवादी, तर्कवादी परमेश्वर का भक्त नहीं बन सकता।
बुद्धिवादी लोग भगवान श्री चक्रधर महाराज जी के ब्रह्मविद्या ज्ञान को पढ़कर अक्षर ज्ञानी बन सकते हैं परन्तु शब्द ज्ञानी नहीं। जो गुरू चरणों में बैठकर गुरु सेवा का कष्ट उठाकर गुरु से ब्रह्मविद्या ज्ञान प्राप्त करता है वही धर्माचरण कर सकता है तथा वही एक सच्चा परमेश्वर भक्त बन सकता है। भगवान श्री कृष्ण महाराज जी कहते हैं - श्रद्धावान लभते ज्ञान अर्थात् एक श्रद्धावान व्यक्ति को ही ज्ञान प्राप्त हो सकता है।
श्री भगवान जी के सम्पर्क में जानो उपाध्याय नामक एक ब्राह्मण भी आये जो कि वेदान्त सर्व खल्विद्य ब्रह्म अर्थात् सर्वत्र ब्रह्म ही ब्रह्म है इस सिद्धान्त को मानते थे। इसी भावना से जानोपाध्याय ने श्रीभगवान जी से प्रथम भेंट होने पर ऐसी ही भावना से उनकी पूजा तर्पण किया। उन्होंने श्री भगवान जी को परमेश्वर तथा अपने आपको जीवात्मा नहीं माना। उन्होंने तो अपने को तथा भगवान श्री चक्रधर महाराज जी को ब्रह्म ही माना। तो श्री भगवान जी ने उनको जीव-परमेश्वर भेद की प्रतीति उस समय दी जब उन्होंने गोपाल मंत्र के भेद बताये। अतः सब ब्रह्म ही ब्रह्म है - ऐसे सिद्धान्त को मानने वाले परमेश्वर भक्त नहीं बन सकते। जब जानो उपाध्याय ने इस धारणा का त्याग किया तथा परमेश्वर जीव भेद को जाना तभी वे परमेश्वर भक्त बन सके।
भगवान श्री चक्रधर महाराज जी भी कहते हैं कि कर्मजड़, भक्तिजड़ को धर्म का अधिकार नहीं है। भगवान श्री चक्रधर महाराज जी के पास आउसा नाम की जोगिन भी आयी जिसने श्री भगवान जी के प्रथम बार दर्शन करने पर ही यह मान लिया मानो उसे पारस मिल गया है। आउसा का स्त्री शरीर है परन्तु उसमें साहस तो पुरुषों जैसा था। अतः भगवान श्रीचक्रधर महाराज जी ने प्रसन्न होकर उसका नाम नायका रख दिया था। उसमें इस साहस था कि वह अकेली एक कुत्ते डांगरेश के साथ एक स्थान से दूसरे स्थान पर घूमती थी।
आउसा में स्वाभिमान तथा क्रोध था जिसके कारण वह अनेक बार भगवान श्री चक्रधर महाराज जी को छोड़कर चली गयी। परन्तु दूसरी ओर उसके मन में श्री भगवान जी के प्रति इतना प्रेम भाव था कि वह श्री भगवान जी की विरह में तड़पती थी तथा अपने प्राण त्यागने के लिये भी तैयार हो जाती थी।
श्री भगवान जी ने कृपा कर उसके क्रोध-अभिमान को दूर किया तथा उसके प्रेमभाव को स्वीकार किया। श्री भगवान जी ने उसके प्रेमभाव के बारे में कहा - आउसा का भाव इतना उत्तम है की उससे प्रेम प्राप्त होगा। तथा परिपूर्ण था कि आम्बा नामक स्थान पर उसने श्री भगवान जी से प्रार्थना की - प्रभु जी, यदि आप आज्ञा दें तो मैं अपना सिर आपको भेंट कर दूँ। इससे सिद्ध होता है कि उसमें श्रीभगवान जी के प्रति अत्यन्त प्रेम था। अतः क्रोध-अभिमान के दूर होने पर तथा परमेश्वर से प्रेम करने पर ही परमेश्वर भक्ति हो सकती है।
श्री भगवान जी की एक जिज्ञासु भक्तिन माहादाइसा भी थी जो पुराण सुनने में रूचि रखती थी तथा पुराणों की बातें सुनकर श्री भगवान जी से प्रश्न करती थी तो श्री भगवान जी उसको यथार्थ ज्ञान बतलाते थे। महादाइसा अपने गुरू रामदेव को भी मानती थी। कई बार उसने श्री भगवान जी की आज्ञा का उल्लंघन किया। वह वाराणसी तथा द्वारका अपने गुरू रामदेव के साथ चली गयी। अन्त में जब उसने गुरू भक्ति का त्याग किया तभी वह परमेश्वर की अनन्य भाव से शरण में आकर संन्यास ले सकी। अतः जो लोग गुरू भक्ति में फंसे है वे परमेश्वर भक्ति नहीं कर सकते। गुरू भक्ति करने वाले तो गुरू को ही ब्रह्मा, विष्णु, महादेव तथा साक्षात् पारब्रह्म मानकर उनकी पूजा करते हैं। इससे परमेश्वर भक्ति नहीं होती। अतः परमेश्वर भक्ति करने के लिये गुरू भक्ति का त्याग करना आवश्यक है।
श्री भगवान जी की सन्निधि में एक परम भक्तिन साधा आई जो जन्म जात ही परमेश्वर भक्त थी, उसका नाम येल्हो था परन्तु अत्यन्त भोली होने के कारण श्री भगवान जी ने प्रसन्नता से उसको साधा नाम दिया। प्रथम बार भगवान श्री चक्रधर महाराज जी के कनाशी में दर्शन हुए। श्री भगवान जी के दर्शन करते से ही वह अपने आपको भूल गयी। उसे यह भी ध्यान नहीं रहा कि उसके सिर पर सामान लदा है।
भगवान श्री चक्रधर महाराज जी उसे देखकर इतने प्रसन्न हुए कि वे स्वयं साधा के पास गये तथा अपना श्रीचरण का अँगूठा उसके मस्तक पर लगा दिया। दूसरे दिन उसने श्री भगवान जी की दवना पुष्प से पूजा की तथा दोनों हाथ जोड़ कर बोली - जी जी : संसारी जन्मलेयाचें फळ आजि झालेः भगवान श्रीचक्रधर महाराज तथा भगवान श्री गोविन्द प्रभु महाराज दोनों परमेश्वर अवतार उस पर इतने प्रसन्न थे कि उन्होंने साधा को प्रसन्न होकर क्या कुछ नहीं दिया।
श्री गोविन्द प्रभु महाराज जी ने तो अपनी दाढ़ ही प्रसन्नता रूप में उसको दे दी। वह श्री भगवान जी की प्रसन्नता, कृपा की पात्र थी। अतः इससे यह बात स्पष्ट होती है कि जिसमें भोलापन है, साधापन है तथा जिसमें आत्मसमर्पण की भावना है वही परमेश्वर की कृपा का पात्र बन सकता है तथा परमेश्वर का एक सच्चा भक्त बन सकता है।
यद्यपि महानुभाव जयकृष्णी धर्म के 800 वर्ष के एक महान इतिहास में अनेक संस्कृत के विद्वान, महान सन्त हुए, श्रेष्ठ कवि हुए, दार्शनिक हुए, कथावाचक हुए, तपस्वी वैराग्यपूर्ण महात्मा हुए परन्तु वे सभी परमेश्वर भक्त तभी बन सके जब उनमें साधा जैसा सीधापन, भोलापन आया तथा आत्मसमर्पण की भावना आयी। भगवान श्री चक्रधर महाराज जी ने साधा को प्रसन्न होकर अभय दान दिया था और कहा था। अतः यदि एक सच्चे परमेश्वर भक्त बनना चाहें तो साधा जैसा भोलापन तथा आत्मसमर्पण की भावना को अपनी अन्तरात्मा में लाने का प्रयत्न करें।