पंजाबी कुलभूषण महन्त श्री मयंकराज बाबा पंजाबी महानुभाव -
महन्त श्रीमयंक राज बाबा पंजाबी महानुभाव का जन्म रजोईया जिला हरिपुर हजारा में हुआ था। उनके माता-पिता प्रारम्भ से ही जयकृष्णी धर्म के अनुयायी थे। अतः जन्म से ही उनको जयकृष्णी धर्म के संस्कार प्राप्त हुए। हिन्दुस्तान, पाकिस्तान विभाजन के बाद वे इन्दौर में अपने परिवार के साथ रहते थे। वे फलों का थोक व्यापार करते थे।
उस समय उनका नाम भक्त हरीचन्द साहनी था। वे मंडी में फलों का व्यापार करते थे। इन्दौर में रहते हुए भ० हरिचन्द साहनी जी की टांग में सैप्टिक हो गया था। उनको हस्पताल में भर्ती कराया गया था। उनकी टांग का अप्रैशन हुआ था। वे बहुत दिन तक अस्पताल में इलाज कराने हेतु रहे थे परन्तु उनकी टांग में ठीक न हो सकी, टांग से पस (पीक) निकलती । बहुत कष्ट होता था। मैंने उनको बहुत कष्ट उठाते हुए देखा था। वे अस्पताल से घर तो आ गये थे परन्तु उनकी टांग ठीक न हुई। डाक्टरों ने उन्हें कहा था कि उनकी टांग काटनी पड़ेगी। यदि टांग न काटी गई तो उनकी मृत्यु भी हो सकती है।
भ० हरिचन्द साहनी जी ने यह संकल्प किया था कि वे संन्यास लेकर मर जायेंगे परन्तु अपनी टांग कदापि नहीं कटवायेंगे। भ० हरिचन्द साहनी जी का बाबा श्री अर्जुन राज जी के साथ अत्यन्त स्नेह सम्बन्ध था। ऐसे शारीरिक कष्ट में हरिचन्द साहनी जी हमारे गुरुवर्य बाबा अर्जुन राज जी के साथ महाराष्ट्र तीर्थ यात्रा पर गये।
कुछ दिनों बाद श्री श्री अर्जुन राज जी तो वापिस आ गये परन्तु भ० श्री हरिचन्द साहनी जी वापिस न आये । तो परिवार वालों ने श्री गुरुवर्य जी से पूछा - ‘हमारे पिता जी कहाँ रह गये ?’ तो श्री अर्जुन राज जी ने उन्हें स्पष्ट बता दिया, ‘आपके पिता जी ने स्वेच्छा से संन्यास ले लिया है तथा इस समय वे महन्त श्री नागराज में बाबा जी की सन्निधि में महानुभाव आश्रम श्रीरामपुर में हैं।’ यह वार्त्ता सुनकर उनके परिवार के सभी सदस्य चिन्तित होकर रोने लगे।
उनके ज्येष्ठ सुपुत्र भ० श्री वजीर चन्द साहनी जी श्री अर्जुन राज बाबा जी के साथ अपने पिताश्री को वापिस लाने के लिये श्रीरामपुर गये। उन्होंने अपने पिताश्री से बहुत आग्रह किया कि आपका स्वास्थ्य ठीक नहीं है। टांग में कष्ट भी है आपका इलाज भी होना है अतः आप वापिस अपने घर इन्दौर चले। परन्तु भ० श्री हरिचन्द साहनी जी अब महात्मा श्री हरिराज जी बन गये थे। उन्होंने दृढ़ संकल्प किया था कि जिस घर का त्याग कर वे गये थे, वे वापिस वहाँ कभी नहीं लौटेंगे।
अतः वजीर चन्द जी साहनी श्री अर्जुन राज बाबा जी के साथ वापिस लौट आये तथा भक्त जी ने अपने पिता जी का व्यापार भली-भांति सम्भाल लिया।
म० हरिराज जी ने संन्यास लेकर ब्रह्मविद्या ज्ञान को अभ्यास करने का घोर परिश्रम तथा प्रयत्न करना प्रारंभ कर दिया था। म० हरिराज पंजाबी जी को न तो मराठी भाषा आती थी तथा न ही हिन्दी। उन्होंने प्रारंभ से ही उर्दू पढ़ रखी थी तथा वे सब व्यापार भी उर्दू भाषा में ही करते थे। उन्होंने कैवल्यवासी महन्त श्री नागराज बाबा जी से प्रार्थना की ‘बाबा जी, मुझे उर्दू में ब्रह्मविद्या शास्त्र लिखने की अनुमति प्रदान करें, क्योंकि अब मेरी बच्चों जैसी स्मृति याददाश्त भी नहीं है अतः मैं उर्दू भाषा में ही ब्रह्मविद्या ज्ञान लिखकर अभ्यास करना चाहता हूँ।’
कैवल्यवासी बाबा जी ने उनको उर्दू में ज्ञान लिखकर याद करने की अनुमति दे दी। उस समय श्री बाबा जी ज्ञान तो सुनाते थे परन्तु किसी को उस ज्ञान को लिखने की अनुमति नहीं देते थे। वे चाहते थे कि जैसे ब्रह्मविद्या ज्ञान उनको कण्ठस्थ है ऐसा सभी अभ्यासकों को इस प्रकार बिना लिखे शास्त्र को याद हैं करना चाहिए। इसके लिए उन्हें कष्ट करने चाहिए। म० हरिराज जी रुखा सुखा परमार्ग का भोजन खाकर शास्त्र अभ्यास में लग गये।
उस समय उस आश्रम में एक समय ही भोजन बनाया जाता था तथा उसे ही दो समय खाकर समय व्यतीत करना पड़ता था। उस समय खीर, हलवा, पकवान की पंगत ही नहीं होती थी। कभी एक-दो महिने में एक-दो पंगत हो जाय तो बड़ी भारी बात मानी जाती थी।
म० हरिराज जी प्रारंभ से ही वैराग्यपूर्ण थे। उन्होंने अपने शरीर की कभी चिन्ता ही नहीं की। उनकी भगवान श्री चक्रधर महाराज जी की भक्ति में निष्ठा, उनका प्रातः आर्त्तपूर्वक स्मरण करने के नियम ने तथा उनका ब्रह्मविद्या ज्ञान के अभ्यास ने उन्हें प्रभुजी की कृपा का पात्र बना दिया था। सर्वप्रथम देखते ही देखते उनके टांग का कष्ट दूर हो गया। किसी अदृष्ट शक्ति ने उनके इस असाध्य रोग को भी दूर कर दिया। उनकी टांग बिना किसी इलाज कराये ही ठीक हो गई थी और वे प्रतिदिन प्रातः 3, 4 मील दूर तेज चलकर जाते थे तथा पेड़ के नीचे बैठकर ब्रह्मविद्या ज्ञान की पोथी का अभ्यास करते थे। ठीक ही कहा है -
मूकं करोति वाचालं पंगु लंध्यते गिरीम् ।।
यत्कृपा तमहं वन्दे परमानन्द माधवम् ।।
प्रभुजी की कृपा से एक गूंगा भी बोलने लगता है तथा एक लंगड़ा भी पहाड़ चढ़कर पार कर जाता है। ऐसे परमानन्द माधव भगवान श्री कृष्ण को मैं प्रणाम करता हूं।
यह घटना काफी आश्चर्यजनक हैं कि जिस टांग को बड़े-2 डाक्टर ठीक न कर सके उसे प्रभु की कृपा ने देखते ही देखते ठीक कर दिया था। सभी आश्रमवासी इस घटना को देखकर आश्चर्यचकित थे तथा इसे प्रभु जी की लीला ही मानते थे।
म० हरिराज जी स्वास्थ्य लाभ प्राप्त कर ब्रह्मविद्या ज्ञानाभ्यास में दिन-रात लग गये। सदैव वे ज्ञान की ही बातें करते थे। धर्म तथा ज्ञान के अतिरिक्त वे एक शब्द भी व्यर्थ नहीं बोलते थे। जब उनके सम्बन्धी उन्हें मिलने आश्रम में आते तो वे पूछते थे—‘आप तथा आपका परिवार कैसा है? क्या आप अपना पूजा-पाठ नियम से करते हैं ?’ इसके बाद वे उनको ब्रह्मविद्या ज्ञान की बातें सुनाना शुरू कर देते थे। उन्हे किसीने अन्य वार्ता करते हुए कभी भी नहीं देखा। ज्ञान ही उनका जीवन था। वे अपने परिवार वालों को भी धर्म के मार्ग पर चलने की सलाह देते । शायद इसी कारण उनके परिवार के अनेक लोग उनके ऐसे पवित्र स्वच्छ तथा ज्ञानमय जीवन को देखकर इस महानुभाव जयकृष्णी धर्म से जुड़े तथा अनेकों ने संन्यास दीक्षा लेकर धर्माचरण किया तथा आज भी कर रहे
म० हरिराज जी को आश्रम में एक सेवा सौंपी गई थी, वह थी बाजार से मार्ग के भोजन के लिए सामान खरीद कर लाना। उनकी व्यापारिक बुद्धि वहां बहुत काम आती थी। भाव ताव करने में वे बड़े कुशल थे तथा सदैव प्रत्येक वस्तु कम से कम दाम में खरीद कर लाते थे। सामान खरीद कर यदि वे एक छोटी सामान की गठरी सांघाती के सिर पर लाद देते थे तो बड़ी गांठ स्वयं अपने सिर पर लादकर आश्रम में ले आते थे। उन्हें कभी अभिमान छू न सका। सेवा करने में वे सदा तत्पर रहते थे। अतः जहां उनकी ज्ञान प्राप्ति की निष्ठा थी वहां उनमें सेवा का भी श्रेष्ठ भाव था। सेवा करने में वे कभी भी पीछे नहीं रहते थे ।
उनमें आचार की योग्यता तथा विचार की दृढ़ता थी। ऐसी उनकी पात्रता को देखकर महन्त श्री नागराज बाबा जी ने उन्हें उनकी कुल की गद्दी मयंकराज बाबा पंजाबी पर प्रतिष्ठित होने को कहा। उन्होंने कदापि कोई गद्दी अथवा मान प्रतिष्ठा प्राप्त करने की चाह ही नहीं की थी।
उनके धार्मिक परिवार के लोगों के आग्रह के कारण तथा पूजनीय श्री नागराज बाबा जी के आदेश को वे ठुकरा न सके तथा उन्हें उनके गुरु के नाम को उज्जवल बनाने के लिए श्री मयंकराज की महन्ती प्रतिष्ठा स्वीकार करनी पड़ी और अब उनका नाम पं० म० श्री मयंकराज बाबा पंजाबी हो गया था। उन्होंने केवल यह महन्ती ही नहीं ली उन्होंने मयंकराज कुल के सभी शिष्य परिवार को भी संभाला तथा उनका यथा योग्य धार्मिक मार्ग दर्शन किया।
उन्होंने अनेक लोगों को अन्य धर्म से हटा कर इस परमेश्वर धर्म में लगाया। वे एक लम्बी आयु जीवित रहकर धर्माचरण करते रहे तथा अन्त में प्रभु का स्मरण करते हुए देवदर्शन को चले गए।
महन्त श्री मयंकराज बाबा पंजाबी कुलभूषण वास्तव में एक महान संत थे। वे एक आदर्श महात्मा थे। उन्होंने अपना जीवन परमेश्वर को समर्पित किया। वे एक ईश्वरीय जीव थे जिन्होंने ईश्वर प्राप्ति को ही जीवन का ध्येय बनाया। ऐसे सन्त लोग तो इस धरती की शान होते हैं। ऐसे सन्तों के कारण ही यह संसार का कार्य चल रहा । धन्य है ऐसे सन्तों का जीवन।
ऐसे कुलभूषण महन्त श्री मयंकराज बाबा जी को सादर दण्डवत् प्रणाम
Bahut hi sundar Dandvat Pranam ji
ReplyDeleteदंडवत प्रणाम
Deleteदंडवत प्रणाम
DeleteProud of my Guruji🙏
ReplyDeleteदंडवत प्रणाम
DeleteProud to be Mahanubhav.
ReplyDeleteDandvat pranamjee.
Jay Shree Chakradhar Swamiji.
दंडवत प्रणाम
DeleteHis simplicity depth of knowledge and devotion were legendary
ReplyDeleteSadar dandwat pranam.
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