भाग 004 जिज्ञासा पूर्ति महानुभाव पंथिय ज्ञान सरिता mahanubhav panth dnyansarita

भाग 004 जिज्ञासा पूर्ति महानुभाव पंथिय ज्ञान सरिता mahanubhav panth dnyansarita

 भाग 004 जिज्ञासा पूर्ति 

महानुभाव पंथिय ज्ञान सरिता 

mahanubhav panth dnyansarita 



जिज्ञासा :- एक दुकानदार भाई हैं, उन्होने पुछा- घर का प्रमुख होने से सारे काम देखने पड़ते हैं। रात को पूजा सेवना करते हुए 10 बज जाते है। सुबह जल्दी नींद नहीं खुलने के कारण स्मरण पारायण आरती पूजा समय पर नहीं होती। स्वामी ने तो कहा है "वंद्य दिन नहीं जाना चाहिए" तो क्या करना चाहिए?

पूर्ति :- स्वामी सर्वज्ञ हैं अत: उन्होंने जो बतलाया है आत्म कल्याण के लिए उपयुक्त है। जिस तरह दिन में दस काम करने हो यदि-2 काम और निकल आए तो मनुष्य थोड़ा-2 समय आगे पीछे करके सभी काम कर ही लेता है। उसी तरह अपनी आत्मा के कल्याण के लिए दुनियावी कार्यों से थोड़ा-2 समय निकाल कर देव धर्म में खर्च करना चाहिए। जो व्यक्ति मन से, दिल से धर्म कार्य करता है तो परमात्मा की कृपा से उसके सभी कार्य सम्पन्न हो जाते हैं।


जिज्ञासा :- मथुरा गोकुल, वृन्दावन, ब्रज भूमि, गोवर्धन पर्वत पर भक्त जनता तीर्थ यात्रा के लिए जाती है कुछ भक्त लोग कहते हैं भगवान श्री कृष्ण चरणांकित महा स्थान की संख्या मात्र दो हो हैं सुनकर आश्चर्य होता है। इतने अधिक दिनों तक भगवान इन स्थानों पर रहे ऐसा विश्वास होता है कि स्थानों की संख्या अधिक होगी ? 

पूर्ति :- भगवान श्री कृष्ण चन्द्र जी ने बाल्यकाल की संपूर्ण लीला मथुरा, वृन्दावन, गोकुल, नन्दग्राम व गोवर्धन पर की है। चरणांकित भूमि की संख्या तो बहुत अधिक है। परन्तु भगवान कें किसी भक्त ने वे स्थान सम्भाल के नहीं रखे । इसलिए उन स्थानों की निश्चित जगह कायम नहीं रही। जब तक स्थानों की जगह निश्चित न हो नमस्कार नहीं किया जाता। असलीयत नहीं रही। एक गोकुल पुराना है जहां नन्द बाबा रहते थे। जहां पूतना को मारा था। अब नया गोकुल दूसरी जगह बसा है। पण्डे लोगों ने अपना पेट भरने के लिए पूतना वध आदि नकली जगह बना रखी है। अनन्य भक्ति के सिद्धांत के अनुसार अन्य जगह पर नमस्कार करना गलत है। 

कंस का दाह संस्कार करने के लिए यमुनाजी के किनारे ले गए थे। विश्राम घाट पर भगवान खड़े रहे थे उस जगह पर परम्परा से पूजा-अर्चा करते आ रहे हैं वह एक जगह निश्चित है तथा गोवर्धन पर्वत को भगवान ने उठाया था वह सारा वन्दनीय है। शेष चरणांकित जगह तो है परन्तु उस जगह पर स्थान निर्देश नहीं होने से वन्दन नहीं किया जाता ।सिर्फ भगवान की लीलाओं को याद करके कहा जाता है कि हे प्रभो ! अपने जिस-2 जगह पर चरण स्पर्श किया लीलाएं की उन-2 चरणांकित भूमि को मेरा साटांग दण्डवत प्रणाम ।


जिज्ञासा :- रात को अगर नींद न आए तो क्या सारी रात भगवान का नाम लेना चाहिए या सुबह ही उठ कर भगवान का पांचवा नाम लेना चाहिए ?

पूर्ति :- गीता में तथा ब्रह्मविद्या में भगवान ने कहा है कि सदा सर्वदा नाम स्मरण करना चाहिए, अतः नींद के समय को छोड़कर चलते-फिरते उठते-बैठते खाते-पीते, सोते-जागते हुए हमेशा नाम स्मरण करते रहना चाहिए। सुबह दोपहर और शाम को पांचों नामों का स्मरण करें शेष समय में पांचवें नाम का स्मरण करना चाहिए ।


जिज्ञासा :- पूजा उठाते समय कौन से नाम का उच्चारण करना चाहिए ?

पूर्ति :- पूजा उठाते समय प्रसाद सेवा पढ़ तथा सुबह का पूजा अवसर पढ़ने के बाद पाचवे नाम का उच्चारण करना चाहिए 


जिज्ञासा :- कहीं पर भी धर्म स्थान में पैसे भेजने हो तो इकट्टो नहीं निकलते। अगर पूजा से धार्मिक स्थान पर पैसे भेज दें तो उस समय क्या कह कर पैसे भेजें?

पूर्ति :- कहीं पर भी पूजा के लिए पैसे भेजने हो तो लिख देना चाहिए कि ये पूजा के चढ़ हुए पैसे हैं। जहां उचित समझें खर्च करे । पूजा, पैसे अन्नदान में खर्च नहीं किये जाते । 

जिज्ञासा :- राम फल, सीता फल, आम, जामन, बैर आदि फल खाकर उनके बीज फोड़ डालते या जला देते हैं ऐसा क्यों ? इन बीजों में जीव होते हैं जलाने से हिंसा, हिंसा से पाप और पाप के बदले नरक नहीं होते क्या ?

पूर्ति :- धर्म चाहे कोई भी हो, अहिंसा का उपदेश देता है जैन धर्म अहिंसावादी कहलाता है। फिर भी जितना सूक्ष्म विचार अहिंसा के विषय में जय कृष्णी साम्प्रदाय में किया जाता है उतना दूसरे किसी भी धर्म में नहीं किया जाता । शरीर से किसी की हत्या करना तो पाप है ही। वाचा से किसी को कड़वा बोलना भी पाप है मन में किसी के विषय में बुरा चिन्तन करना यह भी पाप है। हमारे निमित्त से दूसरा कोई हिंसा न करे इस दृष्टि से फलों के बीज नष्ट कर देने की परम्परा है।

अहिंसा की दृष्टि से हमारे साधु-सन्त कितना सूक्ष्म विचार करते हैं कुछ उदाहरण दे रहा हूं । रात को किसी गृहस्थ वासनिक के घर रुकना दे पड़े तो सुबह उठकर दरवाजा जोर से नहीं खोलते, क्योंकि गृहस्थ उठकर झाडू वेगा, या आग जलाएगा स्नान करेगा जिससे हिंसा होगी । हमारे निमित्त से हिंसा न हो अतः जोर से खंग भी नहीं करते। रास्ते में चलते वक्त गिन-2 कर कदम रखते हैं क्योंकि पैरों के नीचे दब कर किसी प्राणी की हिंसा न हो। रास्ते चलते हुए कोई हिंसक प्राणी दिखाई दे तो रास्ता छोड़ देते हैं क्योंकि हमारे निमित से वह पक्षी उड़ कर या पश दूसरी जगह जाकर किसी प्राणी की हत्या करेगा। तो उसका निमित्त पाप हमें लगेंगा । भिक्षा के लिए गांव में जाने पर यदि बिस घर में क्रोधी कुत्ता हो उस घर पर भिक्षा के लिए नहीं जाते कुता भोकेगा, उसकी आत्मा को कष्ट होगा अतः हिंसा होगी। यदि कोई माता बालक को दूध पिला रही हो उस घर पर भिक्षा सवाल नहीं करते। क्योंकि दूध पीते हुए बालक को छोड़कर भिक्षा देने के लिए उठना पड़ेगा। बालक की आत्मा को कष्ट होगा। इत्यादि अनेक कर्म ऐसे हैं कि स्वयं न करते हुए भी निमित्त दोष लगता है।

फलों की गुठलियां फोड़ देने या जला देने के पीछे यही उद्देश्य होता है कि वह गुठी न उगे। गुठली नष्ट न करने से वह उग कर पेड़ बनेगा जिन्दगी भर उस पेड़ को लोग सताते रहेगे । डालियां तोड़ेंगे, फल गिराएंगे या कोई मूल के सहित ही पेड़ को तोड़ डालेगा उस हिंसा के पाप से बचने के लिए ही किसी भी फल के बोज नष्ट कर देने की प्रथा है। किसी भी बीज में जीव नहीं होते। मिट्टी पानी और हवा का योग आने पर देवताए उस बीज में जीव का सम्पादकत्व करती है।

जड़ या चेतन (अण्डज, स्वदेज, जारज और उ दिज) मनष्य, पशु पक्षी, जलचर, थलचर, नभचर आदि प्राणियों के बीज में शरीर रचना की क्षमता होती है। चेतन प्राणियों में नर और मादा के मिलाह से शरीर की रचना होती है और देवताओं के द्वारा उन शरीरों में आत्मा को डाला जाता है। वैसे ही जड़ वनस्पत्तियां या पेड़ के बीज को हवा पानी और मिट्टी का योग आने पर अंकुर निकलता है और जीवों का सम्पादकत्व देवताकों के द्वारा किया जाता है।

बीज में जीव होते हैं ऐसा भी मान लिया जाए, फिर भी बीज के नष्ट करने से हिंसा नहीं होती पेड़ पौधे में अंकुर निकलने पर हिंसा मानी गई है और चेतन में रक्त का संचार होने पर हिंसा बतलाई है। मनुष्य शरीर में आत्मा का सम्पादकत्व 5 या 7 दिन में होता है. ऐसा शास्त्रों में कहा गया है। वैसे ही दूसरे प्राणियों का सम्पादकत्व बाद में ही होना चाहिए। इस विषय में विशेष चर्चा ज्ञानियों से करें ।


जिज्ञासा :- कोरी भूमि किसे कहते हैं ?

पूर्ति :- परम्परा है कि जिस भूमि पर किसी का संस्कार नहीं किया गया हो । ज्ञाताओं का मत हैं की, जिस भूमि में जड़त्व के जीवों का सम्पादकत्व नहीं किया हो उसे कोरी भूमि कहते हैं ।


जिज्ञासा :- युगांतर के समय कोरी भूमि का संहार होता है या नहीं ?

पूर्ति :- युगांतर के संहार के समय सम्पूर्ण कर्म भूमि नष्ट कर दी जाती है। कहावत है कि माहुरगढ़ जैसी कोरी भूमि नष्ट नहीं होती। परन्तु यह बात मेरी समझ से बाहर की है। कोरी भूमि को छोड़ा जाता है किस लिए? यदि कोई कहता है कि उस स्थान पर चिरंजीव अवतार रहते हैं या सिद्ध-साधक जिनकी उम्र लम्बी होती है। या चिरंजीव के समीप अपरोक्ष, सामान्य आदि ज्ञानी रहते हैं। कलियुग का वर्णन आता है कि 12 वर्ष तक 12 ही सूर्य अपनी सम्पूर्ण शक्ति के साथ तपते हैं जिससे पत्थर कंकर पक जाते हैं, भूमि आग के समान लाल हो जाती है, फिर 12 वर्ष तक अति दृष्टि होती है पत्थरों का चूने के समान पूरा हो जाता है जिधर किधर पानी ही पानी दिखाई देता है, उसके बाद बारह वर्ष आँधी तूफान चलता है जिससे भूमि सम हो जाती है। इस तरह 36 वर्ष व्यतीत हो जाने पर फिर सतयुग की स्थापना होती है। उपरोक्त परिस्थिति में भूमि में कौन रह सकता हैं ? यही बात उचित लगती है कि सिद्ध साधक या चिरंजीव अवतार संहार के समय में भोग भूमि में चले जाते हैं।


जिज्ञासा  :- महा संहार होने का कारण क्या है? 

पूर्ति :- संसार में जो भी वस्तु निर्माण होती है उसकी एक मर्यादा निश्चित होती है। मर्यादा समाप्त होने पर संसार की सभी वस्तुएं नष्ट हो जाती है। वैसे ही सृष्टि की रचना जिस उद्देश्य से परमेश्वर करवाते हैं। उनका उद्देश्य पूर्ण हो जाने पर परमेश्वर की प्रवृत्ति में से माया द्वारा संहार किया जाता । प्रत्ये सृष्टि में मानव देह में आते पर प्रत्येक जीव को परमेश्वर के द्वारा ज्ञान दान दिया जाता है। ज्ञान दान के बाद जो अनुसरण लेते हैं भगवान की आज्ञ का पालन करते हैं उनका उद्धार हो जाता है। वे परमानन्द को प्राप्त कर लेते हैं। और जो ब्रह्म विद्या ज्ञान के अनुसार आचरण नहीं करते अच्छे-बुरे कर्म चक्र में फंस कर नित्य नरक आदि दुःख भोगते हैं। जीवों में खास कर नरक भोग रहे जीवों को दुःखी देख कर दयालु परमेश्वर संहार करवा कर उनके दुःख नष्ट करवाते हैं।


जिज्ञासा  :- ज्यारूपे सागरात्माजा समजली इस पद का अर्थ स्पष्ट करें । 

पूर्ति :- पुराणों के कथनानुसार समुद्र मंथन करने पर १४ रत्न निकले थे । उन १४ रत्नो में लक्ष्मी भी है। लक्ष्मी विष्णु की पत्नी और महा लक्ष्मी शेष नारायण की पक्षी उत्पन्न हुई अतः लक्ष्मी समुद्र की कन्या कहलाती है। ब्राह्मण के बालकों को लेने के लिए अर्जुन के सहित भगवान शिराब्धी में गए हुए थे। उनके रुप सौंदर्य को देवकर लक्ष्मी को "वेध” हो गया वह शेष नारायण को छोड़कर भगवान के साथ चल पड़ी थी उसे भगवान ने साथ आने से रोका तो अर्जुन ने कहा, महाराज ! यदि लक्ष्मी अपनी इच्छा से आ रही है तो अपने दो। भगत ने कहा ऐसा नियम नहीं है कि जिसके घर जाए उसकी औरत ही साथ में ले जाए। जिस रूप और सुन्दरता को देव कर लक्ष्मी को वेध हो गया वही रुप और सुन्दरता मेरे ध्यान में रहें ऐसी कवि ने भगवान से प्रार्थना की है।

जिज्ञासा पूर्ति भाग 03👇

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जिज्ञासा पूर्ति भाग 01👇

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जिज्ञासा पूर्ति भाग 02 👇

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जिज्ञासा पूर्ति भाग 04👇

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