भाग ००3 जिज्ञासा पूर्ति महानुभाव पंथिय ज्ञानसरिता
जिज्ञासा :- म. भाण्डारेकार जी ने पाठशाला गिर रही है कह कर विद्यार्थियों
को बाहर निकालने पर स्वामी ने उन पर क्रोध किया था। यह तो देवताओं का कोप होता है।
उन जीवों ने बुरे कर्म किए हुए थे उसके बदले में देवताएं उन्हें
कष्ट दे रही थी। आपने बीच में पड़कर हस्तक्षेप क्यों किया? वे अपने कर्मों के अनुसार बचते या मर जाते। उनके कर्म भोग में रुकावट डालकर आपने देवताओं का क्षोभ जोड़ लिया।
जीव अपने-२ कर्मों का फल भोगता है। अपने परमार्गी है उनके लिए
यदि साहस किया होता तो उचित भी था? इस बारे में अपने विचार प्रकट करें ।
पूर्ति :- प्रत्येक व्यक्ति को बुद्धि भिन्न-२ होती है। जो व्यक्ति
जिस विधि का अनुष्ठान करता है उसी को वह प्रशंसा करता है। एक व्यक्ति ज्ञान की प्रशंसा
करता है। भक्ति और वैराग्य का महत्त्व नहीं
मानता। दूसरा व्यक्ति भक्ति की प्रतिष्ठा करता है। उसकी दृष्टि
में ज्ञान और वैराग्य निरर्थक होता है। तीसरा व्यक्ति वैराग्य को हो श्रेष्ठ मानता है। ज्ञान और भक्ति का मूल्य नहीं जानता।
यस्य नाहंकृतो भावो बुद्धिर्यस्य न लिप्यते ।
हत्वापि स इमांल्लोकान्न हन्ति न निबध्यते ॥ गी,
अ. १७/१८
अर्थ :- जिस मनुष्य
के अन्तःकरण में यह भाव नहीं आता कि मैं कर रहा हूं तथा बुद्धि में भी भावना नहीं आती
कि मैं कर रहा हूं ऐसे पुरुष के हाथों से सारे संसार का नाश हो जाय फिर भी न तो उसने
किसी को मारा है और न वह कर्म बन्धन से लिम्पित होता है।
हमारे साधन दाता कि
विरुद्ध असतिपरी है। एक कार्य करना चाहिए परन्तु देश काल और परिस्थिति
के अनुसार उसे छोड़ना पड़ता है और एक निषेध होते हुए भी देश काल और परिस्थिति के अनुसार
करना जरुरी हो जाता है।
उचित कार्य वही होता
है जिस का नतीजा ठीक निकले। जिस कार्य को करने से पंथ को प्रतिष्ठा बड़े वह तो प्रेमदायक
कर्त्तव्य होता है। परमेश्वर की प्रसन्नता होती है। देवता क्षोभ का तो सवाल ही पैदा
नहीं होता।
दुसरो की मदत करने से लोगों के मन में धर्म के प्रति अनुकूलता उत्पन्न होती हैं। या फिर हो सकता है उन्हीं में से भविष्य में पंथ के अनुयायी बने । शास्त्र आज्ञा है कि पंथ की प्रतिष्ठा के लिए उपाधी का स्वीकार
किया जा सकता है। और लोगोकी मदत कर सकते हैं। लेकीन तभी मदत कर सकते है जब पंथ
की, या धर्म की निंदा होगी या फिर लोग भगवान पर सवाल उठायेंगे। ‘ये कैसे लोग है? दुसरो
की मदत नही करते?’’ ऐसे समय अवश्य मदत करनी चाहिए । इससे पंथ की प्रतिष्ठा होगी ।
कहावत प्रसिद्ध है :- पंचालेश्वर में महन्त दर्यापुर कर रहते थे । दुष्काल पड़ने से छोटे २ आश्रम के
साधु भी उनके आश्रम में पहुंच गए थे। एक हजार साधुओं की रोज पंगते होती थी। नए-२ पदार्थ रोज बनते थे। उस समय नागा साधु ५००
की संख्या में राक्षस भवन पहुंचे। ग्राम
वासियों को खाने के प्रबन्ध के लिए कहा। उन्होंने कह दिया कि
पंचालेश्वर में बड़े महन्त रहते हैं वहां हजार साधुओं का लंगर रोज चल रहा है।
वे नागा साधु पंचालेश्वर आत्मतीर्थ के पास गए। एक सेवक को बाबा जी के पास खाने के
प्रबन्ध के लिए भेजा। बाबा जी ने कह दिया कि स्नान करक आ जाएं तब तक खाना तैयार हो
जाएगा ।
अपने साधुओं के लिए
दुवारा खाना पकवाया। पहला हजार साधुओं के लिए पक्का हुआ हलवा
(शीरा) पूरी ५०० साधु में खतम हो गया। उनका नियम होता है कि जिन
लोगों ने भोजन दिया होता है, गांजे का प्रबन्ध
भी उसी को करना पड़ता है अतः एक साधु ने आकर बाबा जी से गांजे
के लिए पैसे मांगे।
बाबा जी ने गांजे के
लिये पैसे भी दे दिए। गाँजे के नशे में
वे नग्न साधू रात भर भगवान का और बाबा जी का जयकारा बोलते रहे। दूसरे दिन जाते समय
सभी ने आकर बाबा जी को दण्डवत प्रणाम किया। उनके महन्त के पास किलो या सव्वा किलो सोना था। वह बाबा जी के आसन पर रख कर
चले गए ।
जिस-२ गांव को वे साधु गए बाबा जी की प्रशंसा तथा महानुभाव पंथ की प्रशंसा करते
गए जिससे गांव-२ में अनेक नए नामधारक उपदेशी बने । अन्य भजन के डर से यदि उन्हें खाना नहीं खिलाते तो गाँव-२ वे निन्दा करते जिससे पंथ की प्रतिष्ठां व मान सम्मान को बड़ी भारी ठेस पहुंचती।
फिर पोथी के समय एक
महात्मा ने बाबाजी को प्रश्न किया कि यह अन्यभजन हुआ? बाबाजी ने उत्तर दिया तुम्हारी नजर दूर नहीं जा रही
है सिर्फ अपने पैरों तक हो तुम्हें दिखाई देता है। भगवान ने कहा है संग्रह का
पालन करना चाहिए । हमनें वहीं किया ।
जिज्ञासा :- महाभारत धारावाहिक देखा भी है और पढ़ा है कि पहले मंत्र के द्वारा सन्तान उत्पन्न
होती थी तो? विवाह क्यों किया
जाता था?
सविस्तर बताने का कष्ट करें !
पूर्ति
:-
सृष्टी रचयिता परमेश्वर के संविधान के अनुसार
मनुष्य पशू और पक्षी की उत्पत्ति नर और मादा के संयोग
से ही होनी चाहिए। इसलिए विवाह व्यवस्था है। और मंत्रो का प्रयोग किसी कारणवश
ही किया जाता था। कोई भी ऐसे नहीं कर सकता था।
परमेश्वर स्वयं इसी
सृष्टी नियम के अनुसार अवतार धारण करते है। गर्भ पतित और दवडने
इस तरह तीन प्रकार से ही परमेश्वर अवतार लेते हैं। अपनी ओर से किसी भी जीव को मनुष्य
देह देते है तो गर्भ द्वारा ही उनका जन्म होता है। अकस्मात रचकर परमेश्वर अवतार नहीं
लेते। परमेश्वर की प्रत्येक किया में जीवों का भला होता है। जिस माता-पिता के यहां
परमेश्वर अवतार लेते हैं उस माता-पिता को देवता फल देते हैं रिश्तेदारों को भी सेवा
का फल देते हैं।
वैसे ही जीवों के पूर्व
जन्मों के देने लेने के सम्बन्ध होते हैं इस लिए उसी घर में उसी माता पिता के घर जन्म
होता है। देवताओं के द्वारा
स्वयं अकस्मात शरीर रचना कर लेना या कार्य समाप्त हो जाने पर शरीर त्याग कर देना यह
उनकी अपवाद रूप व्यवस्था है। इसी तरह देवतानों के मंत्रों से सन्तान उत्पत्ति की भी
व्यवस्था है। मन्त्र साधना बड़ी कठिन है। सभी व्यक्ति मन्त्र सिद्ध भी नहीं कर सकते।
इसीलिए भगवान ने सन्तान उत्पत्ति का सरल उपाय बनाया है। जीवों के कर्मों के अनुसार
किस
माता-पिता के यहां? किस समय? गरीब अवस्था में
या अभीर अवस्था में जीवन व्यतीत करना चाहिए उसके अनुसार जन्म होता है। मोह-माया और
अज्ञान के कारण सन्तान उत्पत्ति हो रही है। यदि मन्त्रों के द्वारा सन्तान उत्पत्ति
की व्यवस्था होती तो शायद ही इतनी जनता ससार में जन्म लेती। क्योंकि सभी लोग मन्त्र
सिद्ध हो। नहीं कर पाते । मन्त्र सिद्धि नहीं होने पर सन्तान उत्पत्ति भी नहीं। होती
।
ज्योतिष और सामुद्रिक
शास्त्र के अनुसार भी कर्मों के अनुसार सुख दुःख, मान अपमान, लाभ हानि के योग
आते हैं उन्हें कोई टाल नहीं सकता।
20 वर्ष पूर्व की बात है। एक भक्तानी ने मेरे
सामने हाथ करते हुए कहा कि मेरे भविष्य के बारे में कुछ-२ बतलाएं
?
मैने कहा कि मैं तो हाथ देखना नहीं जानता। उन्होंने कहा कुछ
भी बतलाएं। मैंने कहा एक लड़का तेरे भाग्य में और है। उसने कहा अब तो सन्तान का सवाल
ही नहीं उठता क्योंकि मेरा बड़ा ऑपरेशन हो चुका
है। यह सुनकर मैं चुप हो गया 8 वर्ष के बाद फिर उसके घर लड़के का जन्म हुआ। कर्मगति बड़ी विचित्र है । मनुष्य के हाथों में इसका सूत्र नहीं है। मनुष्य के
चाहते हुए भी सन्तान नहीं होती या न चाहते हुए भी हो जाती है। सर्वज्ञ परमेश्वर ने
जो कुछ किया अच्छा ही किया ऐसा विश्वास रख कर ही चलना चाहिए।
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जिज्ञासा पूर्ति भाग 01👇
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जिज्ञासा पूर्ति भाग 02 👇
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जिज्ञासा पूर्ति भाग 04👇
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