भाग ००२ जिज्ञासा
पूर्ति महानुभाव पंथिय ज्ञानसरिता
जिज्ञासा :- भगवान श्रीचक्रधर जी ने
मनुष्य के अष्ट स्वाभावों का स्वीकार किया। उन आठों में भूख प्यास का स्वीकार करने
से तो भवतों को भजन क्रिया का स्वीकार करते थे। शेष छ: स्वभावों का क्या लाभ ?
पूर्ति :- भूख प्यास का स्वीकार करने से भक्तों की भजन क्रिया का स्वीकार करते थे । सर्दी का स्वीकार करने से भक्तों के द्वारा वस्त्र अर्पण किए जाते थे। गर्मी का स्वीकार करने से भक्त हात से पंखा करते थे। नीद्रा का स्वीकार करने से भक्तों को बिछायत करने की सेवा का लाभ होता था। भय का स्वीकार करने से भक्तों को शिक्षा दी जाती थी कि अवेळ, सवेळ, दोपहर के समय किसी भूतप्रेत या देवी देवतओं के स्थान पर न जाएं।
भूत क्षोभ तथा देवता क्षोभ से
भक्त बचे रहें यह बड़ा भारी लाभ है। मल मूत्र का त्याग करने का स्वीकार करने से
जिस-२ जगह पर जड़ योनि में दु:ख भोग रहे। कणव के जीव होते थे उस स्थान पर श्रीचरण रखकर सम्बन्धदान देते
थे। सारांश प्रत्येक परमेश्वर अवतारों को कोई भी हलचल होती है उसमें किसी न किसी
जीव की अवश्य ही भलाई होती है।
जिज्ञासा :- एकांक में स्वामी तेली के घर
रात को सोए थे। प्यास लगने पर उस को पानी नहीं मांगा, स्वयं नदी पर
गए। पानी पीते समय नदी का किनारा टूट गया, अतः नदी में तैरते हुए काफी दूर तक गए बाहर क्यों नहीं निकले ?
पूर्ति :- पानी पीने का तो स्वामी का बहाना था सम्बन्ध दान के अधिकारी जीवों की कणव थी उन्हें सम्बन्ध दान देने के लिए स्वामी नदी में तैरते हुए गए। असंख्य जलचरों को सम्बन्ध दान दिया । जिवो कें कल्याण के लिए ही परमेश्वर ऐसी लीला करते हैं।
जिज्ञासा :- महदाइसा आदि भक्तों ने
स्वामी को प्रेम पूर्वक भोजन खिलाया, क्या उन लोगों को स्वामी एक, दो, तीन या चार कलिका का प्रेम संचार प्रस्तुत देह छूटते ही
करेंगे या दूसरे समय में अथवा प्रेम मिले गा या नहीं? जिन्होंने सकाम भोजन खिलाया उनको क्या मिलेगा ?
पूर्ति:- सर्वज्ञ श्रीचक्रधर महाराज उभयदर्शी अवतार थे। जिन-२ ज्ञानो भक्तों ने भगवान को प्रेम पूर्वक अहेतूक भोजन खिलाया और भगवान ने भी अहेतूक स्वीकार किया उन्हें पुनःसम्बन्ध के समय चार कलिका का प्रेम होगा। जिन-२ लोगों ने सकाम भावना से यानि जिस २ हेतु को लेकर भोजन खिलाया उनकी वे-२ इच्छाएं पूरी हो गई। आगे के लिए कणव शेष रही।
जिज्ञासा :- प्रस्तुत देह के बाद कोई भी
मनुष्य देह क्या परन्तु मैं तो पुनःसम्बन्ध का जन्म भी नहीं चाहती। जिस तरह गहरी
नींद में मनुष्य मग्न रहता है उस तरह मेरे स्वामी निद्रा अवस्था में ही मेरी आत्मा
को निकालकर पश्चात मनुष्य देह भी ऐसे ही सुख भरा देकर अपना सन्निधान व प्रेम देकर
अपने सेवा दास्य के योग्य बनाकर अपनी अनुभूतिरती प्रदान करें। क्या ऐसा संभव है ? या कैसे संभव है ? या किस प्रकार संभव हो सकता है ? क्योंकि मैं जन्म-मरण से बेहद डरती हूं।
पूर्ति:- बाई जी ! आप तो बड़े विचारवान एवं भक्तिवान हो आपको तो जन्म और मृत्यु का डर होना ही नहीं चाहिए उलट जन्म और मृत्यु का उपकार मानना चाहिए। हमें मनुष्य जन्म मिलने पर ही परमपिता परमात्मा का ज्ञान हुआ । इस मनुष्य देह के बिना कुछ भी नहीं कर सकते।
बुद्धि से हमें परमेश्वर का ज्ञान होता है । आखों से श्रीमूर्ति के दर्शन होते हैं, कानों से हम भगवान का ज्ञान सुनते हैं। जिव्हा से भगवान के प्रसाद का आनन्द लेते हैं। नाक से हम भी मूर्ति की सेवा के लिए केशर, कस्तुरी या विविध प्रकार के सुगन्धित पदार्थों की परीक्षा करके लाकर भगवान को अर्पित कर सकते हैं। स्पर्श (चर्म) से हम भगवान की श्रीमूर्ति को मिलकर उसका आनंद ले सकते हैं अथवा परमेश्वर भक्तों को गले मिलकर कि आनंद प्राप्त कर सकते हैं।
हाथों से हम भगवान की सेवा कर सकते हैं। पैरों से हम भगवान
दर्शन के लिए जा सकते हैं। मुख से हम भगवान की स्तुति गुणगान कर सकते हैं। उपस्थ
और गुदा शरीर यात्रा चलाने के लिए जरूरी है। यदि शरीर न होता तो हम कुछ भी धार्मिक
क्रिया नहीं कर सकते थे मृत्यु होने पर यानि त्याग करने पर ही परमात्मा का
परमानन्द प्राप्त होता है अतः जन्म और मृत्यु दोनों का ही उपकार मानना चाहिए।
दूसरी खास महत्व की बात यह है कि परमेश्वर की शरण में जाने वालों की तो मृत्यु होती ही नहीं मृत्यु का अर्थ है दुःख प्राप्त होना । वैसे संसार के प्रत्येक शरीर का त्याग करते समय बड़े भारी कष्ट होते हैं परमेश्वर भक्त को प्राण त्याग करते समय दुःख नहीं होते। जिस तरह मक्खन में से बाल निकालते कष्ट नहीं होता, उसी तरह साधु को प्राण त्याग के समय कष्ट नहीं होता।
संसार के जीवों को अपने-अपने कर्मों के अनुसार जन्म मिलता है भोग समाप्त हो जाने पर प्राणी की शरीर त्याग करने की इच्छा न होते हुए भी जबरबस्ती उसको शरीर से निकाला जाता है उसे मृत्यु कहते हैं। परन्तु साधुओं का तो शरीर में रहना या शरीर त्याग साधन दाता की इच्छा पर निर्भर रहता है। साधुओं के शरीर त्याग को कहा जाता है ‘देवाज्ञा झाली’ यानि भगवान की आज्ञा हो गई भगवान ने बुला लिया। भगवान की शरण में आने पर तो पशु पक्षियों को भी मृत्यु का भय नहीं होता।
बाई जी ! आपने अपना सारा आयुष्य प्रभु भक्ति में खर्च किया है। भगवान के वचनों पर तथा अपने आप पर विश्वास तथा दृढ़ निश्चय रखना चाहिए। जिस तरह आग को हाथों पर रख कर कहना नहीं पड़ता कि मेरे हाथ को जला दे।
अग्नि का काम है जलाना। वैसे ही भगवान की शरण में जाकर उसकी आज्ञा का पालन करने से स्वभाविक हो, कर्मों का नाश होता है परमेश्वर को प्रसन्नता पैदा होती है। परमेश्वर अपने भक्तों को अपनी अनुभूति रति देने के लिए ही तो संसार में अवतरित होते हैं।
परमेश्वर को कहना नहीं पड़ता कि मेरे कर्मों का नाश कर मुझे अपना प्रेम दें, आनन्द जावों को कर्म बन्धनों से मुक्त करना । अविद्यादि
बन्धनों से छुड़ाना अपना परमानन्द प्रदान करना, परमेश्वर का स्वभाव है। हमारे स्वामी ने तो जीव उद्धार का बीडा ही उठाया है।
हम उसकी असतिपरि का अनुष्ठान करते है हमें स्वामी अवश्य ही परमानन्व प्रदान
करेंगे। ऐसा निश्चय रखें। ममता और आलिम्बन का त्याग करने का प्रयत्न करें।
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