ज्ञान सर्वश्रेष्ठ है
और ज्ञानानुसार आचरण से ही
मुक्ती मिलती है
स्वामी ने अपने सूत्रों में कहा है कि ज्ञान मुक्ति दायक है। प्रश्न उपस्थित
होता है कि ज्ञान से मुक्ति प्राप्त होती है? वह ज्ञान किस प्रकार का है? मुक्ति क्या है? मुक्ति मिलेगी? और किसको मुक्ति देने वाला कौन है ?
सर्वज्ञ श्री चक्रधर स्वामी के कथनानुसार संसार में जीव, देवता प्रपंच और परमेश्वर ऐसे चार ही पदार्थ है। इन चारों पदार्थों
के विषय में यथार्थ जानकारी का होना ही ‘ज्ञान’ है।
ज्ञान वह दिव्य प्रकाश है जिसके द्वारा मनुध्य मुक्ति की खोज करता है। जिस
को प्राप्त करने पर मृत्यु रुपी दुःख रुप, पापमूल संसार का मुंह देखने को नहीं मिलता अर्थात् जन्म-मृत्य के चक्रव्यूह से
जीव छूट जाता है इसे ‘मुक्ती’ कहा है।
सिर्फ ज्ञान होने से ही जीव मुक्ति प्राप्त नहीं कर सकता, कुछ साधन का करना भी जरुरी है। जिस तरह वैद्य बतलाता है कि इस दवाई का सेवन करने से तेरा बुखार उतर जाएगा।
यदि रोगी दवाई का इस्तेमाल करता है तो रोग दूर हो जाता है, वरना दवाई -2 कहने से रोग दूर नहीं होता। वैसे ही ज्ञान-2 कहने से मुक्ति नहीं मिलती मुक्ति के लिए साधना का करना भी जरुरी है ज्ञान के
द्वारा ही हमें जानकारी होती है कि मुक्ति के लिए हमें कौनसी साधना करनी चाहिए किसकी
साधना करनी चाहिए ? वास्तविक ज्ञान
तो परमेश्वर का ही होता है। परमेश्वर के ज्ञान में शेष वस्तुओं का ज्ञान भी आ जाता
है।
जिस तरह संसार में प्रत्येक प्राणी किसी न किसी मन्जिल पर पहुंचना चाहता है।
पहुंचने के लिए रास्ते की जानकारी प्राप्त करता है। अपने इष्ट मार्ग पर चलता है और
व्यर्थ के मार्ग को छोड़ देता है। वैसे ही जीव की अपनी इष्ट मंजिल है अत्यंतिक ‘नित्य मुक्ति" प्राप्त करना। रास्ते में जीव
देवताओं की मुक्ति के चक्र में जीव भटक न जाय इस लिए परमेश्वर की मुक्ति के ज्ञान के
साथ-२ जीव देवता और प्रपंच की भी जानकारी की जाती है ।
मुक्ति का अधिकारी संसार में सिर्फ एक जीव ही है क्योंकि परमात्मा तो सदा, सर्वदा, सब प्रकार से मुक्त है। उसे मुक्ति की जरुरत ही नहीं है। तथा प्रपंच निर्जीव होने से उसको भी मुक्ति
की जरुरत नहीं है और देवताए ‘नित्यबद्धा’ यानि त्रिगुणों से इतनी बन्धी है, जकड़ी हुई है कि वे कालान्तर या किसी प्रकार के प्रयत्न करने से भी मुक्त नहीं
हो सकती।
जिस तरह कोयला अन्दर बाहर काला होता है कितना भी उसको साफ किया जाय सफेद नहीं
हो सकता वैसे ही देवताएं त्रिगुणों से मुक्त नहीं हो सकती। रहा ‘जीव’ जीव यह अविद्यादि बन्धनों से जकड़ा हुआ है परन्तु
मुक्त हो सकता है। अब रहा प्रश्न यह कि उस मुक्ति का दाता कौन है ?
संसार का यह अटल नियम है कि जो स्वयं बन्धनों से जकड़ा होता है वह दूसरों का
बन्धन नहीं काट सकता। प्राच जड़ है वह तो कुछ कर हो नहीं सकता देवताए त्रिगुणात्मक
है वे स्वयं बन्धनों में फसी है अतः वे भी जीवों को मुक्त नहीं कर सकती। सिर्फ एक परमेश्वर
ही नित्य मुक्त है वही जीवों को बन्धनों से मुक्त करने के लिए समर्थ है।
पैठण में स्वामी का निवास था। भक्तों के सहित भगवान जा रहे थे । कुछ विद्वान्
पीछे-२ आ रहे थे आपस में चर्चा कर रहे थे कि, ये स्वामी जी कुछ जानकारी भी रखते है या नहीं?’ अन्तर्यामी स्वामी खड़े हो गए और बोले कि हम सभी शास्त्रों के
सिद्धान्तों को जानते है और जीवों को अविद्यादि बन्धनों से मुक्त करना भी जानते है।
माहिमभट्ट को भी डोमेग्राम में स्वामी ने समझाया कि एक
परमेश्वर की शरण में जाकर उसके सेवा दास्य करने से ही जीव को मुक्ति प्राप्त होती है
जीव देवताओं के किसी भी साधन से इस जीव को मुक्ति नहीं मिल सकती
गीता में भगवान श्रीकृष्ण चन्द्र जी ज्ञान के बारे में कहते हैं कि मेरे ब्रह्मविद्या
ज्ञान को समझ लेने के बाद तू मोह में नहीं फसेगा और यदि तू सब पापियों से भी अधिक पापी
है तो भो इस ज्ञान रूपी नौका का सहारा लेक इस संसार सागर से पार हो जायगा।
जिस तरह प्रज्वलित अग्नि के पास आने वाली प्रत्येक वस्तु जलकर भस्म
हो जाती है, उसी तरह ज्ञान
रूपी अग्नि सभी कर्मों का नाश कर देती है। इस संसार में ज्ञान के समान (जीव को) पवित्र
करने वाली दूसरी वस्तु नहीं है। आगे भगवान कहते हैं कि चार प्रकार के भक्तों में ज्ञानी
मुझे सबसे अधिक प्रिय हैं अधिक क्या कहू ज्ञान तो मेरी आत्मा ही है ।
जिस तरह कपड़ों की मल को दूर करने के लिए साबन, सर्फ आदि पावडरों का इस्तेमाल किया जाता है। स्वामी के कथनानुसार
जीवात्मा पर लगी हुई शुभाशुभ कमों की मैल को दूर करने के लिए ‘अनुताप’ (प्रायश्चित) अचूक साधन है। कृत कर्मों
के विषय में भगवान के सम्मुख दुःख पूर्वक प्रार्थना करने से भूतकाल और वर्तमान में
किए हुए पाप कर्मों का नाश हो जाता है आत्मा निर्मल होकर परमेश्वर के निकट जाने के
योग्य होती है।
सारांश :- परमेश्वरका (ब्रह्मविद्या) ज्ञान प्राप्त होने पर जीव मुक्त
हो सकता है। ज्ञान प्राप्त होने पर जीव को अपने दुष्कर्मों की जानकारी होती हैं और
परमेश्वर के गुणों का परिज्ञान होता है। ज्ञान से ही दुष्कर्मों से मन हटकर परमेश्वर
की भक्ति की ओर लगता है। ज्ञान से ही संसार की ममता-मोह समाप्त होकर परमेश्वर की प्रीति
निर्माण होती है।
ज्ञान से ही पता चलता है कि जीव स्वार्थी होने से दूसरों का भला नहीं चाहते
और देवताएं निरयदायका (नरकदाती) है, अतः जीव और देवताओं से भलाई की आशा करना महामूर्खता है। ज्ञान से ही पता चलता है
कि एक आनन्द परिपूर्ण परमात्मा ही है जो जीवों के कल्याण के लिए सतत प्रयत्नशील है।
जीवों के बन्धन तोड़कर अपना परमानन्द प्रदान करने की चिन्ता परमेश्वर को लगी
हुई है। अतः हमारा सर्व श्रेष्ठ कर्त्तव्य है कि ब्रह्मविद्या
ज्ञान को प्राप्त करने का प्रयत्न करें। उसके अनुसार आचरण करके अपनी आत्मा के लिए मुक्ति
का मार्ग प्रशस्त करें। पीछे जानबूझकर अथवा अज्ञानता वश दुष्कर्म
किए उनकी क्षमायाचना करें तथा भविष्य में पाप कमों से बचने का प्रयत्न करें। परमात्मा
की कृपा से हमें सुन्दर मनुष्य देह प्राप्त हुई है । अति दुर्लभ मनुष्य देह को प्राप्त
करके जीवन के अमूल्य क्षणों को परमेश्वर की भक्ति के बिना व्यर्थ में बरबाद न करें।