सांसारिक भोग दुःख देने
वाले हैं
श्रीकृष्णमहाराज कहते हैं
ये हि संस्पर्शजा भोगा
दुःख योनय एव ते ।
आद्यन्तवन्तः कौन्तेय
न तेषु रमते बुधः ।। (गीता ५/२२)
अर्थात् - जो ये इन्द्रिय तथा विषयों
के संयोग से उत्पन्न होने वाले सब भोग हैं वे यद्यपि विषयी पुरुषों को सुखरूप भासते
हैं तो भी वह दुःख के कारण हैं और आदि तथा अन्त वाले अर्थात् अनित्य हैं। इसलिए हे
अर्जुन ! बुद्धिमान विवेकी पुरुष उनमें नहीं रमता।
भावार्थ यह है कि संसार के पदार्थ तथा भोग सभी प्रत्यक्ष ही दुःख रूप, परिणामी, क्षणभंगुर और विनाशशील
हैं। ऐसा विवेक-विचारपूर्वक समझने से स्वाभाविक ही संसार से वैराग्य हो जाता है।
योगदर्शन में कहा है -
परिणामताप संस्कार दुःखैर्गुण वृत्ति विरोधाच्च दुःखमेव सर्व विवेकिनः
। (योग द. 2 / 15 )
अर्थात् - परिणाम दुःख, ताप दुःख और संस्कार दुःख ऐसे तीन प्रकार के दुःख सबमें विद्यमान रहने के कारण
और तीनों गुणों की वृत्तियों में परस्पर विरोध होने के कारण विवेकी के लिए सब के सब
कर्मफल दुःखरूप ही हैं अर्थात् दुःख तो दुःख ही है, विवेकी के दृष्टि से सुख भी दुःख ही है।
संसार के बड़े से बड़े भोग सुखों की अपेक्षा ईश्वरीय सुख अत्यन्त विलक्षण और
अनुपम है। संसार के किसी भी सुख के लिए ईश्वरीय साधना में जरा भी बाधा कभी मत आने दो।
शास्त्र कहता है- अवश्यमेव भोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुभम्
- अर्थात् मनुष्य को अच्छे और बुरे कर्मों का भोग अवश्य भोगना पड़ता है।
कर्मों का भोग कैसा दुःखदायक है इस विषय में एक आख्यान
है - एक समय नारद मुनि जी तीर्थ यात्रा पर जा रहे थे, मार्ग में नारद मुनि जी को दो सरोवर मिले, जिनका जल अत्यन्त स्वच्छ, शीतल और मीठा था, परन्तु वे दुःखी
थे,
क्योंकि उन सरोवरों का जल कोई भी नहीं पीता था ।
यह देखकर नारद मुनि जी को बड़ा आश्चर्य हुआ । आगे चलने पर उनको दो विशालकाय
आम के वृक्ष मिले जो मधुर फलों से लदे हुए थे, परन्तु दोनों वृक्ष भी दुःखी थे, क्योंकि उनके फल कोई भी नहीं खाता था । यह देखकर नारद मुनि जी को बड़ा आश्चर्य हुआ। आगे
चलने पर उनको दो दुधारू गौएं भी मिलीं, जिनका दूध उनके बछड़े भी नहीं पीते थे, इसलिए वे गौएं भी अति दुखी थीं । यह देखकरं नारद मुनि जी बड़े विचार से सोचने लगे
।
जब नारद मुनि जी श्रीकृष्ण महाराज से मिले और दण्डवत् प्रणाम करके पूछा- भगवन्
! मार्ग में मिले सरोवर, आम्रवृक्ष तथा
दुधारू गौओं के दुःखी होने का क्या कारण है? श्रीकृष्ण महाराज ने कहा कि यह सब उनका कर्मों का भोग है।
दोनों सरोवर पूर्व जन्म में दो सगी बहनें थीं, वे धनवान और दानशील थीं, परन्तु वे दान देने में पक्षपात करती थीं, केवल परिचितों को ही दान देती थीं। इतना ही नहीं वे हमेशा अपनी प्रशंसा की भी कामना
करती थीं। उनके विचारों में अत्यन्त संकीर्णता थी। इस दुःख से उनकी मुक्तता तभी होगी
जब उन सरोवरों का पानी नहरों द्वारा सभी जनलोकों को प्राप्त होगा।
इसी प्रकार दोनों आम्रवृक्ष पूर्व जन्म में प्रकाण्ड विद्वान
थे,
परन्तु स्वार्थी होने के कारण उनकी विद्वता का लाभ साधारण लोगों
को नहीं मिला। इसलिए आज
इन आम्रवृक्ष का फल कोई नहीं खाता। इनके दुःख की मुक्तता तभी होगी जब उनके फलों के बीजों से उनेक उद्यान लगाकर सभी लोगों को फल खाने को मिलें। दोनों दुधारू गौओं के विषय में श्रीकृष्ण महाराज ने कहा, ये दोनों गौएं पूर्व जन्म में महिलाएं थीं। वे मात्र अपने पति
तथा पुत्र का ध्यान रखती थीं। उनमें स्वार्थ एवं कपट की भावना अत्यन्त प्रबल थी और
स्वभाव भी उनका अत्यन्त संकुचित था। उनकी इस दुःख से मुक्तता तभी होगी जब उनका दूध
अभावग्रस्त रोगियों-पीड़ितों एवं निर्धन बालकों को मिले।
इस आख्यान से यह स्पष्ट होता है कि मनुष्य जन्म सिर्फ उपभोग के लिए नहीं मिला है यह तो हमें सदुपयोग करने के लिए मिला
है,
नहीं तो हमें दुःख के अलावा कुछ मिल नहीं सकता।
एक बार एक राजा विदेश को गया। वहां वह छः महीने रहा। जब उसने वापिस देश लौटने
का विचार बनाया तो घर में अपनी चारों रानियों को अलग-अलग पत्र लिखा कि विदेश से उनकी
पसन्द की कौन सी वस्तु लायी जाये। उनमें से तीन रानियों ने अपनी पसन्द की वस्तु लिखकर
वापिस पत्र भिजवा दिये, किन्तु जो सबसे
छोटी रानी थी उसने सिर्फ १(एक) लिखकर पत्र
वापिस भिजवा दिया। राजा ने चारों चिट्ठियों को पढ़ा। किसी रानी ने वस्त्र लिखे थे, किसी ने आभूषण लिखे थे, किसी ने कोई खाने-पीने की वस्तु लिखी थी।
राजा विदेश से वापिस आया और जिस रानी ने जो वस्तु लिखी थी वह उसके पास पहुँचा
दी। सबसे छोटी रानी ने १ (एक) लिखकर राजा
को पत्र भेजा था, राजा इसका आशय
नहीं समझ पाया। राजा छोटी रानी के महल में गया और उससे पूछा-आपने १ (एक) लिखकर हमें विस्मय में डाल दिया, आप इसका आशय स्पष्ट करें। छोटी रानी ने कहा-राजन ! मुझे तो किसी
सांसारिक भोगों की आवश्यकता नहीं थी, मुझे तो सिर्फ १ (एक) आप ही चाहिए
थे,
वो मुझे मिल गये। इस उत्तर से राजा अत्यन्त सन्तुष्ट हुए। अर्थात्
छोटी रानी ने माया को नहीं चाहा, माया पति को चाहा
तो उसे राजा प्राप्त हुए।
तात्पर्य यह है कि मनुष्य जब तक इस नश्वर भोगों की चाह करेगा तब तक उसे शान्ति
स्वप्न में भी नहीं मिल सकती। एक परमेश्वर की चाह करने से उसे शान्ति का सुगम मार्ग
दिखलायी पड़ेगा। जैसे शून्य के पीछे कितने भी शून्य लगाओ तो उसका मूल्य नहीं, परन्तु एक के पीछे जितने शून्य लगाओगे उसका उतना मूल्य बढ़ेगा।
ऐसे ही जीवन में हम जब तक भोग को महत्व देते रहेंगे तो हमारा मानवी जीवन शून्य हो जायेगा।
विद्वान कहते हैं- धन अकेला आता है तो वह हमें रूलाता है, किन्तु जब वह धन धर्म के साथ आता है तो वह हमें प्रसन्नता से
परिपूर्ण करता है।
इस मानव जन्म की विशेषता यह है कि केवल इस मानव जन्म में हम ईश्वरीय ज्ञान
प्राप्त करके धर्माचरण करते हुए हमारा मानव जन्म सफल कर सकते हैं। जिसे संसार में परमेश्वर
का ज्ञान प्राप्त हुआ उसके जीवन में सकारात्मक परिवर्तन दिखने लगता है, वह बहुत ही सकारात्मक विचार करने लगता है।
एक अच्छे परमेश्वर भक्त थे, उनकी धर्मपत्नी बड़ी साध्वी और धर्म शील थीं। वह भक्त रोज मन्दिर में जाते और भगवान
से प्रार्थना करते कि हे प्रभो ! मुझे आपने संसार में ऐसा अनुकूल धर्मपत्नी का योग
किया कि मैं पूर्णरूपेण सांसारिक भोगों से दूर रहकर आपकी शुद्ध रूप में भक्ति कर सकता
हूँ। कुछ ही क्षणों बाद मन्दिर में दूसरे भक्त आये। उनकी धर्मपत्नी का देहान्त पहले
ही हो चुका था। उन्होंने मन्दिर में भगवान से प्रार्थना की कि हे प्रभो ! आपकी मेरे
ऊपर कितनी कृपा दृष्टि है, आपने मुझे सब प्रकार
के बन्धनों से मुक्त कर दिया, क्योंकि मेरी धर्मपत्नी
के चले जाने से मैं बन्धन से मुक्त होकर पूर्णरूपेण आपकी भक्ति में संलग्न हूँ। थोड़ी देर बाद एक भक्त उस
मन्दिर में पधारे। वे भक्त भगवान से प्रार्थना करने लगे कि प्रभो ! आपका मुझ पर कितना
स्नेह है,
मेरे भाग्य में कठोर और कर्कश स्वभाव वाली धर्मपत्नी मिली है, जो मुझसे निरन्तर प्रतिकूल वर्तन करती रहती है।
उनकी प्रतिकूलता के कारण मैं सांसारिक भोगों से दूर रहता हूँ। इसलिए मेरा मन
आपकी भक्ति में पूरी तरह लगता है। यदि प्रतिकूल धर्मपत्नी न होती तो मैं शायद संसार
के भोगों में फँसा रहता और प्रभो मैं आपसे दूर चला जाता।
वे तीनों अपनी-अपनी प्राप्त परिस्थितियों के अनुसार सकारात्मक विचार करके सन्तुष्ट
होकर भगवान की धन्यवादपूर्वक प्रार्थना कर रहे थे। इससे हमें यह शिक्षा प्राप्त होती
है कि हम एक चाह परमेश्वर की करते हुए जो परिस्थिति प्राप्त हुई है उसमें सन्तुष्ट
रहें तथा भोगों से दूर रहते हुए हमारा यह अमूल्य मनुष्य जीवन सफल हो, इसलिए श्रीकृष्ण महाराज ने है सांसारिक भोग दुःख देने वाले हैं।
जय श्रीकृष्ण