इच्छात्रय का त्याग

इच्छात्रय का त्याग

 


इच्छात्रय का त्याग



मोक्ष मार्ग में इच्छाएं (आशा, कामना, अभिलाषा) वज्रकपाट के समान रुकावट पैदा करती है, अतः स्वामी ने मोक्ष मार्ग पर अग्रसर होने वाले अपने भक्तों को इनका त्याग करने की आज्ञा की है।


 संसार में प्रमुखतः तीन इच्छाएं हैं, जिनमें सभी इच्छाओं का समावेश होता है। 

१. धन की इच्छा, 

2. पुत्र प्राप्ति की और 

3. मान सम्मान की इच्छा । 

संसार में प्रत्येक मनुष्य द्रव्य प्राप्ति की इच्छा रखता है क्योंकि संसार में सुख सामग्री जुटाने के लिए द्रव्य ही एक ऐसी चिन्तामणी है जिसके द्वारा सभी भोग-विलास प्राप्त किए जा सकते हैं।

द्रव्य है तो सब कुछ है और द्रव्य नहीं तो कुछ भी नहीं । अतः मनुष्य भरसक मेहनत मजदूरी और परिश्रम करके अधिक से अधिक द्रव्य एकत्र करने का प्रयत्न करता रहता है। सीधे मार्ग से द्रव्य प्राप्त न हो तो झठ, छल, कपट, हिंसा, चोरी आदि गलत मार्ग पर चलकर द्रव्य एकत्र करता है। अच्छे या बुरे पार्ग पर चलकर द्रव्य एकत्र हो जाता है तो उसका उपयोग लेने के लिए स्त्री-पुत्र की आशा करता है। पुत्र प्राप्ति न होने पर वैद्य, हकीम, डाक्टर का सहारा लेता है जिसके लिए भले ही हजारों रुपये खर्च क्यों न करने पड़ें। जिस समय औषधि उपचार से लाभ नहीं होता उस समय सिद्ध-साधक, साधु-महात्माओं के आशीर्वाद की अपेक्षा करता है यदि कोई भूत-प्रेत, देवी-देवताओं की साधना बतलाता है तो उसे भी वह करता है। द्रव्य भले ही अमाप प्राप्त हो जाय परन्तु पुत्र के बिना घर सूना हो लगता है।


पूर्वआर्जक (पूर्व पुण्य) के अनुसार द्रव्य प्राप्त हो जाए. पुत्र प्राप्ति हो भी हो जाए परन्तु चार व्यक्ति मान-सम्मान करने वाले न हों तो भी मनुष्य दुःखी रहता है। मान-सम्मान के लिए भी मनुष्य हजारों रुपये खर्च कर डालता है। दुनियां में जिस मनुष्य के पास द्रव्य प्राप्त है, पुत्र तथा मान-सम्मान भी प्राप्त है वही संसार में सुखी है ऐसा माना जाता है। इन तीनों वस्तुओं में से किसी एक की भी कमी रही तो मनुष्य चिन्तित रहता है। दो की कमी रही तो दुःखी रहता है और तीनों का अभाव रहा तो असह्य दुःखों का सामना करना पड़ता है।

जिस तरह संसारी लोग इन तीनों इच्छाओं के चक्र में हमेशा फंसे रहते हैं वंसे ही परमार्थ के साधक इन त्रय इच्छाओं के चक्र में फसकर अभिष्ट मुक्ति से वंचित न रहे इस लिए स्वामी ने इच्छाओं का त्याग बतलाया है। परनिष्ठ (तिमित) विधि प्राप्त न हो ऐसे समय में उचित द्रव्य का भी स्वीकार न करें। यदि रास्ते में किसी का द्रव्य बेवारिस पड़ा हो तो भी उसे न उठाए। निमित्त विधि प्राप्त हो तो जिस वस्तु की जितनी जरूरत हो उतनी हो लें, अधिक नहीं। झूठ बोलकर वस्तुओं की याचना करना तो महापाप है। स्वामी ने अपने भक्तों को इच्छात्रप का त्याग करने के लिए कहा और स्वयं करके दिखलाया।

भगवान जिस समय राजपाट छोड़कर गुजरात बिदा हुए उन के पास किसी वस्तु की कमी नहीं थी। यदि वे चाहते तो जितना मर्जो अमूल्य द्रव्य साथ में ला सकते थे परन्तु द्रव्य साथ में नहीं लिया, न कोई कोमती वस्त्र ही पास रखे। नौकर-चाकरों को वापस कर दिए। ओढ़ना, बिछोना कुछ नहीं, खाने के लिए पात्र नहीं और पानी पीने के लिए लौटा भी नहीं रखा। शरीर यात्रा चलाने के लिए गांव में भिक्षा के लिए जाते थे। हाथों पर हो आवश्यकता के अनुसार भिक्षा लेते थे । नदी, तालाब पर जाकर भोजन करके पानी पीते, किसी मन्दिर में या पेड़ के नोचे रात गुजारते थे। 

अचलपुर की रानी तथा महादेव राजा के द्वारा भेट किया हुआ कीमती द्रव्य छोड़कर स्वामी चल दिए। जिस समय ज्ञान प्रेम के अधिकारी जोवों का योग आया भक्तजनों के द्वारा प्राप्त हुए पदार्थों में से स्वामी जितनी जरुरत होती रखवा लेते अधिक को वापस कर देते थे । मान-सम्मान को कमी नहीं थी। महादेव राजा का अधिकार था। यदि दुबारा उसको स्वामी के दर्शन होते तो वह अपना सर्वस्वराज्य स्वामी के चरणों में अर्पित कर देता परन्तु सर्वअन्तर्यामी प्रभु ने उसको दर्शन नहीं दिए ।

यदि हम सचमुच ही मोक्ष प्राप्ति चाहते हैं, स्वामी के दर्शन के इच्छुक है, उसकी प्रसन्नता प्राप्त करना चाहते हैं तो आज हमारा (परमेश्वर भक्तों का) कर्तव्य है कि जब तक गृहस्थाश्रम में रहते हैं पूर्व आर्जक के अनुसार जो भी द्रव्य सम्पत्ति प्राप्त हुई है उसमें ही सन्तुष्ट रहें, कमल के पत्ते की न्याई संसार में रहकर इच्छात्रय से दूर रहें। 

जिस समय अपना कर्तव्य पूर्ण हुआ समझें त्याग करने की योग्यता आ जाए उस समय घर से किसी भी प्रकार की सम्पत्ति साथ में लेकर न जाएं। त्याग करने के बाद यदि कोई मान सम्मान करता है सुख न माने पूजा-पुरस्कार का स्वीकार न करें यदि कोई प्रीति पूर्वक पूजा पुरस्कार करता है तो मन में दुःख मनाएं। देव दत्त द्रव्य प्राप्त होता है तो तुरन्त ही उसको साधनों की सेवा में खर्च कर दें। आने वाले कल की चिन्ता न करें। जरुरत पड़ने पर स्वामी दिलाएगा पूर्ण विश्वास रखें। त्याग के बाद अधिकरण के सन्निधान में रह कर ज्ञान प्राप्त करें, ज्ञान प्राप्ति के बाद स्वयं आचरण करें। योग्य व्यक्ति का योग आने पर अनुभव युक्त ज्ञान उपदेश करें। कोई भी नित्य-विधि अथवा निमित्त विधि का अनुष्ठान करते हुए "माझा तो देव श्री चक्रधरु" मेरा तो भगवान श्री चक्रधर ।

मेरा शरीर, मेरी पोथी, मेरे पैसे, मेरा द्रव्य मेरा शिष्य, मेरा आश्रम मेरा मन्दिर, इत्यादि शब्द भूल कर भी जबान पर न आने दें।

यदि हम उपरोक्त वस्तुओं को अपना-2 कहते रहे तो स्वामी के मिलाप की उनकी कृपा प्राप्ति को आशा रखना व्यर्थ है।


Thank you

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