भाग 001
महानुभाव पंथिय ज्ञान सरिता
जिज्ञासा पूर्ति प्रकारण
जिज्ञासा :- 56 वर्ष की आयु के अन्दर अनुसरण लेना चाहिए: नहीं तो वह प्रमादी बन जाता है। इस संबंध
में मैंने अपने पंथ के एक बुजुर्ग ज्ञानी तथा विद्वान् महंत से चर्चा की। उन्होंने
कहा कि ऐसा कोई नियम नहीं है । किसी भी उम्र में अनुसरण लिया जा सकता है। इसकी पुष्टी
के लिए उनके संग्रहालय में से एक पोथी भी दिखाई । इस बारे में अपने विचार प्रकट करें
।
पूर्ति :- पंथ में अधिक प्रचलित तो यही बात है कि 56 वर्ष की आयु के अन्दर ही संन्यास लेना चाहिए, वरना प्रमाद दोष लगता है जो लोग समय का बन्धन नहीं मानते ऐसे
लोगों की गिनती नहीं के बराबर है। दोनों पक्षों
पर विचार करना हमारा कर्तव्य है। शास्त्र दृष्टि तथा प्रत्यक्ष अनुभव करने से यही निश्चय होता है कि 56 वर्ष के अन्दर
ही संन्यास लेना उचित है ।
५६ या ६० बाद उम्र
के संन्यास में सार्थकता नहीं दिखाई देता । मनुष्य का शरीर मन, बुद्धि आदि इन्द्रियां सक्षम हो तभी मनुष्य पूर्ण रूप से स्वामी
के कथनानुसार विधियों का अनुष्ठान कर सकता है। शरीर शिथिल हो जाने पर अटन विजन आदि
नित्य विधियों का पालन नहीं कर सकता तथा सेवा दास्य आदि निमित्त विधियों का भी आचरण
नहीं होता।
शरीर थक जाने पर संन्यास
लेना तो ‘मरी गाय ब्राह्मण को दान’ जैसा ही होता
है। 50 वर्ष की उम्र के बाद तो शरीर
सम्बन्धी भी तिरस्कार करना शुरु कर देते हैं। सरकार भी रिटायर कर देते हैं। जिस तरह ड्रायवर को आंखों से दिखाई देना कम हो।
जाता है तो उसको वाहन चलाने का ‘लायसन्स’ नहीं देते, क्योंकि उसने वाहन
चलाना अपने लिए तथा दूसरों के लिए धोखा है।
वैसे ही शरीर के थक
जाने पर संन्यास लेने वाला भी अभिष्ट मंजिल पर नहीं पहुंच पाता
तथा उसकी शिथिल आचार प्रक्रिया को देखकर दूसरे लोग भी यथा युक्त
आचार नहीं करते। अतः दूसरों का निमित्त दोष भी उसके सिर पड़ता है। यह विषय बहुत ही
विचारणीय है। लम्बा चर्चा का विषय है, सारांश यही है कि ज्ञान होकर भी उचित समय पर संन्यास नहीं लेने से साधनदाता की
प्रसन्नता नहीं रहती स्वामी उदास हो जाते है। जिसको ५६ वर्ष के पूर्व ज्ञान हो नहीं
हुआ हो वह यदि बाद में संन्यास लेता है तो उसके लिए ही छूट हो सकती है।
इतना जरुर होना चाहिए
कि प्रत्येक इन्द्रियां श्रवण मनन तथा विधि अनुष्ठान के लिए सक्षम होनी चाहिए। धर्म
शास्त्रों में लिखा है कि जब तक शरीर स्वस्त है, निरोगी है, मृत्यु का सन्देश
नहीं पहुंचा हो तब तक आत्म कल्याण का मार्ग अपनालें क्योंकि शरीर तथा इन्द्रियां साथ
नहीं देंगे उस समय कुछ भी नहीं कर सकेगा। अतः संसार के उपयोग में आने वाली अवस्था होती
है वैसी स्थिति में ही संन्यास लेना उचित है । लेकिन ५६ के
आबद सन्यास लेना भी आधा अनुसरण कहां जाता हैं । अगर किसी कारण वश उपदेश ही ५६ के बाद
हुआं या फिर संन्यास लेना आवश्य हैं इस तरह का ज्ञान नहीं था इसलिए लेट हो गये तो उन
भक्ता कें लिए आवश्यक हैं कि वे भुतकाल पर पछतावा और भविष्य कि चिंता छोडकर ६० के बाद
भी संन्यास ले । आचार्य जी ने इस संन्यास आधा अनुसरण कहां हैं। पुरा अनुसरण अगले जनम
में या फिर बोधवंत हो तो अगले सृष्टी मे पुरा अनुसरण भगवान करवा लेते हैं । तात्पर्य
सब को संन्यास लेना ही चाहिए । और अपने जीवन की डोर भगवान के हाथो में दे देनी चाहिए
।
जिज्ञासा :- श्रद्धा और भाव दोनों में क्या फर्क है ?
पूर्ति :- वैसे तो
श्रद्धा और भाव-एक समान है परन्तु श्रद्धा ज्ञान होती है किसी के द्वारा बहकाने पर
भी श्रद्धा समाप्त नहीं होती और भाव
समाप्त हो जाता है । श्रद्धा विधियों के साथ चलती
है । भाव को विधि यों का बन्धन नहीं है। भाव का उदाहरण ‘रावण तथा पेंधा’ है । भाव बदलता रहता है । और श्रद्धा अटल रहती है।
जिज्ञासा :- समाज परम्परा तथा रुढ़ि के अनुसार कुछ बातें चली आ रही हैं । जिनमें से जुआ खेलना
एक है। हमारे 2/4 जिलों में अक्षय तृतीया के निमित बहुत सारे लोग तास खेलते हैं। उपदेशी के लिए जुआ खेलना
उचित है या नहीं ?
पूर्ति :- रुढ़ियां अज्ञान लोगों के लिए होती
है क्योंकि अज्ञान लोग रुढ़ियों के शुभाशुभ परिणामों की ओर ध्यान नहीं देते। उपदेशी
लोगोंको थोड़ा बहुत परमात्मा का ज्ञान होता है। जुआ, शराब, कबाब, तथा चोरी आदि दुर्व्यसनों से दूर रहने के लिए तो उपदेश ग्रहण करते समय ही संकल्य डाल दिया जाता
है फिर रुढ़ियों के अधिन हो कर जुआ खेलना तो परमेश्वर तथा गुरु के और अपने आप के साथ
धोखा है अतः अपनी भलाई के लिए चाहे वह उपदेशी है या नहीं प्रत्येक व्यक्ति ने जुआ जैसे
दुर्व्यसनों से दूर ही रहना चाहिए।
जिज्ञासा :- जिस वस्तु को हमने देखा नहीं उस चीज को हम कैसे माने ? हवा दिखाई नहीं देती परन्तु उसका अस्तित्व हमें समझता है। उसी तरह परमेश्वर दिखाई नहीं देता उसका
अस्तित्व किस प्रकार समझना चाहिए ?
पूर्ति :- परमेश्वर जैसे जीव और देवता भी तो
अदृष्य हे फिर भी हम जीव देवताओं के अस्तित्व को मानते है फिर परमेश्वर के अस्तित्व
को मानने में हो क्या आपत्ति है? शरीरों की हलचल से हम जानते है कि इसमें जीव है। देवताएं समय-२ पर अवतार धारण करती है अपने बारे में या दूसरों के बारे में ज्ञान
देती है अत देवताएं कोई वस्तु है। हम मानते है। उसी तरह परमेश्वर भी समय-२ पर भूमि पर अवतार धारण करके अपने बारे में ज्ञान बतलाते है अतः परमेश्वर
को भी मानना पड़ता है।
संसार की रीति है कि
पिता के द्वारा पुत्र की उत्पत्ति होती है। बालक को पता नहीं होता कि मेरे पिता कौन है? माता बतलाती है कि बेटा ! तेरे पिता ये है, अतः माता के शब्दों पर बालक को विश्वास करना पड़ता है। उसी तरह
जिन्हें परमात्मा का ज्ञान होता है दर्शन होता है वे परमात्मा का अनुभव करते हैं उनके
शब्दों पर विश्वास करना पड़ता हैं।
हम संसार
की ओर देखते हैं तो विश्वास होता है कि संसार चक्र को चलाने में जरुर किसी का हाथ है।
क्योंकि समय-२ पर हवा का चलना, वर्षा का होना, सूर्य उदय होना तथा अस्त हो जाना जीवों का एक शरीर से निकाल कर दूसरे शरीर में
डालना। कोई सुखी है कोई दुःखी है। कोई अवयव सम्पन्न हैं कोई लंगड़ा लूला है। मनुष्य के न चाहते हुए भी दुःख-कष्ट और
गरीबी का सामना करना पड़ता है अतः कोई न कोई शक्ति जरुर है जो सृष्टि के कार्यों को
चलाती है। अदृष्यरूप में ऐसी अनेक शक्तियाँ एक के ऊर एक है सब के ऊपर जा महान शक्ति
है उसको ही परमेश्वर कहते
हमारे प. पू. श्री
गुरु जी को एक बार किसी साईन्स वादी पूछा था कि परमात्मा नाम की कोई वस्तु नहीं है
कल्पना मात्र है। श्री गुरु जी ने कहा कि ऐसी किसी वस्तु की कल्पना करके दिखाओ जो संसार
में नहीं है? बहुत कुछ सोचने
पर वह किसी वस्तु की कल्पना नहीं कर सका। कल्पना सिर्फ देखी सुनी वस्तुओं की ही की
जाती है। जो वस्तु है ही नहीं उसकी कल्पना नहीं की जाती पढ़ा-लिखा व्यक्ति था तुरन्त
ही मान गया और उसने उपदेश ले लिया था। आज वही व्यक्ति धर्म के क्षेत्र में बहुत आगे
है आप तो धर्म-कर्म करते ही है दूसरों को भी धर्म के विषय में मार्ग दर्शन करते है।
आज माने हुए भक्तों में उनका नाम है। एक और भी समझने वाली महत्व की बात यह है कि चाहे
कोई सज्ञान हो अथवा अज्ञान प्रत्येक व्यक्ति किसी न किसी रूप में परमेश्वर का नाम उच्चारण
करता है चाहे सुख में हो अथवा दुःख में। परमात्मा नाम की वस्तु संसार में है इसलिए
परमेश्वर का नाम प्रचलित हुआ यदि परमेश्वर नहीं होते तो उनका नाम भी संसार में नहीं
आता।
अन्त में हम भगवान
श्री कृष्ण चन्द्र जी की बतलाई गीता द्वारा विचार करते है।
भगवान अर्जुन को कहते
है कि दृष्य मय वस्तुएं ५ भागों
में बंटी हुई है। कुछ वस्तुओं का ज्ञान जीभ पर रखने पर ही होता है कि उसमें छहः रसों
में से कौन सा स्वाद है। कुछ वस्तुओं का ज्ञान नाक के पास ले जाने पर होता है कि उन
वस्तुओं में किस प्रकार की सुगंध है। कुछ वस्तुओं को आंखों के सामने ले जाने पर ज्ञान
होता है कि वे सुरुप है या कुरुप। कुछ वस्तुओं का ज्ञान काम के द्वारा होता है कि उनकी
आवाज मन को भाने वाली है या कर्कश, डरावनी है और कुछ वस्तुओं का ज्ञान स्पर्श करने पर होता है कि वे नरम है या कठोर
।
दुनियावी सम्पूर्ण
वस्तुओं का परिज्ञान पांच ज्ञन इन्द्रियों के के द्वारा हो जाता है परन्तु परमात्मा
का ज्ञान ज्ञान इन्द्रियों के द्वारा नहीं होता। परमात्मा का ज्ञान और उसका अनुभव बुद्धि
के द्वारा होता है। आंखों के द्वारा जिन वस्तुओं का ज्ञान होता है वे वस्तु यदि नाक, कान, जीभ, या चमड़ी के पास ले जाएं तो वे उसके बारे में कुछ भी नहीं बता
सकेगी। जीभ के द्वारा जिन वस्तुओं का ज्ञान होता है वे वस्तु आंख, नाक, कान और चमड़ी के
पास ले जाएं तो वे उसके बारे में कुछ भी नहीं बता सकेगी। जीभ के द्वारा जिन वस्तुओं
का ज्ञान होता है वे वस्तु आंख, नाक, कान और चमड़ी के पास ले जाने पर परिज्ञान नहीं होगा। वैसे ही
अन्य वस्तुओं का भी है।
परमात्मा को जानने
या उसके दर्शन करने के लिए मनुष्य की बुद्धि ही एक साधन है जिसके द्वारा परमेश्वर का
ज्ञान होता है और दर्शन भी वृद्धि ही करा सकती है। बुद्धिरहित आँखों से परमेश्वर के
दर्शन नहीं होते। यदि कोई कहता है कि परमात्मा है तो उसके दर्शन करवाएं ? परमेश्वर सर्वश्रेष्ठ है, अन्तर्यामी है। वह जीव की योग्यता
देखकर ही दर्शन देता है किसी के दबाव में आकर नहीं। हम देखते हैं कि संसार की कोई भी
वस्तु प्राप्त करनी हो उसके लिए कोई न कोई नियम जरुर होता है।
जिस तरह घी की जरुरत
होने पर दूध जमा कर दही बनने पर बिलोया जाता है। मक्खन निकलेने पर उसको गर्म किया जाता
तब जाकर घी तैयार होता है। क्या परमात्मा उससे भी गया बीता है जो किसी के कहने पर किसी
के सामने खड़ा हो जाय ?
परमेश्वर के दर्शन
के लिए भी कुछ नियम है। पहले तो परमेश्वर वस्तु किस प्रकार की है उसके कार्य कारण स्वरूप
और लक्षण का ज्ञान प्राप्त करें। ज्ञान प्राप्त होने पर उसके पास चल कर जाना पड़ता
है। उसके पास जाने के लिए सात नित्यक विधि और चार निमित्यक विधि है उनका अनुष्ठान करने
पर परमेश्वर निश्चित दर्शन देते हैं इसमें रत्ती मात्र भी सन्देह नहीं है ।
जिज्ञासा :- धर्म पालन
के लिए गृहस्थ में रहते हुए क्या-२ करना चाहिए
! जिससे घर में धर्म वृद्धि हो सके और धर्म की नींव भी गहरी हो सके
पूर्ति :- घर में रहते हुए परिवार की ममता कम करने का प्रयत्न करें। परिवार का पालन कत्र्तव्य
समझकर करे प्रति उपकार की भावना न रखें। अपने परिवार के लिए झूठ, कपट, छल हिंसा चोरी
आदि दुष्कर्मों से दूर रहे। दुर्व्यसनों का शिकार न बनें। अपनी कमाई कुछ भाग प्रभु
सेवा में जरुर खर्च करें। पूजा-पाठ, नाम स्मरण आदि धार्मिक विधीयों का अनुष्ठान
जितना संभव हो अधिक से अधिक समय निकाल कर बड़े श्रद्धा, प्रेम से करें। परिवार जनों को प्रीति के साथ धार्मिक विधियों
का अनुष्ठान करने के लिए प्रेरित करते रहें।
जिज्ञासा :- किसी भी
महन्त के नाम के पहले १०८ क्यों लिखा होता है ? मृत्यु के बाद भी ऐसा लिखा होता है इसका क्या कारण है?
पूर्ति :- अन्य धर्मों की यह परम्परा है वे सन्त महन्तों के नामसे पूर्व १०८ लिखते हैं
वही परम्परा हमारे में शुरू हो गई। सनातन धर्म के अनुसार १०८ उनके विशेष धर्म स्थल
यानि पवित्र तीर्थ माने जाते हैं। उन १०८ हो पवित्र तीर्थों के समान सन्त-महन्त पवित्र
है इस प्रकार की उन लोगों की श्रद्धा होती है। मालाओं में भी १०८ मणके होते है। मालाएं
भी अन्य लोगों के द्वारा बनाई हुई होती है। हमारी परम्परा में तो ई० (ईशाधिष्ठित) प. (परम) पू.
(पूज्य) प. (पट्टाधिष्ठित) म. (महदाचार्य) शब्दों का प्रयोग करने की पूर्व परम्परा
है। कुछ गलत रुढियां चल पड़ती है तो उसके अर्थ की तरफ किसी का ध्यान नहीं जाता ई० प. पू. प. म. इन शब्दों में ई० का अर्थ विशेष होता है परन्तु आज-कल ई० का प्रयोग सर्व सामान्य साधुओं के लिए
किया जाता है और विशेष व्यक्तियों के नाम के पहले प. पू.
प. म. शब्द लगाने की प्रथा आम चालु है। यहां तक कि छोटे महन्तों के नाम
के पूर्व भी प. म. लगाया जाता है।
जिज्ञासा :- बाईसा ने स्वामी के विषय में झूठी वार्ता सुन कर शरीर त्याग कर दिया उसको सद्गति
में तो कोई फर्क नहीं पड़ा क्योंकि ईश्वर के वियोग में कोई भी 3 घण्टों के अन्दर शरीर त्याग कर देता है तो उसको आत्मघात का
दोष नहीं लगता। परन्तु वाचा सुन्दर बोला इसाने पोथियों सहित कुए में छलांग लगा कर आत्महत्या
कर ली थी क्या उन्हें भी भगवान ने मुक्ति दी? देह त्याग करना पाप है फिर उन्होंने ऐसा क्यों किया?
पूर्ति
:-
क्रोध में आकर आत्महत्या करें अथवा दूसरों की हत्या करें तो
पाप है। वाचा सुन्दर बोलाइसा ने तो अपने धर्म को बचाने के लिए आत्महत्या की। यवनों के हाथों से मरने की अपेक्षा अपने आप मर जाना उन्होंने उचित
समझा। यदि हत्या नहीं भी की होती तो भी धर्म तो नहीं रहता। स्वामी ने अपने वचनों में
कहा है कि धर्म को कायम रखकर मर जाना उचित है। परन्तु धर्म का त्याग करके जीवित रहना
उचित नहीं है। अर्थात् धर्म पर रहते हुए मरने वाला अच्छा है परन्तु धर्म त्याग करके
जीवित रहने वालाबुरा है। सुन्दर बोलाइसा ने धर्म पर रहते हुए शरीर त्याग कर दिया परमात्मा
उसे प्रेम ही देंगे इस में सन्देह नहीं हैं ।
सारे संसार
में जितने प्राणी मात्र है परमेश्वर सबके पिता है। पिता कभी बच्चे का बुरा नहीं चाहते।
परमेश्वर सुख का दाता है वे किसी को दुःख नहीं देते। ईसाइ हो चाहे मुसनमान ‘धर्म’ है धर्म का विनाश करना परमेश्वर का
काम नहीं है। परमेश्वर ने हिन्दुओं का ही ठेका नहीं ले रखा है कि हिन्दु धर्म रहे और
दूसरे धर्म नष्ट हो जाय हिन्दु हो चाहे मुसलमान शरीर सभी के एक जैसे ही पांच तत्त्वों
के बने हुए है और सब के अन्दर आत्माएं भी एक जैसी ही है। हिन्दु परमेश्वर की भक्ति कर
सकता है और मुसलमान नहीं कर सकता ऐसा तो नहीं है। अनेक मुसलमान भगवान श्री कृष्ण चन्द्र
जी की अनन्य भक्त हो चुके अब हम ‘सिद्धान्त बोध’ ग्रन्थ
के कर्ता जय कृष्णी समाज के कट्टर अनन्य भक्त थे । मुसलमान ही तो थे । उनका
नाम शहामुनी था। शहागढ़ में
आज भी मुसलमान जय श्रीकृष्णी है। किस समय किस मनुष्य को परमात्मा
का ज्ञान हो जाएगा कहा नहीं जाता अतः किसी भी जाती विशेष से नफरत नहीं करनी चाहिए ।
सारांश :- स्वामी के कथन के अनुसार तथा गोता सिद्धान्त के अनुसार किसी के भी विषय में अशुभ
चिन्तन करना उचित नहीं है। हमें अपने आत्म कल्याण के लिए सभी भूत प्राणियों के विषय
में भलाई के ख्याल ही रखने चाहिए
जिज्ञासा पूर्ति भाग 03👇
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जिज्ञासा पूर्ति भाग 01👇
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जिज्ञासा पूर्ति भाग 02 👇
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जिज्ञासा पूर्ति भाग 04👇
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कुछ पुर्तियो पर आपसे चर्चा करणी है....
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