श्रीकृष्ण भगवान परब्रह्म परमेश्वरावतार हैं, ना
की विष्णु देवता के
महानुभाव जयकृष्णी
धर्म भगवान श्रीकृष्ण को पारबह्म परमेश्वर का अवतार मानता है वैकुण्ठ वासी विष्णु
का अवतार नहीं। भगवान श्रीकृष्ण गीता में कहते हैं
यं यं वापि स्मरन् भावं त्यजत्यन्ते कलेवरम् ।
तं तमेवैति कौन्तेय सदा तद्भावभावितः ॥ (गीता 8/6)
अर्थात् हे अर्जुन ! जिस-जिस भावना से जीवन में अभ्यास करते
हुए तथा ध्यान करते हुए एक मनुष्य अन्त समय में अपने प्राण त्यागता है उसी वस्तु
को वह प्राप्त करता है। भगवान श्रीकृष्ण महाराज जी के वचनानुसार जो भी श्रीकृष्ण
भक्त श्रीकृष्ण को वैकुण्ठ वासी विष्णु का अवतार मान कर उनका ध्यान करते हुए प्राण
त्यागता है उसको निश्चित ही वैकुण्ठ लोक की प्राप्ति होती है। इसी प्रकार जो भी
श्रीकृष्ण भक्त श्रीकृष्ण को पारब्रह्म परमेश्वर का अवतार मानकर श्रीकृष्ण की
भक्ति करते हैं उनको पारब्रह्म परमेश्वर के परम पद की प्राप्ति होती है। श्री
कृष्ण भगवान जी बोलते हैं—
आब्रह्मभुवनाल्लोकाः पुनरावर्तिनोऽर्जुन ।
मामुपेत्य तु कौन्तेय पुनर्जन्म न विद्यते ॥ (गीता 8/16)
अर्थात् हे अर्जुन ! ब्रह्मा जी का लोक, ब्रह्मलोक से नीचे जितने भी लोक हैं वहाँ जाने वाले सभी जीव
पुण्य समाप्त होने पर पुनः इस मृत्यु लोक में आ जाते हैं परन्तु मुझे प्राप्त होने
पर पुर्नजन्म नहीं होता। आगे श्री भगवान जी कहते हैं—
न तद्भासयते सूर्यो न शशाङ्को न पावकः ।
यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम ॥ (गीता 15/6)
अर्थात् मेरे शाश्वत, अव्यय, अविनाशी पद को न तो सूर्य
प्रकाशित कर सकता है, न चन्द्रमा, न अग्नि, जहाँ जाकर
पुनः इस संसार मृत्यु लोक में आना नहीं पड़ता वह मेरा परम धाम है। अतः परमेश्वर के
परम धाम को मोक्ष कहा जाता है जहाँ जाने पर इस जीव को जन्म-मरण से सदा के लिये
छुटकारा मिल जाता है।
श्रीमद्भागवत के
सातवें स्कन्ध के प्रथम अध्याय में नारद युधिष्ठिर का सम्वाद है। जब चेदिराज
शिशुपाल सब के देखते-2 श्रीकृष्ण
भगवान में समा गया तो
युधिष्ठिर ने देवर्षि नारद जी से पूछा कि श्रीकृष्ण भगवान जी से द्वेष करने वाला
शिशुपाल भगवान श्रीकृष्ण में कैसे समा गया क्योंकि ऐसी सद्गति तो भक्तों को ही
प्राप्त होती है जबकि शिशुपाल ने तो श्रीकृष्ण भगवान को अनेक गालियाँ तथा अपशब्द
बोले थे।
तब नारद जी ने
युधिष्ठिर से कहा तुम्हारे मौसेरे भाई शिशुपाल दोनों किसी समय वैकुण्ठ में विष्णु
जी के मुख्य पार्षद (जय-विजय नामक द्वारपाल) थे।
एक समय ब्रह्मा जी
के चार मानस पुत्र सनक, सनन्दन, सनातन, सनतकुमार
विचरण करते हुए वैकुण्ठ लोक में पहुँच गये। इन चार ब्रह्मा के मानस पुत्रों को
जय-विजय दोनों द्वारपालों ने साधारण समझकर वैकुण्ठ में जाने से रोक दिया। तब
क्रोधित होकर इन ब्रह्मा के चार मानस पुत्रों ने जय-विजय को शाप दिया, “तुम दोनों श्री विष्णु जी के समीप निवास करने योग्य नहीं
हो। इसलिये शीघ्र ही तुम पापमयी असुर योनियों में जाओ।
जब वे वैकुण्ठ से
गिरने लगे तो वैकुण्ठ में रहने वाले महात्माओं ने उनसे कहा- अच्छा तीन जन्मों में
इस शाप को भोगकर तुम लोग फिर इस वैकुण्ठ में आ जाओगे।
आगे नारद जी ने
युधिष्ठिर को कहा कि इस शाप के फलस्वरूप जय-विजय दोनों इस मृत्यु लोक में आये तथा
दिति के पुत्र हुए, बड़े का नाम
हिरण्यकश्यपु तथा छोटे का नाम हिरण्याक्ष था। ये दोनों दैत्य-दानवों के समाज में
सर्वश्रेष्ठ माने जाते थे।
नरसिंह अवतार ने
हिरण्यकश्यपु को मारा तथा वराह अवतार ने हिरण्याक्ष को मारा तथा प्रह्लाद की रक्षा
की। दूसरे जन्म में वे ही रावण तथा कुम्भकर्ण के रूप में प्रकट हुए। इनके पिता का
नाम पुलस्ती मुनि तथा माता का नाम केशनी था।
तब विष्णु अवतार
राम ने इन दोनों का वध किया। आगे नारद जी युधिष्ठिर जी से बोले - वही जय-विजय इस जन्म में तुम्हारी मौसी के लड़के शिशुपाल
तथा दन्त वक्त्र के रूप में क्षत्रिय कुल में पैदा हुए। भगवान श्रीकृष्ण महाराज जी
के चक्र से दोनों का वध हुआ। इनके पाप नष्ट हो गये हैं तथा यह सनकादि इन के शाप से
भी मुक्त हो गये हैं।
यह आख्यान
श्रीमद्भागवत में ही आता है। इस आख्यान से यह सिद्ध होता है कि विष्णु का वैकुण्ठ
धाम मोक्ष नहीं है। वहाँ जाकर भी पुण्य क्षीण हो जाने पर पुनः मृत्यु-लोक में जन्म
लेना पड़ता है परन्तु भगवान श्रीकृष्ण महाराज गीता में स्पष्ट रूप से कहते हैं कि
मेरा परम धाम मोक्ष है जहाँ जाकर पुनः मृत्यु लोक में जन्म ही नहीं होता।
अतः विष्णु जी का
वैकुण्ठ धाम भगवान श्रीकृष्ण महाराज जी के परमधाम से सर्वथा भिन्न है। अतः पाठक स्वयं ही विचार कर सकते हैं कि श्रीकृष्ण
विष्णु का अवतार कैसे हो सकते हैं? इससे यह सिद्ध होता है कि श्रीकृष्ण वैकुण्ठ के विष्णु के अवतार न होकर
पारब्रह्म परमेश्वर के अवतार हैं।
इसी प्रकार काशी
खंडा नामक ग्रन्थ में ऐसा उल्लेख आता है कि शिवशर्मा नामक ब्राह्मण ने विष्णु जी
की भक्ति की तथा उसको दस लाख वर्ष वैकुण्ठ का भोग प्राप्त हुआ। परन्तु पुण्य
समाप्त होने पर उनको विष्णु पुरी से धक्का दे दिया गया तथा उसका जन्म नन्दीवर्धन
देश में राजा के कुल में हुआ। इससे भी यह सिद्ध होता है कि विष्णु जी के लोक
वैकुण्ठ में जाने से जन्म-मरण से मुक्ति प्राप्त नहीं होती, परन्तु भगवान श्रीकृष्ण महाराज जी के परम धाम को प्राप्त
करने पर पुनः जन्म ही नहीं होता।
अतः श्रीकृष्ण
विष्णु के अवतार नहीं इसी प्रकार कथा कल्पतरू तथा मूलस्तम्भ नामक ग्रन्थों में भी यह लिखा हुआ है कि
वैकुण्ठ में जाने पर शंख, चक्र, गदा, पद्म धारण
किये विष्णु जी के दर्शन होते हैं तथा वहाँ-2 लाख स्त्रियों का भोग प्राप्त होता है परन्तु पुण्य क्षीण
होने पर पुनः मृत्यु लोक में जाना पड़ता सन्त तुकोबा सनातन धर्म के एक महान सन्त
माने जाते हैं। विष्णु के वैकुण्ठ लोक के बारे में वे कहते हैं - मागों जरी पद वैकुंठ। तें एव एकदेशी
करंटे
अर्थात् सन्त तुकोबा बोलते हैं कि यदि मैं विष्णु जी से
वैकुण्ठ धाम मांगू तो वह तो एकदेशी तथा क्षुल्लक फल है। छांदोग्योपनिषद् में लिखा
है
“अमुत्र पुण्य जितो लोकः क्षीयते (छां० उ० 8, 1, 6)
अर्थात इस मृत्यु लोक से ऊपर स्वर्ग वैकुण्ठ आदि जितने भी
लोक हैं वे पुण्य कर्म करने से प्राप्त होते है परन्तु पुण्य क्षीण होने पर वहाँ
से वापिस आना पड़ता है। छांदोग्योपनिषद् में ही लिखा है
न ह वै सशरीरस्य सतः प्रियाप्रिययोरपहतिरस्त्य
शरीरं वाव सन्तं न
प्रियाप्रिये स्पृशतः (छां० 30 8.12.1)
अर्थात् जब तक जीवात्मा का शरीर से सम्बन्ध होता है तब तक
सुख और दुःख प्राप्त होते ही हैं। वैकुण्ठ लोक में जाने पर भी जीवात्मा को शरीर तो
प्राप्त होता ही है जिसके माध्यम से वह वैकुण्ठ के सुख भोगता है परन्तु मोक्षधाम
तो केवल जीवात्मा को प्राप्ति होती है जहाँ जीवात्मा परमेश्वर का आनन्द प्राप्त
करता है।
अतः निश्चित ही
वैकुण्ठ तथा परमधाम में बहुत अन्तर है। भारतवर्ष के एक महान सन्त एकनाथ जी ने
भागवत में श्रीकृष्ण भगवान जी से प्रार्थना करते हुए लिखा है, न मुझे स्वर्ग की आशा है, न वैकुण्ठ का वास, न मुझे योग के अष्टांग साधन की आवश्यकता है क्योंकि इन सबसे
जन्म-मरण का बन्धन समाप्त नहीं होता। अतः हे श्रीकृष्ण ! मुझे वैकुण्ठ से ऊपर अपने परमधाम की प्राप्ति दो ।
इसी प्रकार सन्त
एकनाथ अपनी एकनाथ भागवत में लिखते हैं कि इस सृष्टि का प्रलय होने पर स्वर्ग, कैलाश, वैकुण्ठ का सत्यलोक तथा शेषशैय्या का क्षीरसागर सबका नाश हो जाता है परन्तु
महाप्रलय आने पर भी परमेश्वर के परम धाम का कभी नाश नहीं होता। इसलिये परमधाम को
शाश्वत, अव्यय, अविनाशी कहा गया है।
सन्त एकनाथ
श्रीकृष्ण भगवान जी से प्रार्थना करते हैं - हे श्री कृष्ण ! आपका जहाँ निवास है उसका कभी नाश नहीं होता तथा आप वहाँ के
परिपूर्ण अवतार हैं। अतः श्रीकृष्ण वैकुण्ठ निवासी नहीं हैं। श्रीविष्णु जी
वैकुण्ठ निवासी हैं इसलिये श्रीकृष्ण भगवान पारब्रह्म परमेश्वर के अवतार हैं
वैकुण्ठ के विष्णु जी के नहीं। जो लोग श्रीकृष्ण को वैकुण्ठ के विष्णु का अवतार
मानते हैं वे अज्ञानता में है तथा उनका यह मिथ्या भ्रम है।
कई धर्म शास्त्रों की ऐसी भी मान्यता है कि ब्रह्मा जी
सृष्टि की रचना करते हैं, विष्णु जी
उसका प्रतिपालन करते हैं तथा महादेव जी संहार करते हैं परन्तु श्रीमद्भगवद् गीता
को यह मत मान्य नहीं है। भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं एतद्योनीनि
भूतानि सर्वाणीत्युपधारय ।
अहं कृत्स्नस्य जगतः प्रभवः प्रलयस्तथा ॥ (गीता 7/6)
अर्थात् श्रीकृष्ण भगवान जी कहते हैं कि मैं सभी योनियों
तथा प्राणिमात्र को धारण करने वाला हूँ। मैं इस संसार की उत्पत्ति करता हूँ तथा
मैं ही संहार करता हूँ। अत: अन्य धार्मिक ग्रन्थों में दिये विचारों में तथा
श्रीमद्भगवद् गीता के विचारों में महान अन्तर है। अन्य धर्म शास्त्र वेद-व्यास आदि
ऋषि-मुनियों ने बनाये हैं परन्तु श्रीमद्भगवद् गीता भगवान श्रीकृष्ण महाराज जी के
मुख से निकली ज्ञान गंगा है। ऋषि-मुनियों के विचारों में मतभेद है अतः उनके विचार
प्रामाणिक नहीं माने जा सकते। परन्तु श्रीमद् भगवद् गीता का उपदेश भगवान श्रीकृष्ण
महाराज जी ने दिया है जो कि पारब्रह्म परमेश्वर के अवतार हैं, प्रामाणिक है।
वास्तव में धर्म शास्त्रों में लिखा है—
'विचित्ररूपाः खलु चित्तवृत्तयः',
'पिण्डे पिण्डे
मतिर्भिन्ना' अर्थात् जितने लोग होते है उनकी चित्तवृत्ति अलग-अलग ही होती है तथा जितने
शरीर होते है उनके अलग-अलग विचार होते हैं। इसलिये सब लोगों का एक मत होना असम्भव
है। सभी लोगों की बात छोड़ो एक व्यक्ति भी अपने जीवन में अनेक बार विचार बदलता रहता है। इसलिये बुद्धि सदा बदलती रहती
है अतः उनके विचार भी समय-2 पर बदलते
रहते है। इसके बारे में महाभारत में यक्ष ने युधिष्ठिर से प्रश्न किया- सच्चा
मार्ग क्या है ? मनुष्य की युधिष्ठिर ने
इसका उत्तर दिया-
तर्कोऽप्रतिष्ठः श्रुतयो विभिन्ना नैको
ऋषिर्यस्य वचः प्रमाणम् ।
अर्थात् मनुष्य द्वारा दिये गये तर्क स्थायी नहीं होते
क्योंकि एक तर्क को दूसरा तर्क काटता है। वेद भिन्न-2 धर्मों को बतलाते हैं तथा किसी भी ऋषि के विचारों को
प्रामाणिक नहीं माना जा सकता। अतः परमेश्वर अवतार जो कुछ बतलाते हैं वही सच्चा
मार्ग होता है क्योंकि चाहे कितने भी परमेश्वरावतार हों वे सदैव एक ही प्रमाणिक
बात कहते हैं उनके द्वारा कहे गये सिद्धान्तों में कभी मत-भेद नहीं होता। अतः गीता
अन्य शास्त्रों से सर्वाधिक प्रामाणिक है।
भगवान श्रीकृष्ण
सर्व शक्तिमान हैं। शक्तियों तथा सर्वशक्तिमान में भेद जानना ही सच्चा ज्ञान है।
यह भली भांति समझ लेना है कि सभी शास्त्र त्रिगुणात्मक हैं। भगवान श्री कृष्ण कहते
हैं
त्रैगुण्य विषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन। (गीता 2/45)
अर्थात् वेदों का
विषय तीन गुण रज, तम, सत्व वाला है परन्तु हे अर्जुन तुम निर्गुण बनो। अतः वेदों
का ज्ञान त्रिगुणात्मक है तथा गीता का ज्ञान निर्गुण । इसी प्रकार सभी देवताऐं
त्रिगुणात्मक हैं। ब्रह्मा जी रजोगुण प्रधान है जी सत्वगुण प्रधान हैं, महादेव जी तमोगुण प्रधान हैं परन्तु श्रीकृष्ण भगवान तो कोई
देवतावतार नहीं हैं वे तो पारब्रह्म परमेश्वर के निर्गुण अवतार हैं। अतः देवताऐं
तथा परमेश्वर भिन्न हैं। सभी एक ही कह देना एक बहुत बड़ी अज्ञानता तथा अन्यथा
ज्ञान । शास्त्रों में लिखा है कि जैसे आकाश से गिरा हुआ जल समुद्र में चला जाता
है इसी प्रकार किसी भी देव की भक्ति केशव को प्राप्त होती है। यह मत गीता को मान्य
नहीं है क्योंकि श्रीकृष्ण भगवान जी कहते हैं - यान्ति देवव्रता देवान् अर्थात् देवताओं की भक्ति करने वाले देवताओं को प्राप्त करते है, भूतों की भक्ति करने वाले भूतों को प्राप्त करते हैं तथा
मेरी भक्ति करने वाले ही मुझे प्राप्त होते हैं। अतः जिसकी भक्ति की जाती है। उसकी
ही प्राप्ति होती है।
जगत
मान्य शंकराचार्य ने प्रबोध सुधाकर नामक ग्रन्थ में लिखा है कि जिस समय ब्रह्मदेव
बृज मंडल से गाय, बछड़े तथा
ग्वाल-बाल चुराकर अपने ब्रह्म लोक में ले गये तो ब्रह्मा जी गोकुल में सब हाल-चाल
देखने आये तो श्रीकृष्ण भगवान जी ने ब्रह्मा जी को अनेक ब्रह्माण्डों के दर्शन
करायें। उन ब्रह्माण्डों में अनेक ब्रह्मदेव तथा अनेक विष्णु जी दिखाये तथा यह भी
दिखाया कि अनेक महादेव भगवान श्रीकृष्ण जी के श्रीचरणों पर मस्तक रखकर उनका चरणामृत
ले रहे हैं। इस प्रकार श्रीकृष्ण सच्चिदानन्द, निर्विकार, श्यामसुन्दर, अनिर्वचनीय, परात्पर वस्तु ब्रह्मा, विष्णु, महादेव तीनों से भिन्न है। अतः शंकराचार्य के मत के अनुसार
भी श्रीकृष्ण विष्णु के अवतार नहीं हैं।
सन्त एकनाथ अपनी
भागवत में भगवान श्रीकृष्ण महाराज जी के बारे में लिखते हैं-
हे
श्रीकृष्ण ! आप कितने महान हो कि क्षीराब्धि में निवास करने वाले शेष नाग पर जिनकी
शैय्या है ऐसे नारायण जी आपके दर्शन की अभिलाषा के कारण द्वारका से उस ब्राह्मण के
बच्चे ले गये। तब श्रीकृष्ण अर्जुन के साथ नारायण के निवास पर गये। लक्ष्मी-नारायण
ने उठकर उनका स्वागत किया तथा अलौकिक पूजा की। इससे यह सिद्ध होता है कि श्री
कृष्ण भगवान देवों के देव हैं तथा सारी देवतायें यदि शक्तियाँ है तो श्रीकृष्ण
भगवान सर्वशक्तिमान हैं। अतः सारी सृष्टि के नियन्ता भगवान श्रीकृष्ण कहाँ तथा
वैकुण्ठ वासी विष्णु कहाँ ? इन दोनों में
महान अन्तर है। श्रीकृष्ण विष्णु के अवतार नहीं हैं। गीता के बारे में लिखा गया है
गीता सुगीता कर्त्तव्या किमन्यैः
शास्त्रविस्तरैः ।
अर्थात् एकश्रीमद् भगवद् गीता का ही पूर्ण रूप से अध्ययन कर
लेना चाहिए। बाकि के शास्त्रों का
विस्तार करने से क्या लाभ ? अर्थात् सारे
धर्म शास्त्रों को पढ़ने से कोई लाभ नहीं है। आगे यह भी लिखा गया है
एकं शास्त्रं देवकीपुत्रगीतम् । एको देवो देवकी
पुत्र एव ।
एको मंत्रस्तस्य नामानि यानि ।कर्माप्येकं तस्य
देवस्य सेवा ॥
अर्थात् यदि संसार
में कोई शास्त्र है तो वह देवकी पुत्र श्रीकृष्ण भगवान जी द्वारा सुनायी गयी गीता
ही है यदि कोई देव है तो वह देवकी पुत्र श्रीकृष्ण ही है, यदि कोई मन्त्र है तो श्रीकृष्ण का नाम ही सबसे बड़ा मन्त्र
है और यदि कोई कर्म है तो एक ही सबसे बड़ा कर्म है। अतः भगवान श्रीकृष्ण को पहले गीता
ज्ञान के माध्यम से भली भांति समझो तथा तब उनकी भक्ति करो तभी जाकर उनके परम धाम
की प्राप्ति हो सकती है