दोष किस तरह बढते है?
अजी! आपसे कितनी बार कह चुकी हूं कि अभी इस प्रकार पहले की तरह देवालय से आंगण
दौड़-2 कर मत जाया करो। पर मेरी सुनता
हो कौन है ?
दौड़ कर फूल तोड़ने जाते हो, यह क्या भाग दौड़ करने की उम्र है। आपको ?
अरे ! यह क्या पैर मे जख्म हो गया। अब जनाब बैठो मरहम पट्टो कराते महीना पन्द्रह
दिन ।
अरे ! घर में सुशील गुणवती बहु आयी है। उससे कह दिया होता। वह फूल तोड़कर ला
देती। वह क्या आपकी बात नहीं मानती ? अजी ! भले संस्कारशील एवं धार्मिक वातावरण में पली हुई है वह ! पूजा पाठ देव धर्म
के कार्यों में क्या इतनी मदद नहीं करेगी? जरुर करेगी।
बहुरानी ! बेटा शालु, आज से तुम अपने ससुर जी की पूजा पाठ के लिए फूल लाकर दिया करोगी?
बिचारी शालु ! बड़ों का आदर सम्मान करने वाली सुसंस्कृत शालु, ना कैसे कहेगी? अपितु परधर्म से विपरीत एवं अन्य देवी-देवता के प्रित्यर्थ फूल लाने का वैकल्पिक कार्य सासु शब्द प्रमाण से मजबूरन प्रारम्भ किया। फिर क्या ! ससुर जी देवालय में ही बैठ कर अपनी पूजा अर्चा करने लगा ।
बेटा बहुरानी ! शाम को सब्जी लेने जब बाजार जाओगी। तो अगरबत्ती लाना मत भूलना, अजी हां, बाती-फूलबाती भी ले आना और
कल तो शनि अमावस्या आ रही है मेरे घुटनों ने दर्द है, और इनके तो पर में पट्टी है, फिर बटा ! तू ही शनि देवता के मन्दिर में तेल चढ़ा आना । इस प्रकार महाशय संस्कारशील
एवं परधर्मीय बालिका धीरे-2 ससुराल के परिवेश
में परिवर्तित होने लगी। पति महाशय नामांकित कम्पनी के व्यवस्थापक रहे। बंगला. गाड़ी इत्यादि सभी ऐशो आराम के साधन उन्हें मुहैय्या है । खान-पान, राग रंग एवं मद्यधूंद। मेहफिलों में सचैल स्नान होने लगा। अंततः धीरे-2 रसीक एवं शौकीन बन गए ।
कहते हैं सुखी संसार को कभी कभार अश्य की भी नजर लग जाती है। अजी मुन्ना इतना
कमाता है। हम सबको खुबहाल रखता है। तो उसकी इतनी सी बात हम नहीं पूरी करेंगे, तो कौन करेगा? इति सासुजी ।
बहुरानी को आदत नहीं उसे बदबू आती हैं। वैसे हमें कहाँ खशबू आती है? और कहां हो ऐसी आदतें । परन्तु आज का समय ही बदल गया है। हमारे तो बस में नहीं। अब केवल उसी परिवर्तित समय के साथ चलना अनिवार्य हो चुका है।
वैसे हमें कहां भक्षण करना है? उसे खाली बना देता है बस ! भविष्य में करेगी उसकी घरवाली धीरे-2 आदत होने पर अभी यह बात चल ही रही थी कि एक आयाराम
गयाराम साधु की कहानी याद आ गई ।
एक साधुजी की अपनी कफनी बहुत बड़ी थी। जिसमें पांच-दस साधु और
आ सके,
इतनी काफी मोटी थी।
किसी एक ने पूछा, ‘‘बाबा ! इतनी मोटी कफनी आप क्यों पहनते हो ?”
बाबा मुस्कराते हुए बोले । ‘‘अरे ! इससे तो में तालाब में मछलियां पकड़ता हूं।’’
‘‘अरे ! तो क्या आप मछलियां भी
पकड़ते हैं ? किसलिए?’’
‘‘अरे भाई ! अस्मादिकानाम, उदर पोषणार्थम्’’
‘‘तो क्या आप मछलियां भी खाते
हैं ?’’
'हां, कभी-2 जब पाव छटाक लगा
लता हूं ।
'अरे ! तो क्या आप मदिरा भी सेवन
करते हो ?"
‘‘हां, कभी कभार रागरंग की महफिलों में अपते मित्र परिवार के साथ जाना पड़ता है तो सेवन करता हूं।’’
‘‘क्या आप महफिलों में भी जाते
हो ?’’
‘‘जी हां, हमारे बिरोधकों को मारकीट कर महफिलें करनी पड़ती है।’’
‘‘तो क्या आप अपने विरोधकों को
मारपीट भी करते हो ।’’
‘‘अरे मेरे भाई ! जिनके यहां
डाका डालने का सुअवर हमें प्राप्त और वे इसमें बाधा लाए- विरोध करें तो क्या उससमय उन्हें मारपीट न करें तो और क्या
करे?’’
‘फिर आप डाका भी डालते हो?’’
‘‘अरे बन्धु मेरे ! जब जुआ खेलने
को जो आदत है इसके लिए पैसा कहां से लाए ? अत: डाका डालना अनिवार्य होता है।’’
‘‘हां तो फिर आप आभी खेलते हो, तो फिर भगवी कफनी किसलिए?’’
‘‘भई ! साधुत्व चिन्हांकीत यह
भगवी कफनी शरीर पर होने पर सभी कार्य बेमालम संपन्न होते हैं।’’
कहने का तात्पर्य यह है कि यह बात केवल अन्योन्य संबंध, दिखानेवाली है कि, जो एक भी दोष का मलीनत्व आने
पर वह दोषों की श्रृंखला कसे बन जाती है। यह प्रकृति का नियम है कि एक झूठ छिपाने के
लिए 100 झूठ बोलने पड़ते है ।
हमारे स्वामी श्री चक्रधर जी का वचन है अविधी घडनेपर अविधी घडता हैं। उपरोलिखित घटनाए कथानायीका के ऊपर सर्वप्रथम फूल ला देने की की ड्यूटी सौंपी गई, बस यहीं से सचमूच शूरुवात हुई है दोषों से लिम्पायमान होने की, और फिर आपत्ति पर आपत्ति आने की 'छिद्वेष्वनर्था बहुली भवन्ति ।' थोडे से ही जीवन काल में विकल्प दोषों का जाल कितना मजबूत एव कितना गहरा बन गया।
पुष्प-अगरबती बाती फूबलाती शनिदेवता को तेल अर्पण आदि आदि । तत्तपश्चात हिंसा
दोषों के और बीभत्स ऐसा मदिरा-अभक्ष्य इत्यादिकों का प्रत्यक्ष रुपेण स्वीकार करना
अपरिहार्य हो गया ।
इसमें सर्वप्रथम बड़ा दोष विकल्प का आचरण हुआ जिससे मलीनत्व आकर, परधर्म से पतीत होना, ईश्वर को खंत आना एवं सृष्टिशून्य होना आदि आदि । साथ में हिंसा दोषों का उल्लंघन होता हैं।
अगर देखा जाए तो मानवदेह मिलना और वह भी किसी नामधारक के घर में पैदा होना
यह उसी परमात्मा की असीम कृपा का वरदान है।
‘दुर्लभ राया संसारी मनुष्ये जन्म : तयामाजी दुर्लभ
वीवेक जान :
दुर्लभ श्री कृष्ण भक्ति
आणि तथा देवाचे सन्निधान : न पवीजे देवेवीण ॥”
और इसीलिए हमारे जयकृष्णी धर्म का
सच्चा नामधारक (वासनिक) स्वयं धर्मनिष्ठ होकर अपने परिवार में सब छोटे बड़ों को सज्ञानावस्था प्राप्त होने पर गुरुमंत्र
(उपदेश) देकर उनपर परधर्म के संस्कार जगाता है। फिर वे नाजुक कलियां अपने माता पिता रूपी वृक्ष की छाया में अनुकरण से संस्कार क्षम बनकर
धर्मा चरण की शुरुआत करते हैं, और ईश्वर परायण बनते हैं। पूजा-पाठ, पारायण-नाम स्मरण नित्यनेम
से करते हैं। और ईश्वर धर्म के सच्चे एवं दृढ अनुगामी बनते हैं।
जय श्रीचक्रधर - दंडवत प्रणाम