स्वादु और साधु का भेद -
महानुभाव पंथिय ज्ञान सरिता mahanubhav panth dnyan sarita
प्रश्न :-
संन्यासी के कितने प्रकार हैं ? संन्यास
लेकर अपने घरों में ही रहना यह साधुओं का कौन सा प्रकार है ? क्या ऐसा
संन्यास शास्त्र सम्मत है ?
उत्तर :-
शास्त्र विहित संन्यास के चार प्रकार हैं. प्रथम क्रमांक का
संन्यास सात्विक कहलाता है. जो बोध होते ही मतलब ज्ञान प्राप्ति के बाद तुरन्त ही जो
संन्यास धारण कर लेता है संसार की जिम्मेवारी कुछ नही मानता. तुरंत सन्यास धारण कर
लेता है ऐसा संन्यास त्याग सात्विक कहलाता है जो सबसे उत्तम प्रकार का सन्यास है त्याग
है..
दूसरे क्रमांक का संन्यास राजस होता है. ज्ञान प्राप्ति के बाद
भी जीव अपनी कुछ सांसारिक जिम्मेवारीयां समझता है उसे पूरी करके संन्यास धारण करता
है मगर स्त्री साधक 48 पुरुष साधक 56 के पहले पहले सन्यास धारण कर लेते हैं.
तीसरे क्रमांक का संन्यास
तामस होता है. ज्ञान होने पर संसार की ममता मोह में फँसा रहता, माया साथ
छोड़ देती है और परिवार के लोग कहना नहीं मानते अत: दुखी होकर संन्यास धारण करता है.
चौथे प्रकार का संन्यास अति तामस होता है ज्ञान होकर भी मनुष्य संन्यास नहीं लेता.कोड़ी
के दृष्टांत के अनुसार न तो उसके पास माया होती है, न परिवार के लोग ही उसे चाहते
हैं ना उसका शरीर साथ देता है अतः अत्याधिक दु:खी होकर वह संन्यास लेता है. प्रथम और
दूसरे क्रमांक के संन्यासी तन, मन, धन सर्वस्व प्रभु चरणों में अर्पित
करते हैं.
तीसरे क्रमांक के संन्यासी
का माया ने स्वयं त्याग किया होता है. वह सिर्फ तन और मन प्रभु चरणों में अर्पित करता
है. और चौथे क्रमांक के संन्यासी के पास न तो माया होती है न उसका परिवार उसे चाहता
है और न उसका शरीर ही साथ देता है. वह सिर्फ अपना मन प्रभु चरणों में अर्पित करता है.
उसके मन की दृढ़ता होती है मन में उसने निश्चय
किया होता है कि एक परमात्मा ही मेरा है और मैं परमात्मा का हूँ न मेरा कोई है न मैं किसी का हूँ. उपरोक्त चारों
ही प्रकार के त्याग शास्त्र सम्मत हैं, परमात्मा इन चारों के त्याग को स्वीकार
करते हैं.
अब जो संन्यास वेष धारण करके अपने घरों में ही रहते या सन्यास
आश्रम में लेते हैं लेकिन किसी भी कारण बस घर परिवार में वापस चले जाते हैं या घर पर
ही रहते हैं वह त्याग सन्यास शास्त्र सम्मत नहीं है. ऐसे लोगों ने न घर का त्याग किया
न परिवार का सम्बन्ध तोड़ा न माया की ममता ही छोड़ी फिर संन्यास किस बात का ? आज - कल
ऐसे संन्यासियों की संख्या बहुत अधिक बढ़ रही है. परमात्मा
को ऐसे संन्यास का स्वीकार नही हैं.
कुछ लोग तो घर पर ही रहते हुए सन्यास वेष धारण किया हुआ हे और
लोगों को निरूपण करते हैं आचार प्रकरण पढ़ाते हैं अपने अचार का तो अता पता नहीं लेकिन
लोगों को वैराग्य कैसे करना है आचार कैसे करना है यह पढ़ाते हैं आजकल ऑनलाइन पढ़ाई
होती है सब भाग प्रीति प्रेम श्रद्धा सब खत्म हो गया शास्त्र के प्रति जो क्रेज पहले
लोगों को था अब खत्म हो गया नियमों के विरुद्ध अगर कोई भी कार्य किया जाए तो बात बिगड़ती
ही है खैर हमें किसी का दोष नहीं लेना.
सन्यास धारण कोई भी करें हमारे गुरु जी कहते हैं फायदा तो सब को होता ही है और तीन फायदे तो जरुर होते ही हैं.
(मुंड - मुण्डाए तीन गुण, सिर की मिटे खाज.)
(खाने को लड्डू मिले)
(लोक कहे महाराज.)
सन्यास वेष धारण करने वाले संन्यासियों को शास्त्र दृष्टि से देखा जाए तो गृह संन्यास उचित नहीं है. ऐसा करने से धर्म की निन्दा होती है. लोग धर्म से विमुख होते हैं यह बड़ा भारी दोष पाप है. और भी लोगों की दिशा भूल होने का यह निमित्त होता है. उसको परमेश्वर नहीं मिलता सबसे बड़ा नुकसान उसका यह है उसको परमेश्वर नहीं मिलता.
सन्यास ले लिया इतना कुछ करने के बाद थोडा और घर परिवार का ममता
का अगर त्याग करता है तो परमेश्वर जरूर मिलेगा. घर पर रहते हुए मोह ममता का त्याग करना
बड़ा मुश्किल है. पैसा प्रॉपर्टी सुख साधन सब का त्याग करना पड़ता. तब जाकर परमेश्वर
की प्राप्त होते हैं.
साधु - स्वादु का भेद
हमारे स्वामी श्री महाराज ने बहुत अच्छे से साधु महात्मा के
लक्षण बताएं हैं अगर वह लक्षण किसी साधु महात्मा के अंदर नहीं दिखते तो वह साधु ना
होते हुए स्वादु है. यह पढ़कर सभी को लगेगा कि शायद हमारी दोष दृष्टि है इसलिए ऐसा
बोल रहा है. लेकिन ऐसा नहीं है. सभी साधु संत भजनीयें है पूजनीयें है सम्माननीयें है
पर शास्त्र के अनुसार जो बातें बताई हुई हैं मैं उनके बारे में थोड़ा सा डिटेल में
बताना चाहूंगा यह किसी पर्सनल व्यक्ति के लिए नहीं है ना ही किसी व्यक्ति को ध्यान
में रखकर पोस्ट लिखा है ये महाराज के सूत्रों के अनुसार साधु संतों के लक्षण बताए हुए
हैं वह बताने की कोशिश कर रहा हूं..
हम जो पढ़ते हैं सुनते हैं वैसा होता नहीं वैसा देखने को मिलता
भी नहीं साधु महात्मा किसको बोलते हैं उसके लक्षण क्या है. यह सब हमारी
ब्रह्मविद्या शास्त्र में और श्री गीता में बहुत विस्तार से बताया हुआ है. श्रीगीता जी में भगवान श्रीकृष्णचन्द्र महाराज जी ने श्री अर्जुन देव जी को बतलाया
है कि जिस व्यक्ति ने मुझे ही सब कुछ समझा है वह महात्मा इस संसार में अति दुर्लभ है.
अब प्रश्न उत्पन्न होता है कि- जो महात्मा संसार में अति दुर्लभ है उसको किस तरह पहचानना
चाहिए.
उसके लिए थोड़ी सी मेहनत करनी पड़ेगी थोड़े से हाथ पैर हिलाने पड़ेंगे थोड़ा सा दिमाग को जोर देना पड़ेगा थोड़ा सा शरीर को कष्ट देना पड़ेगा अगर कोई प्रश्न करें. क्यों पहचानना है साधु महात्मा को अच्छे ज्ञात विरक्त साधु महात्मा को उसके पीछे सबसे बड़ा कारण यह है कि हमें हमारे महाराज ने किसी ज्ञात और विरक्त व्यक्ति का संग करने के लिए बोला है मतलब हमने साधु महात्मा को अच्छे से जानकर फिर उसका संघ संगत करना है इसलिए हमने ऐसे ज्ञात विरक्त साधु महात्मा को जानना है.
साधु-संतों के कपड़े तो कोई भी पहन सकता है और सिर्फ कपड़े पहनने
से कोई महात्मा नहीं हो सकता इसका यह मतलब नहीं है कि कपड़ों का कोई महत्व नहीं है
कपड़ों का भी बहुत महत्व है लेकिन सिर्फ कपड़े बदलने से कोई महात्मा नहीं बन जाता महात्मा
शब्द का अगर अर्थ देखा जाए तो महान आत्मा ऐसी आत्मा बनने के लिए बहुत सारे नियमों का
पालन करना पड़ता है बहुत सारी मेहनत करनी पड़ती है बहुत सारी साधगी नम्रता धारण करनी
पड़ती है.
और श्रीगीता के बारहवें और तेरहवें अध्याय में महात्माओं के लक्षण विस्तार पूर्वक बतलाए हूए हे ब्रह्मविद्या शास्त्र में तो बहुत ही विस्तार पूर्वक महात्माओं के विषय में बतलाया हूआ है. अनेक कार्यों से महात्माओं की पहचान हो सकती है. श्री स्वामी बतलाते हैं कि- महात्मा वही है जो दुःख - कष्ट प्राप्त होने पर स्वयं इलाज नहीं करता, घबराता नहीं, दुःख कष्टों मे माँ - बाप को याद नहीं करता महात्मा वही है जो कि रोज भिक्षा मंगता हे. और - भिक्षा में जो भी पदार्थ आ जाए स्वाद की ओर ध्यान न देकर भगवान की आज्ञा समझकर प्राणों को आहार दे . ताजा हो, बासी हो एकत्र करके भोजन करे.
भोजन करते समय
किसी पदार्थ के स्वाद की चर्चा न करे. क्योंकि जिव्हा. यह चोरों का मार्ग है. एक जिव्हा
इन्द्रिय पर संयम करने पर सम्पूर्ण इन्द्रियों और उनके विषयों पर और शरीर पर संयम हो
जाता है जो भी व्यक्ति जिव्हा इन्द्रिय पर
संयम नहीं करता मन चाहा खट्टे - मीठे मिर्च मसाले वाले पदार्थों का सेवन करता है तो
समझना चाहिए कि - यह व्यक्ति इन्द्रियों का सेवक है, परमात्मा
का नहीं जो व्यक्ति जिव्हा इन्द्रिय पर संयम नहीं कर सकता वह दूसरी इन्द्रियाँ और उनके
विषयों पर संयम नहीं कर सकता जो साधक इन इंद्रियों को मुख्य इंद्री जीवा को अपने कंट्रोल
में करता है वही परमेश्वर को प्राप्त कर पाता है.
ब्रह्मविद्या शास्त्र में और भी बहुत सारे लक्षण बताए हुए हैं
जैसे महात्मा ने प्रिय बोलना चाहिए महात्मा ने हमेशा सत्य बोलना चाहिए महात्मा ने झूठ
कभी नहीं भूलना चाहिए महात्मा ने हमेशा नीति मार्ग पर चलना चाहिए महात्मा ने कभी भी
किसी का दिल नहीं दुखाना चाहिए महात्मा ने हमेशा संगी साथी को यथार्थ मार्गदर्शन करना
चाहिए इतने सारे लक्षण महात्मा के बताए हुए हैं और भी बहुत सारे हैं यह किसी के अंदर
अगर यह लक्षण नहीं है तो समझ लो वह सादु नही
स्वादु है....