श्रीदत्तात्रेय चरित्र हिंदी - जय कृष्णी धर्म
अवतार धारण करना- त्रेतायुग में महर्षि अत्रि अपनी पत्नी अनुसूया सहित बदरिकाश्रम के सुन्दर प्रदेश में निवास करते थे। सब प्रकार से सुखी होते हुए भी दम्पति पुत्र न होने से वे अत्यन्त दुःखी थे। एक दिन सती अनुसूया अत्यन्त उदा बैठी थी। क्योंकि उसने पुराण कथा में सुना था कि-
अपुत्राणां किल न सन्ति लोकाः शुभाः ।
पुनाम्नो नरकात्त्रायतः इति पुत्राः ॥
अर्थात पुत्रहीन प्राणी को स्वर्ग प्राप्त नहीं होता तथा पुंनाम के नरक से जो उबारता है, वही पुत्र कहलाता है। इससे वह अत्यंत दुःखी थी। ऋषि ने अपनी पत्नी अनुसूया को उदास देखकर समझाया देवी! हम इस योग्य नहीं हैं कि हम पर देवता कृपा करें। वास्वव में हमारा हृदय पुत्र के आलिंगन रूपी अमृतमय स्वाद के सुख का पात्र नहीं है। पूर्वजन्म में हमने पुण्य जैसे उज्वल कर्म नहीं किये थे। पहले जन्म में प्राणी जा कर्म करते हैं उनकाही फल उन्हें मिलता है। अनेक उपाय करने पर भी विधि का विधान बदला नहीं जा सकता।
फिर भी मनुष्य से जो हो सके वह सब तो करना ही चाहिए अतः हम दोनों आज से उस परमेश्वर की आराधना और भी अधिक लगन से करेंगे, क्योंकि परमेश्वर प्रसन्न होने पर अनार्जित फल भी दे सकते हैं।'पत्नी अनुसूया ने पति का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। दोनों पति पत्नी उस दिन से निरंतर परमेश्वर की आराधना में एकाग्रचित हो जुट गये। अन्त में उनकी भक्ति से प्रसन्न हो परमेश्वर ने उन्हें वर दिया- ऋषे। मैं स्वयं तुम्हारे यहां पुत्र रूप में अवतार धारण करूंगा चिन्ता मत करो। प्रभु कृपा से मार्गशीर्ष चतुर्दशी प्रातः महासती अनुसूया ने पुत्र रत्न
को जन्म दिया।पति-पत्नी पुत्र रत्न पाकर अत्यंत प्रसन्न हुए। उन्होंने पुत्र का नाम सैंग ऋषि रखा। यही हमारे चरित्र के चरित्र नायक हैं। आगे चलकर ही आप भगवान् श्री दत्तात्रेय नाम से प्रसिद्ध हुए।
देवल ऋषि का घमंड नाश तथा वर प्रदान करना-
देवल ऋषि नाम के एक मुनि थे। वे बड़े ज्ञानी तथा तपस्वी थे। अत्यन्त प्रखरतपस्या कारण उन्हें अत्यधिक अभिमान हो गया था। उन्होंने अपनी तपस्या के प्रभाव से एक बालू का लिंग बनाना प्रारंभ किया। इसके लिए प्रतिदिन वह एक मुट्ठी रेत वहां डाला करते। ऐसा करते करते लिंग काफी बड़ा हो गया। यह देख देवताओं को चिंता हुई। सभी देवताओं ने मिलकर भगवान् श्री दत्तात्रेय जी से प्रार्थना की- 'भगवन्! देवल ऋषि अपनी प्रखर तपस्या के प्रभाव से लिंग को स्वर्ग तक पहुंचाना चाहते हैं, अत: आप सैह्याद्रि पर्वत पर चलकर उनका अभिमान दूर कीजिये। दयानिधि भगवान् श्री दत्तात्रेय प्रभु ने उनकी प्रार्थना स्वीकार कर ली और वे देवताओं के साथ सैह्याद्रि पर्वत पर जा पहुंचे।
भगवान् श्री दत्तात्रेय प्रभु देवलऋषि के सम्मुख जा उपस्थित हुए, किन्तु देवल ऋषि घमंड वश अपने ध्यान में ही मस्त रह। उसने उन्हें प्रणाम तक नहीं किया। भगवान् ने उसके व्यवहार की तनिक भी परवाह नहीं की और उस स्थान पर पहुंच गये जहां बालू का लिंग बना हुआ था। आपने वहां जाते ही लिंग पर 'हाथ रखा। लिंग देखते ही देखते धरातल में समाने लगा। यह देख देवलऋषि ने प्रभु चरणों पर गिर प्रार्थना भरे स्वर में कहा-' प्रभो ! मैंने आपकी महिमा को न जान आपका अनादर किया है। अतः भगवन्! अब शेष इस लिंग को मेरी स्मृति रूप पृथ्वी के ऊपर ही रहने दीजिये। भगवान ने - तथास्तु ! कह देवऋषि को वर मांगने को कहा। देवल ऋषि ने विनयपूर्वक कहा प्रभो! आप यही कृपा कीजिये कि जब तक आपका अवतार है तब तक आप रात को यहीं निद्रा किया करें। बस, यही मुझे वर प्रदान कीजिये। प्रभु ने उसकी विनती स्वीकार कर, वहीं निद्रा करने का वरदान दिया। आज भी भगवान् श्रीदत्तात्रेय वहीं (देव-देवेश्वर, माहोर) में निद्रा करते हैं। ऐसा अन्य ग्रन्थों में वर्णित है।
राजा अलक से भेंट-
राजा अर्लक अपने समय का एक प्रसिद्ध राजा था। वह सभी शुभ गुणों से अलंकृत था। वह सदैव प्रजा पालन में तत्पर रहता। वह शूरवीर तथा प्रतापी था। उसने अपने सभी शत्रुओं को पराजित कर रखा था। किन्तु - दैवि विचित्रा गति:- इस कहावत के अनुसार उसके एक शत्रु ने असंख्यात सेना से सुसज्जित हो उस पर आक्रमण कर दिया। भाग्य विपरीत हो जाने के कारण राजा अर्लक उससे पराजित हो भागता हुआ वन में जा छिपा।
आधिदैविक, आधिभौतिक तथा आध्यात्मिक तीनों तापों से दग्धायमान राजा अलक अनेक ऋषि-मुनियों के आश्रमों में आत्मिक शान्ति के लिए घूमा, किन्तु कहीं भी उसे शान्ति प्राप्त न हुई। अन्त में वह भटकता हुआ सैह्याद्रिपर्वत पर जा पहुंचा। उसी समय सामने से भगवान् श्री दत्तात्रेय प्रभु उसी ओर आते दिखाई दिये।
कटि प्रदेश में अमूल्य पीताम्बर, गले में मणियों की माला, चरणों में पादुकायें और कन्धे पर बहँगी, ऐसी प्रभु की आकर्षक श्रीमूर्ति देखते ही उसे आत्मिक शान्ति अनुभव हुई। भगवान् श्री दत्तात्रेय जी ने तभी तीनों तापों से दग्ध राजाअर्लक से अपनी अमृत बर्षिणी वाणी से कहा-'राजन् ! भय मत करो, भय मत करो। " प्रभु के अमृत भरे वचनों का श्रवण करते ही उसके तीनों ताप नष्ट होगये । हृदय अनुपम शान्ति से भर उठा राजाअर्लक ने श्री चरणों पर साष्टांग प्रणाम कर अपने को धन्य माना और वहीं संन्यास ग्रहण किया।
रूचिक ऋषि को वरदान देना:-
त्रेतायुग में रूचि ऋषि नाम के अत्यन्त तेजस्वी मुनि थे। उन्होंने अत्यन्त प्रखर तपस्या की। अपने आयु का लगभग सम्पूर्ण भाग उन्होंने तपस्या में ही व्यतीत किया था। किन्तु भाग्य की गति कोई नहीं जानता । वृद्धावस्था में हीऋषि को विवाह करने की इच्छा उत्पन्न हुई। ऋषि तत्कालीन राजा के पास गये और कहा-' राजन् ! मै विवाह करना चाहता हुँ अतः अपनी कन्या का विवाह मुझसे कर दीजिये राजा के सम्मुख बडा ही भयंकर संकट उपस्थित हो गया। क्योंकि ऋषि वृद्ध थे। वृद्ध व्यक्ति के साथ युवा पुत्री का विवाह करना सरासर अन्याय था। नकारात्मक उत्तर देने पर ऋषि शाप दे देंगे-यह सोच राजा बडा चिंतित हुआ। अन्त में कुछ सोचकर राजा ने उत्तर दिया- 'मेरी एक शर्त है कि यदि आप एक जैसें पांच सौ शामवर्ण के घोडे ले आओगे तो मैं अपनी रूपवती कन्या का विवाह आपके साथ कर दूंगा।
ऋषि ने राजा की शर्त स्वीकार की और भगवान् श्री दत्तात्रेय को प्रसन्न करने के लिए सह्याद्रि पर्वत पर जा कठिन तपस्या प्रारम्भ की। भगवान श्री दत्तात्रेय जी ने प्रसन्न होकर वर मांगने के लिए कहा। ऋषि ने अपना मनोरथ प्रकट किया तो भगवान श्री दत्तात्रेय जी ने कहा- - तुम्हें पांच सौ शामवर्ण के घोडे मिल जायेंगे, घोडे तुम्हारे पीछे -पीछे चले आयेंगे किन्तु तुम पीछे मुड़कर न देखना। वरदान से प्रसन्न हो ऋषि आगे बढे चले जा रहे थे और पांच सौ घोडे पीछे-पीछे छुन छुन आवाज करते चले आ रहे थे। किसी भी आश्यर्च रूप कार्य को देखने के लिए मानव मन उतावला होता है। मार्ग में ऋषि से भी न रहा गया और उसने पीछे मुडकर देखा तो वे पांच सौ घोडे पत्थर के बन गये। राजा की शर्त पूरी नहीं हुई, यह जान ऋषि विवाह का विचार छोड पुन: अपनी तपस्या में लीन हो गया।
यदुराजा को ज्ञान देना:-
राजा यदु त्रेतायुग में सर्वगुणों से सम्पन्न तथा महान् प्रतापी एक राजा था। उसका यह प्रण था कि सिवा भगवान् के वह किसी के आगे मस्तक नहीं झुकायेगा। एक दिन भगवान् श्री दत्तात्रेय जी ने उसे दर्शन देकर अपना अमूल्य ब्रम्ह विद्या ज्ञान का उपदेश किया। उपदेश श्रवण के पश्यात् राजा यदु ने श्री चरणों पर साष्टांग प्रमाण किया। प्रभु से क्षमा मांग सब राज पाट त्याग दिया और उसने प्रभु से संन्यास दीक्षा ग्रहण की।
सहस्त्रार्जुन को वरप्रदान ये लीला पढने के लिए निचे दी गई लिंक पर क्लिक करे 👇
https://knowledgepanditji.blogspot.com/2023/06/sri-dattatreya-charitra.html
🌺