सहस्त्रार्जुन को वर प्रदान:-
त्रेतायुग में ही यदुवंश में एक प्रतापी राजा कृतवीर्य हुआ । माहिष्मती उसकी राजधानी थी। राजा कृतवीर्य का पुत्र कार्तवीर्य था। जो दोनों हाथों से टुंडा था। उस समय का यह राजनियम था कि अंगहीन व्यक्ती राज्याधिकारी नहीं बन सकता। अत: कार्तवीर्य ने अपना सम्पूर्ण राज्य अपने प्रधानमंत्री को सौंपकर उसे कहा- “आप तब तक इस राज्य का प्रबंध करें जब तक मैं हाथ प्राप्त कर न लौटूं।” मंत्री की स्वीकृति पर राजा वहां से चल पडा।
अनेक ऋषि-मुनियों के आश्रमों में वह गया किन्तु कहीं भी उसकी इच्छा पूर्ण न हुई। अन्त में हारकर वह सैह्याद्रि पर्वत पर पहुंचा तो उसे कुछ मानसिक शांति अनुभव हुई। वह उस दिन से वहीं श्री दत्तात्रेय भगवान् जी की सेवा में दत्तचित्त हो गया। बडी लगन से उसने प्रभु की सेवा करनी प्रारम्भ की। उसका दैनिक कार्यक्रम था कि जब भगवान् श्री दत्तात्रेय स्नान कर आते तब वह उनकी जटाओं को सुगंधित करने के लिए अंगारों पर धूप डालकर धूप देता।
कुछ दिन इसी प्रकार व्यतीत हुये। एक दिन जब भगवान् श्री दत्तात्रेय जी स्नान कर लौटे तो कार्तवीर्य अंगारों के लिए अंगार-पात्र ढूंढने लगा। किन्तु बहुत ढूंढने पर भी वह उसे न मिला। जटायें सूख जाने से धूप का कुछ लाभ न होगा यह जान कार्तवीर्य ने अंगार- पात्र की खोज छोड़ अपने टुंडे हाथों पर ही अंगारे रख लिये और उन पर धूप डाल,धूप देने लगा |
अंगारों की प्रखरता के कारण उसके टुंडे हाथों की चमडी जल उठी। उसकी बदबू आते ही भगवान् दत्तात्रेय जी ने पीछे मुडकर राजा कार्तवीर्य से कहा- ' राजन् इसे त्याग दो, त्याग दो। तुम्हारी भक्ति से हम तुम पर प्रसन्न हुये हैं जो चाहे वर मांग लो। ' प्रभु के ऐसा तीन बार कहने पर तीनों बार ही कार्तवीर्य ने अपने दोनों हाथ आगे किये, जिसका तात्पर्य हाथों की प्राप्ति थी।
अन्त में श्री दत्तात्रेय प्रभु ने उसे वर प्रदान करते हुए कहा- 'राजन् जाओ तुम्हें सहस्त्र भुजायें प्राप्त होंगी। तुम्हारा सहस्त्रार्जुन नाम होगा। लोगों की मनोभावना को जानकर उनके मनोरथपूर्ण करोगे। चक्रवर्ती सम्राट् बनोगे और सहस्त्र वर्ष राज्य करोगे। किन्तु गौहत्या, ब्रम्हहत्या तथा स्त्री हत्या इन तीनों का त्याग आवश्यक है। जब भी ये तीनों कार्य तुमसे होंगे, तभी अपना नाश समझो।
इस प्रकार भगवान् श्री दत्तात्रेय जी से वरदान पाकर राजा कार्तवीर्य अपने राज्य में लौट आया और सुचारू रूप से राज्य चलाने लग पड़ा। सहस्त्रार्जुन का नाश-
' दैवी विचित्राः गति :- इस उक्ति के अनुसार एक दिन राजा सहस्त्रार्जुन शिकार के लिए रिद्धपुर के विशाल वन में अपनी सम्पूर्ण सेना सहित चला गया। दोपहर का समय था। प्रखर सूर्यातप के कारण राजा सहित सभी सैनिकों को प्यास लगी। किन्तु पास में पानी न था। प्यास से सभी व्याकुल थे। पानी की खोज करते-करते वे जमदग्नि ऋषि के आश्रम में जा पहुंचे। उस समय जमदग्नि ऋषिअपनी पत्नी (एकबीरा) रेणुका के साथ शतरंज खेल रहे थे।
राजसेवक ने वहां पहुंचकर प्रार्थना भरे स्वर में ऋषि से राजा के लिए जल की याचना की। एकबीरा जो वास्तव में देवता का ज्ञान विग्रह थी, उसने अपने कान का मैल निकाल दोने में रख उसे जल से भरकर सेवक से कहा- 'जाओ ! जहां यह जल गिरेगा वहीं तालाब बन जायेगा। कुछ दूरी पर उस जल के गिरने पर वहां एक विशाल तालाब बन गया। सभी सेना सहित राजा ने जल ग्रहण किया ।
राजा ने सेवक से पूछा- यहां पहले जल नहीं था, अब कहां से आ गया ? सेवक ने इत्थंभूत सब वृतान्त सेवा में निवेदन किया। यह सुन राजा ने कहा- यह ऋषि सामर्थ्यवान हैं अत: इससे भोजन की भी याचना करनी चाहिए। राजा ने सेवक को पुनः ऋषि के आश्रम में भोजन के लिए भेजा। सेवक ने ऋषि के आश्रम में जाकर भोजन की प्रार्थना की। ऋषि ने कहा- 'जाओ! आप लोग स्नान कर आओ भोजन तैयार मिलेगा।
इधर सैनिक स्नान में प्रवृत्त हुए उधर जमदग्नि ऋषि ने इन्द्र की गौ कामधेनु का आह्वान किया। कामधेनु ने देखते-ही-देखते सभी पदार्थ उपस्थित कर दिये। राजा सहित सभी सैनिकों ने यथेष्ट भोजन किया। भोजनोपरान्त राजा सहस्त्रार्जुन ने ऋषि को पूछा- 'इतने सुमधुर पकवान्न आपके पास कहां से आये ? '
प्रत्युतर में ऋषि ने कामधेनु के प्रताप का वर्णन किया जिसे सुन राजा ने कहा-'ऐसी गौ तो हम जैसे राजाओं के पास होनी चाहिए, तुम जैसे ऋषियों के पास नहीं। अतः तुम इसे हमें दे दो ।" ऋषि का उत्तर था - राजन् ! यह इन्द्र लोक की गौ कामधेनु है। यह आप लोगों के पास नहीं रह सकती। यदि आप जबरन ले जाओगे तो पछताओगे और न यह आपके साथ जा पायेगी ।
राजा ने ऋषि का कहना नहीं माना। वह गौ को मार-मारकर जबरन ले जाने के लिए प्रवृत्त हुआ, तो कामधेनु ने वहां मल-मुत्र विसर्जन किया, जिससे असंख्यात सेना उत्पन्न हुई। राजा की सेना के साथ उसका घमासान युद्ध हुआ। गौ की सेना के सम्मुख राजा की सेना ठहर न सकी और भाग खडी हुई।' यह सब इस ब्राम्हण ऋषि की ही करतूत है। अत: इसे दंड देना चाहिए।" यह सोच राजा ने ऋषि पर प्रहार किया। पति पर किये गये प्रहार को देख रेणुका पति को बचाने सामने आई तो राजा ने उस पर भी प्रहार किया, जिससे वह भी घायल होकर गिर पडी ।
जमदग्नि ऋषि का पुत्र परशुराम उस समय कैलास पर्वत पर शंकर जी के पास विद्दाध्ययन कर रहा था। घायल माता रेणुका ने चिल्लाकर कहा- बेटा परशुराम ! दौडो, मुझे बचाओ, मेरी हत्या की जा रही है। 'महादेव ने परशुराम से कहा- ‘परशुराम! जाओ तुम्हारी माता संकट में है, वह तुम्हे पुकार रही है।" महादेव कि आज्ञा के अनुसार परशुराम माता के पास पहुंचा। माता ने सम्पूर्ण वृतान्त उसे कह सुनाया। परशुराम ने तभी प्रतिज्ञा की माता! तुम्हारी इक् कीस चोटों के अनुसार मैं इक् कीस बार क्षत्रियों रहित पृथ्वी करूंगा।
अपना तथा पति का अन्तिम संस्कार करने के लिए रेणुका ने परशुराम को आज्ञा की - " बेटा परशुराम | श्री दत्तात्रेय प्रभु को आचार्य पद प्रदान कर उनकी आज्ञा के अनुसार कोरी भूमि में हमारा अन्तिम संस्कार करना । 'परशुराम ने पूछा-' माता! मैंने कभी दत्तात्रेय प्रभु के दर्शन ही नहीं किये हैं, मैं कैसे उन्हें पहचान पाऊंगा।' माता रेणुका ने प्रत्युत्तर में कहा- बेटा! उनके दर्शन मात्र से निर्जीव प्राणी भी सजीव हो उठते हैं। उनके देखते ही तुम्हारी सूखी बहँगी हरी हो उठेगी, उसमें अंकुर फूट पडेंगे। यह कह माता ने प्राण त्याग दिये।
श्री दत्तात्रेय प्रभु का आचार्यत्व स्वीकार करना- परशुराम ने माता-पिता के पार्थिव शरीरों को बहँगी के दोनों ओर रखा और दत्तात्रेय प्रभु के दर्शनार्थ चल पड़ा। वह अनेक स्थानों पर गया किन्तु कहीं भी सूखी बहँगी हरी न हुई। अन्त में जब वह सैह्याद्रि पर्वत पर पहुंचा तब सामने से श्री दत्तात्रेय प्रभु को पारधी वेश धारण किये हुये कुत्तों के साथ आते हुये उसने देखा ।
प्रभु की अत्यंत आकर्षक तथा मनमोहक श्रीमूर्ति को देख परशुराम ने अपनी बहँगी की ओर देखा तो वहां सूखी बहँगी में हरे-हरे दो अंकुर दिखाई दिये। यही श्री दत्तात्रेय प्रभु हैं। यह निश्चय कर उसने बहँगी नीचे रखी और झट श्री दत्तात्रेय प्रभु के चरण पकड़ लिये। प्रभु ने प्रतिकार किया। किन्तु परशुराम न चरण न छोडे। अन्त में परशुराम का अत्यन्त आग्रह देख श्री दत्तात्रेय प्रभु ने दत्तात्रेय होना स्वीकार किया। परशुराम ने प्रार्थना भरे स्वरों में उन्हें कहा-"प्रभो । मां की आज्ञा है कि आपके आचार्यत्व में संस्कार किया जाय। अत: आज्ञा प्रदान कर कृतार्थ करें।
परशुराम की प्रार्थना पर भगवान् श्री दत्तात्रेय जी ने कहा- ' परशुराम! इनके संस्कार के लिए सर्व तीर्थों के जल की आवश्यकता है।' परशुराम का उत्तर था- 'भगवान! आपके श्री चरण ही तो सर्वतीर्थ हैं।' तब प्रभु ने वहीं बाण के प्रहार से जल निकालने के लिए कहा-परशुराम के वैसा करने पर श्री दत्तात्रेय भगवान् ने उस जल में अपना श्री चरण डुबोकर जल को सर्वतीर्थों के जल के समान पवित्र कोरी बनाया।आचार्य पद धारण कर प्रभु ने परशुराम से अन्तिम संस्कार कराये। भूमि में संस्कार कराकर कहा- 'देवी ! आज से सर्वत्र तुम्हारा सम्मान होगा।”
श्री दत्तात्रेय प्रभु के इस वरदान से आज भी हजारों लोग सांसारिक मनोकामनापूर्ति के लिए वहां जाते हुए दिखाई देते हैं। भगवान् श्री दत्तात्रेय प्रभु ने इस प्रकार असंख्यात जीवों का उद्धार किया है और आज भी वे मेरूवाला में स्नान, कोल्हापुर में भिक्षा, पंचालेश्वर में भोजन तथा माहोर में निद्रा करते हैं।
॥ श्री चक्रधरः शरणम् ॥