सत्य का अनुभव - satya ka anubhav

सत्य का अनुभव - satya ka anubhav

 सत्य का अनुभव 

सत्य को समजने के लिए अनुभव 

अक्सर लोग समझते है कि भगवान एक विचित्र पहेली है. कोई कहता है भगवान उपर है, कोई कहता है भगवान मंदिर में है, कोई कहता है भगवान हमारे मन में है... अब समझने में दिक्कत हो जाती है कि 'सत्य' क्या हैं? और इस सत्य को समझने के लिए भगवान ने मनुष्य को एक वस्तु दी है । वह है 'अनुभव'.

'अनुभव' एक ऐसी वस्तु है, जिसके जरिए मनुष्य को सरलता से समझाया जा सकता है. जैसे कि किसी को समझाना पड़े कि हवाई जहाज में बैठने का क्या आनंद है? तो उस आनंद की व्याख्यापर आप २००-३०० पन्नों की किताब सरलता से लिख सकते है. लेकिन यदि उस व्यक्ती को आप किताब ना दे उसे सीधा हवाई जहाज में बिठा दें फिर तो आपको एक पन्ना भी लिखने की जरूरत नहीं पड़ेगी. 

उसे हवाई जहाज में बैठ स्वयं ही उस आनंद का अनुभव हो जाएगा. परंतु जिस चीज का हम अनुभव नहीं कर सकते और उस आनंद की परिभाषा भी जानने की लालसा रखते हो, तो उसके लिए तो हमें उस माध्यम तक पहुँचने के लिए पढ़ना ही होगा ना? और वही पढ़ने का माध्यम 'जागतिक महानुभाव संघ' आप तक पहुँचाने का प्रयास कर रहा है. जिसमें मेरा सौभाग्य है कि कुछ लेखन करने का मंगल अवसर मुझे भी प्राप्त हुआ है....

एक समय आएगा कि बैलगाडी नहीं रहेगी. आप बैलगाडी का मतलब आप समझते है. बैलगाडी का नाम लेते ही 'बैल' और 'गाड़ा' ये दोनो चीजें आपके ख्याल में आ जाती हैं. लेकिन एक समय ऐसा आएगा, जब आने वाली पिढ़ियाँ पूछेंगी,' बैलगाड़ी कैसी होती है?' मतलब इस प्राचीन सत्य को जीवित रखना, ख्याल में महानुभाव दर्शन रखना पडेगा, तभी तो पीढ़ी को सत्य बता पाएंगें. 

उसी प्रकार आज हम भी हमारे मुख्य सत्य से दूर होते जा रहे है... समझिए. जैसे आपका इस पृथ्वी पर होना, आपके सगेसंबंधी, आपकी धन-दौलत... इन सबको आप सत्य मानते है; परंतु यह सत्य नहीं हैं. सत्य यह है कि आपका यहाँ इस पृथ्वीपर होना यह थोड़े समय के लिए ही है, आपके सगे संबंधी भी कुछ समय तक ही आपके है, आपकी धन- दौलत भी नाशवान है.

“पानी केरा बुदबुदा : अस मानुस की जात । 

एक दिन छिप जाएगा : ज्यों तारा परभात।। "

बस! एक बुलबले की भाँति मनुष्य का होना. धन-दौलत...इ. सब सत्य है. बल्कि सब मिथ्या. जैसे हम दूध में अगर खट्टा लगा कर उसका दही जमाते हैं. दही को बिलो, उसमें से मक्खन निकालते है. 

मक्खन को गरम करे, तो उसमें से घी निकल आता है. लेकिन यही प्रक्रिया अब उल्टी करें तो क्या घी ठण्डा होकर दुबारा मक्खन बनेगा? अगर वहीं मक्खन दुबारा एक जगह रख दें तो क्या वह पुनः दही बनेगा? दूध हिले ना, इसलिए एक बरतन में डाल उसका दही जमाया था, यदि उसे हिलाते-डुलाते रहें, तो क्या वह पुनः दूध बनेगा? दूध-दही-मक्खन-घी यह प्रकृति का नियम हैं.

इसी बात को, इस 'सत्य' को हमें समझना आवश्यक है. इस जीवनरूपी यात्रा में हम जो-जो कदम आगे ले रहे है, हम उन्हें वापिस पीछे नहीं ले सकते. एक समय था जब हम बच्चे थे. समय के चलते-चलते हम जवान हो गए. एक समय ऐसा आएगा जब हम वृद्ध होंगे... लेकिन इसी समय को हम पुनः बचपन में नहीं ले जा सकते. जो बीत गया सो बीत गया, उसको हम वापिस नहीं ला सकते.  

यहाँ समझने की मुख्य बात यह है कि, हमारे लिए एक-एक दिन मायने रखता है. एक दिन याने २४ घंटे. एक घंटा याने ६० मिनट. ७ दिन का सप्ताह. ३० दिनों का एक महिना और १२ महिनों का एक साल बनाते है हम जिस दौरान हमारी जीवनयात्रा का समय चलता ही रहता है. लेकिन हमें इस बहते समय के साथ यह जानना आवश्यक है कि असली 'सत्य' क्या है? असली ' सत्य' ६० सेकंड, एक घंटा, एक दिन नहीं है. असली 'सत्य' है 'श्वास'. 

एक श्वास जो अंदर महानुभाव दर्शन आ रही है हमारे और एक स्वॉस जो बाहर जा रही है. जिस तरह घड़ी की सेकेंड सुई आगे बढ़ अपना मिनट पूरा करती है और चलते-चलते २४ घंटे पूरे हो जाते है. लेकिन बीते हुए २४ घंटे पुनः वापिस नहीं आते. अब जो निकल गया, उसमें हमने क्या कमाया? घर, गाड़ी, धन-दौलत? क्या यह जाएगा हमारे साथ? यह 'सत्य' तो नहीं हैं हमारे जीवन का. असली कमाई जो हमारी है और जो हम इस शरीर को छोड़कर भी साथ लेकर जाएंगे वह है सिर्फ हमारे संत और असंत कर्म. अब यह 'सत्य' जानने की जरूरत है. हमने अब तक की उम्र में क्या अधिक कमाया ? संत या असंत?

इस सत्य को जानने का बेहद सुंदर प्रयोग है. जरा सोचिए, एक दिन में आप अपनी समस्याओं का चिंतन अधिक करते हैं, अपने परिवार, बिझनेस को तरक्की पर ले जाने का चिंतन अधिक करते हैं या भगवान का चिंतन अधिक करते हैं?

जबाब सरल है, विचार करने की आवश्यकता ही नहीं. हम अधिक चिंतन अपनी समस्याओंका ही करते है. ना कि परमेश्वर का... अब सारा दिन हम चिंतन ही जब 'समस्याओं का करते है. उसी का हमे अभ्यास हो जाता है. अब जिस चीज का अभ्यास हो, मन में चिंतन ध्यान तो हमेशा उसीका रहेगा ना? लेकिन चिंताओं का चिंतन करना तो 'सत्य' नहीं है जीवन का. हमारे जीवन का 'सत्य' तो 'ईश्वर' का चिंतन करना है. लेकिन उस ईश्वर का चिंतन करने के लिए ईश्वर को जानना आवश्यक है. अगर हम जानते ही नहीं है, तो चिंतन कैसे संभव होगा? उस अनुभव का एहसास करने के लिए कुछ जानकारी परम + ऐश्वर्य = संपन्न परमेश्वर को जानना आवश्यक है.

अगर मैं आपसे कहूँ कि एक व्यक्ति को ढूँढ के ले आओ। जिसके ना तो हुलिये का वर्णन किया मैंने आपको, वह कहाँ हैं? कहाँ मिलेगा? कैसा दिखता है? कुछ भी नहीं बताया आपको, तो आप उस व्यक्ति को ढूँढकर मेरे पास लाओगे कैसें? उस व्यक्ति को ढूँढ़ने के लिए आपको उसके बारे में कुछ पता होना आवश्यक है. ठीक इसी प्रकार परमेश्वर का चिंतन करने के लिए भी हमें उसे जानना, पहचानना आवश्यक है. परमेश्वर को जान, उनके कैवल्यपद के अनुभव की चाह उत्पन्न करना आवश्यक है.

और इस अनुभवरूपी 'सत्य' चाह को हमें अभी से ही उत्पन्न करना आवश्यक है. सच्ची श्रद्धा हृदय में जागृत करना आवश्यक है. छल, कपट को हृदय से दूर करना आवश्यक है. बहुत सुंदर पंक्तियाँ है,....

"मन मंदिर में गाफिला, झाडू रोज़ लगाया कर। 

प्रेमी बनकर प्रेम से, ईश्वर के गुण गाया कर."

दर्पण जैसी सत्यता दिखानेवाली पंक्तियाँ है. एक बेहद सुंदर उदाहरण दिया है। हमारे साधनदाता श्रीचक्रधर स्वामीजी ने- अगर किसी एक स्थानपर कोई अपना सामान रख वहाँ बैठा हुआ है, तो भले ही वहाँ राजा स्वयं क्यों ना आ जाए. राजा भी वहाँ नहीं बैठ सकता. जब तक पहले बैठा हुआ व्यक्ति वहाँ से अपना सामान उठा कहीं और नहीं चला जाता. उसी प्रकार जब तक हम अपने मन से झूठ, छल, कपट जैसा भाव नहीं निकाल देते तब तक 'सत्य'रूपी चाह भी निर्माण होना संभव नहीं हैं। क्योंकि जहाँ झूठ, दिखावा, छल है वहाँ सत्य टिक ही नहीं सकता और जहाँ सत्य नहीं है, वहाँ भला ईश्वर के प्रती सत्यता भाव कैसे जागृत हो सकता है? सत्यभाव मतलब निष्कामरूपी श्रद्धा. सिर्फ कष्ट दूर करने के लिए चिंतन नहीं करना, बल्कि परमानंद प्राप्त करने के लिए चिंतन का अभ्यास करना है.


चिंतन करने के लिए सिर्फ हाथ में माला होना किसी काम का नहीं है. कोई फायदा नहीं है..

'माला फेरत जग भया, फिरा ना मन का फेर । 

कर का मनका डार दे, मन का मन का फेर।।'

अब तक 'उपदेश' ले हम गाड़ी खींचते आगे चलाते जा रहे है. आज हमारा श्रेष्ठ 'श्री जयकृष्णी धर्म' जो सिर्फ कुछ चंद विधियों परही अज्ञानता में जाता जा रहा है. आज इस महानुभाव दर्शन मासिक के जरिए उस अज्ञानता को दूर कर परंपरा में चल रही गतीविधी 'जप करता है... तुम करता है, हम करता...' इस प्रकार पीछे से आई और आगे धकाई ऐसा ना हो ज्ञानयुक्त विधी को स्वयं आचरण में लाया ज्ञानयुक्त विधि ही आगे अपनी पीढ़ी की सौंपने का प्रयास हमें करना है. याने 'सत्य' का अनुभव कर उस परम आनंद को प्राप्त करना है. केवल मालारूपी मन का ना फेर, मन रूपी 'सत्यता' का मन का फेरना है.

ईश्वरमार्गानुचर त. कृतिका बाईजी पंजाबी


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