दुख और अशान्ति के 3 कारण - Dukh aur ashanti ke 3 Karan
आजकल अधिकतर सांसारिक लोग यही पूछते हैं कि- बाबा जी ! परमात्मा की कृपा से घर में किसी प्रकार की कमी नहीं है परन्तु फिर भी सुख-शान्ति नहीं है, क्या करें? वैसे तो सुख - शान्ति भंग होने के कई कारण हैं।
1) एक तो अज्ञानता वश सम्बन्धियों के लिये मनुष्य अपनी सारी जिन्दगी बर्बाद कर देता है, आगे चल कर यदि औलाद न हो तो दुःख, औलाद हो परन्तु आज्ञा धारक न तो दुःख।
2) दूसरा धन कमाने में सारा जीवन गुजर जाता है, यदि वह धन हाथ से निकल जाए, तो दुःख होता है।
3) तीसरा जिन रिश्तेदारों को खूब दिया, खिलाया - पिलाया। यदि वे पास में न आएं, तो भी दुःख होता है, यदि आ जाएं तथा हमसे खिलाया-पिलाया न जाए और वे नाराज़ होकर चले जाएं, तो भी दुःख होता है। मतलब दुःख तो पक्का है ही। ये करो तो दुःख, वो करो तो दुःख, करो तो दुःख, न करो तो दुःख । ऐसा दुःख से त्रसित् व्यक्ति सोचता ही रह जाता है कि- आखिर जाएं, तो जाएं कहाँ? क्योंकि दुःख एक ऐसी अवस्था है, जिसके प्राप्त होने पर सुख - शान्ति बिना कहे ही देश निकाला ले लेती है।
परन्तु निराश न होकर, विचार- विवेक से काम लें। दुनियां में ऐसा कोई भी रोग नहीं है, जिसका इलाज न हो। जैसी बीमारी होती है, उसके अनुरुप इलाज करने से ही वह रोग कटता है। आजकल साईस ने नाना प्रकार के क्षेत्रों में बहुत ही उन्नति की है परन्तु उसने ऐसा इलाज अभी तक नहीं खोज निकाला कि - डॉक्टर के औषधि खाने से रोगी रोग मुक्त ਵਿ हो सके।
उपरोक्त बतलाए हुए दुःखों के प्रकारों में से पहले प्रकार का दुःख यदि हो तो, विचार करें कि पहले जन्म का कर्जा हमारे ऊपर इनका था, दिया गया। अब हम कर्ज-मुक्त हो गए हैं। अच्छा हुआ इन लोगों से किनारा हुआ। अब हम हमारे परम प्यारे प्रभु की भक्ति निश्चिन्त होकर कर सकेंगे। यह रिश्तेदारी ही तो धर्म में आगे नहीं बढ़ने देती है।
दूसरे प्रकार का दुःख है, तो सोचें- समझें कि - अच्छा हुआ कि - धन रुपी जो ज़हर हमारे पास था, परमात्मा की कृपा वह नष्ट हुआ है। द्रव्य जैसा धर्म का नाश करने वाला संसार में दूसरा कोई पदार्थ नहीं है। द्रव्य के सहारे से ही मनुष्य दुनियाँ के सारे पाप कर बैठता है, सभी प्रकार की बुराईयाँ उसमें आ सकती हैं।
तीसरे प्रकार से यदि दुःख है, तो भी विचार करें कि- इन्हीं रिश्तेदारों की ममता से ही अर्जुन अपने कर्तव्य कर्मों से विमुख होकर भगवान श्रीकृष्ण जी की आज्ञा भंग करने के लिये तैयार हो गया था। कितना बड़ा भारी पाप था, जिसे करने में अर्जुन ने कुछ भी सोच-विचार नहीं किया। यह सब रिश्तेदारी करके होने वाला था। सम्बन्धियों की (स्त्री- पुत्रों की) ममतावश ही तो कबूतर ने अपने प्राण गंवाए थे।
राजा यदु ने भी इसी प्रकार का प्रश्न श्रीदत्तात्रेय महाराज के सामने किया था कि - हे प्रभो ! मैं तो आज तक यही सोचता था कि- संसार में द्रव्य - सम्पत्ति, भोग- पदार्थों विषय-विकारों में ही सुख है परन्तु आज तक का मेरा विचार गलत दिखाई दे रहा है। क्योंकि आपके पास इस प्रकार की सांसारिक वस्तुओं का अभाव होते हुए भी आप आनन्द से परिपूर्ण दिखाई दे रहे हैं। फिर उस समय राजा यदु का श्री दत्तात्रेय प्रभु ने चौवीस गुरु आख्यान का उपदेश दिया और उसके इस प्रश्न के उत्तर में बतलाया कि मैंने कबूतर को गुरु मान कर उससे शिक्षा ग्रहण की है।
श्री दत्तात्रेय प्रभु ने कहा कि किसी जंगल में एक कबूतर बड़ी सुख - शान्ति के साथ जीवन व्यतीत कर रहा था। एक दिन वर्षा, आँधी और तूफान से एक कबूतरी का घर नष्ट हो गया। वह सर्दी से काँपती हुई कबूतर के पास आई तथा गिड़गिड़ा कर प्रार्थना की कि - वर्षा के कारण मेरा घर नष्ट हो गया है, वर्षा का निवारण होने के उपरान्त मैं अन्यत्र चली जाऊंगी। परन्तु कबूतर ने कहा कि- स्त्री की संगती से सुख - शान्ति का भंग होकर नाना प्रकार की आपत्तियाँ उपस्थित हो जाती हैं अत: हाथ जोड़ कर माफी माँगी। परन्तु ने रोते हुए कहा कि मुझे जीवन दान दीजिये, मैं तो बिना मौत के मर जाऊँगी। कबूतर को दया आ गई, उसने कबूतरी को आश्रय दे दिया। परन्तु थोड़ी देर के सम्पर्क से तथा दोनों में ममता पड़ जाने, वे दोनों एकत्र रहने लग गए। योग से कबूतरी ने दो बच्चों को जन्म दिया, उनके पालन में लगा हुआ कबूतर खुशी से फूला नहीं समाता था।
एक दिन दोनों दाने एकत्रित करने के लिये वन में गए। हुए थे। वहां पर एक फंदक आ गया, उसने जाल बिछा कर दाने डाल दिये और आप एक तरफ जाकर बैठ गया। दाने के लालच से एक-2 बच्चा पेड़ से उतर कर आता गया और जाल में फँसता गया। बाहर से जिन बच्चों के लिये कबूतर - कबूतरी दाना लेकर आए थे, उन बच्चों को शिकारी के जाल में फंसा हुआ देख कर माता और बच्चों की नज़र से नज़र मिलने पर बच्चों ने कहा कि, आता आम्ही जातसों जमपथाः । माघौतीं न यों सर्वथा ।।
भावार्थ: - बच्चों ने कहा माता जी! यह हमारा आखिर का नमस्कार है। अब हम यमराज के दरबार में जा रहे हैं। दुबारा लौट कर हमारा - आपका मिलन नहीं हो सकेगा। हमारा - तुम्हारा - साथ समाप्त हो गया। ऐसे वचन सुन कर, दिल के टुकड़े मौत के मुख में पड़े हुए देख कर कबूतरी भी उस जाल में फंस गई। यह दशा देख कर कबूतर बड़ा दुःखी हुआ, सोचने लगा कि - इस संसार में स्त्री जाति को बच्चों से बड़ कर दूसरी कोई भी वस्तु प्रिय नहीं है। मुझे पूछा तक भी नहीं। अब मैं इस सुने घर में अकेला क्या करुँगा? यह कह कर वह भी जाल में फंस गया।
शिकारी ने जाल एकत्र किया, सन्तुष्ट होकर घर को चला गया अतः हे राजा यदु! यह मनुष्य जन्म बड़ा ही है, जो तुझे प्राप्त हुआ है, इसे व्यर्थ की ममता - मोह और विषय - विकारों में बर्बाद मत कर। मैंने कबूतर से यह शिक्षा ली कि - यति-मुनियों को चाहिये कि वे स्त्री - सम्पर्क से दूर रहें। मैंने संसार से अलिप्त रह कर सुख-शान्ति की शिक्षा कबूतर से प्राप्त की है।