6 फरवरी 2022
देवव्रत की अद्भुत भीष्म प्रतिज्ञा
भीष्म के बारे में महाभारत में लिखा है
परित्यजेयं त्रैलोक्यं राज्यं देवेषुवा पुनः ।
यद्वाप्यधिकमेताभ्यां न तु सत्यं कथन्चन ।।
अर्थात् मैं त्रिलोकी का राज्य छोड़ सकता हूँ, देवताओं का राज्य भी छोड़ सकता हूँ और जो इन दोनों से अधिक है उसे भी छोड़ सकता हूं, पर सत्य कभी नहीं छोड़ सकता ।
भीष्म पुरुवंश के राजा शान्तनु तथा गंगा के औरस पुत्र थे। राजा शान्तनु के पिता का नाम राजा प्रतीप था। राजा प्रतीप ने अपने सुपुत्र शान्तनु को गंगा से विवाह करने की आज्ञा दी। जब युवराज शान्तनु गंगा से विवाह करने लगे तो गंगा ने युवराज शान्तनु से कहा- "यदि आप मुझे अपनी रानी बनाना चाहते हैं तो मेरी यह शर्त है कि मैं जो कुछ भी अच्छा बुरा काम करूं आप मुझे रोकेंगे नहीं और जब आपने मुझे रोकने का प्रयत्न किया उसी क्षण मैं आपको छोड़कर चली जाऊंगी।
राजा शान्तनु ने गंगा की शर्त मान लीं। दोनों का विवाह हो गया तथा वे आनन्दपूर्वक जीवन व्यतीत करने लगे। उनको एक के बाद एक ऐसे सात पुत्र प्राप्त हुए और जब भी पुत्र हुआ गंगा ने उसे गंगा नदी में प्रवाहित कर दिया और राजा शान्तनु प्रतिज्ञाबद्ध होने के कारण गंगा को ऐसा करने से रोक न सके। जब आठवां पुत्र भी गंगा नदी में प्रवाहित करने लगी तो राजा शान्तनु का धैर्य टूट गया और उन्होंने गंगा से कहा, ‘तू कौन है ? किसकी पुत्री है तू बच्चों को क्यों मार देती है यह तो महापाप है।’ गंगा ने राजा शान्तनु से कहा-मैं जन्हु की कन्या गंगा हूँ। मेरे आठ पुत्र स्वर्ग के आठ वसु है जो वशिष्ठ ऋषि के शाप के कारण मनुष्य योनि में मेरे गर्भ से उत्पन्न हुए। मैंने उनको मनुष्य योनि से मुक्त करने का वचन दिया था अतएव मैंने सात वसुओं को मुक्त कर दिया परंतु इस आठवें पुत्र को जल में प्रवाह करते समय तुमने वचन भंग किया है अतः मैं इसे नहीं मारती अब मैं वचनानुसार तुम्हें छोड़ कर जा रही हूँ।
इन आठ वसुओं में द्यौ नाम के वसु ने अपनी पत्नी के कहने में आकर अपने सात भाइयों से ऋषि वशिष्ठ की उत्तम नाम की गाय चोरी करवाई जिसके कारण वशिष्ठ ने उनको मनुष्य रूप जन्म लेने का श्राप दिया था। क्षमा मांगने पर वशिष्ठ ने को तो श्राप युक्त कर दिया परंतु वह द्यौ नामक वसु जिसने वास्तव में वह गौ चोरी करवाई थी, उसे श्राप मुक्त नहीं किया। यही द्यौ नामक स्वर्ग के वसु ही बाद में भीष्म बने। पहले इनका नाम देवव्रत रखा गया था। देवव्रत ने वशिष्ठ ऋषि से ही सब प्रकार की विद्याएं प्राप्त की तथा राजा ने देवव्रत को जवान होने पर अभिषेक कर युवराज बना दिया।
एक दिन राजा शान्तनु यमुना नदी के किनारे विहरण कर रहे थे तो वहां उन्होंने एक सुन्दर कन्या को देखा। राजा ने उस कन्या से पूछा, “तुम कौन हो ?" तो उसने उत्तर दिया, "मैं एक निषाद कन्या हूं तथा पिता की आज्ञा से नाव चलाती हूं।" राजा शान्तनु उसकी सुदंरता पर मोहित हो गए तथा उन्होंने उसे अपनी पत्नी बनाने की इच्छा प्रकट की। राजा उसके पिता निषादराज के पास गये तथा उसे उसकी कन्या का विवाह करने को कहा।
निषादराज ने कहा, "मैं अपनी कन्या का विवाह आपसे करने को तैयार हूँ परंतु आपको यह वचन देना होगा कि इसके गर्भ से जो भी पुत्र उत्पन्न होगा वही राज्य का अधिकारी बनेगा।" राजा शान्तनु ने यह शर्त स्वीकार नहीं की और वह अपने नगर हस्तिनापुर आ गये। वे बहुत चिन्तित रहने लगे। उनके सुपुत्र देवव्रत ने उनसे चिन्ता करने का कारण जानना चाहा।
देवव्रत ने जब अपने पिता की चिन्ता का कारण मंत्रियों से जाना तब वह स्वयं निषादराज के पास गये तथा उसकी कन्या सत्यवती का विवाह अपने पिता राजा शान्तनु से करने के लिये कहा तथा उसकी शर्त को मानते हुए यह दृढ़ प्रतिज्ञा की कि इसके गर्भ से जो भी पुत्र होगा वही हस्तिनापुर का राजा होगा। निषादराज ने कहा, ‘देवव्रत आप तो राजसिंहासन पर नहीं बैठेंगे परन्तु आपका पुत्र तो मेरी कन्या सत्यवती का पुत्र का शत्रु बन सकता है तथा उससे राज्य छीन सकता है।’ तो देवव्रत ने यह प्रतिज्ञा की कि वह आजीवन ब्रह्मचारी रहेगा। देवव्रत की ऐसी प्रतिज्ञा करने पर आकाश में देवता, ऋषि, अप्सरायें पुष्प वर्षा करने लगे तथा सभी देवव्रत को भीष्म पुकारने लगे। तभी उनका नाम भीष्म पड़ा। भीष्म ने निषाद कन्या सत्यवती को लाकर अपने पिता को सौंप दिया।
जब राजा शान्तनु ने यह सब देखा तो उसने भी अपने पुत्र भीष्म को यह वरदान दिया ‘पुत्र मैं तुम्हें वरदान देता हूँ कि तुम्हारी इच्छा मृत्यु होगी, जब तक तुम जीना चाहोगे तुम्हें कोई मार नहीं सकेगा।’ राजा शान्तनु का विवाह सत्यवती से हो गया। उसके गर्भ से दो पुत्र चित्रांगद तथा विचित्रवीर्य हुए। चित्रांगद जब जवान हुए तो उन्हें राजगद्दी पर बैठाया गया और तभी राजा शान्तनु का देहान्त हो गया। चित्रागंद बहुत पराक्रमी तथा वीर था। वह अपने बल पराक्रम से देवता मनुष्यों व असुरों को नीचा दिखाने लगा। यह देखकर राजा गंधर्व राज ने चित्रांगद पर हमला कर दिया।
तीन वर्ष तक घमासान युद्ध हुआ और अंत में चित्रांगद गंधर्वराज के हाथों मारा गया। उसके बाद भीष्म ने अपने छोटे भाई विचित्रवीर्य का राज्याभिषेक कर दिया। भीष्म ने काशी नरेश की दो कन्याएं अम्बिका तथा अम्बालिका का विवाह विचित्रवीर्य से बलपूर्वक करवा दिया। वह दोनों पत्नियों के प्रेम जाल में ऐसा फंस गया कि रात-दिन विषयों का सेवन करता हुआ जवानी में ही मर गया। तब सत्यवती ने भीष्म को बुला कर कहा- हे भीष्म, ‘तुम काशी नरेश की कन्याएं अम्बिका तथा अम्बालिका के साथ विवाह कर अपने वंश की रक्षा करो।’ परन्तु भीष्म ने कहा जो उसने प्रतिज्ञा की है वह उसको कभी तोड़ नहीं सकता।
तब सत्यवती ने व्यास को बुलाया तथा वंश रक्षा करने के लिए अम्बिका, अम्बालिका से विवाह करने को कहा। व्यास ने सत्यवती की आज्ञा का पालन किया और अम्बिका से धृतराष्ट्र उत्पन्न हुए तथा अम्बालिका से पाण्डु उत्पन्न हुए। अपनी माता के दोष के कारण धृतराष्ट्र अंधा उत्पन्न हुआ तथा पाण्डु पीला उत्पन्न हुआ। अम्बिका की दासी से व्यास ने विदुर को उत्पन्न किया। भीष्म ने परशुराम से सभी विद्याएं सीखी थी।
एक बार परशुराम ने भीष्म को कहा कि वह काशीराज की बड़ी कन्या अम्बा से विवाह कर ले। तो उन्होंने अपनी प्रतिज्ञा उन्हें बताई। परन्तु परशुराम ने उन्हें धमकी दी कि यदि वे उनकी आज्ञा का पालन नहीं करेगें तो वे उसका विवाह बलपूर्वक करायेगे। परशुराम ने अभिमानपूर्वक यह कहा कि उसने इक्कीस बार पृथ्वी को क्षत्रिय विहिन कर दिया है। इस बात को सुनकर भीष्म भी कहने लगे-परशुराम में भी युद्ध में पीठ दिखाने वाला क्षत्रिय नहीं हूँ। गुरु भी शिष्य दोनों में भयानक युद्ध हुआ परन्तु परशुराम उन्हें परास्त नहीं कर पाये। अन्त में देवताओं ने बीच में पड़ कर युद्ध बन्द करवाया। ऐसे थे महावीर भीष्म जानते थे कि दुर्योधन अनीति के मार्ग पर चलता है। अतः वे बहुत समझाते थे परन्तु वे समझता नहीं था। भीष्म मन से पांडवो की ओर थे परन्तु दुर्योधन का पक्ष कमजोर देखकर भीष्म ने युद्ध में उसका साथ दिया। अट्ठारह दिन के महाभारत के युद्ध में दस दिन कौरवों के सेनापति भीष्म ही थे।
बाकी आठ दिन तो अनेक सेनापति बदल गये। महाभारत के युद्ध में भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन के सारथी बने। उन्होंने यह प्रतिज्ञा की थी कि वे युद्ध में कोई शस्त्र नहीं उठायेंगे। एक बार दुर्योधन के भीष्म को बहुत कहने सुनने पर भीष्म ने दुर्योधन को वचन दिया था कि वे दूसरे दिन पांचों पाण्डवों को मार डालेंगे। तब भगवान श्रीकृष्ण ने अपनी कुशलता से द्रौपदी को प्रातः भीष्म जी के पास भेजा और उन्होंने उसे पुत्रवती हो ऐसा आशीर्वाद दिया।
इस प्रकार भीष्म की प्रतिज्ञा भगवान श्रीकृष्ण महाराज की कुशलता से टूट गयी। तब भीष्म ने भी यह प्रतिज्ञा की कि वह श्रीकृष्ण से उनकी प्रतिज्ञा भी भंग करवाएगा और युद्ध में उनसे शस्त्र उठवाकर ही रहेगा। दूसरे दिन भीष्म ने अपनी पूरी शक्ति लगाकर भयंकर युद्ध किया तथा वे पाण्डव सेना को बुरी तरह मारने लगे। पांडव पक्ष के वीर युद्ध छोड़ कर भागने लगे। तब पीताम्बर धारी वासुदेव श्रीकृष्ण सिंहनाद करते हुये रथ का टूटा चक्र लेकर भीष्म की ओर दौड़े।
जब भगवान श्रीकृष्ण भीष्म की ओर दौड़े तो भीष्म ने उनका स्वागत किया— हे प्रभु आओ, आपको मेरा नमस्कार है। इस युद्ध में आपके हाथों मारे जाने से तो मेरी सद्गति हो जायेगी तथा कल्याण होगा। तब अर्जुन ने भगवान के पांव पकड़ लिये तथा उन्हें वापिस लौटाया। भीष्म ने अपने वध का उपाय स्वयं युधिष्ठिर को बताया। शिखंडी को आगे कर भीष्म पर अर्जुन ने बाणों की वर्षा कर दी। वह बाणों की शैय्या पर लेट गये। अर्जुन ने उनके सिरहाने के लिये भी तीन बाण गाड़ दिये। भीष्म ने अपना इलाज कराने से मना कर दिया।
महाभारत का युद्ध पूरा हुआ तथा युधिष्ठिर का राज्यभिषेक हुआ। भगवान श्रीकृष्ण युधिष्ठिर के साथ बाणों की शैय्या पर लेटे भीष्म को स्वयं मिलने गए। श्रीकृष्ण ने भीष्म को कहा कि आप उत्तरायण के आने पर ही इस शरीर का त्याग करें परंतु उत्तरायण आने में अभी तीस दिन हैं अत: आप युधिष्ठिर को धर्म शास्त्रों का ज्ञान सुनाकर उसका शोक दूर करें।
इस प्रकार भीष्म पितामह दृढ़ प्रतिज्ञ थे। जो प्रतिज्ञा उन्होंने जीवन में की उसे पूर्ण किया। वे स्वर्ग की वसु देवता होते हुए भी वशिष्ठ ऋषि के शाप के कारण उन्हें मनुष्य रूप धारण कर दुःख उठाना पड़ा। अत: जीवन में सदैव शुभ कर्म ही करने चाहिए। जीवन में प्राप्त होने वाले सभी दुःखों के लिए हम स्वयं ही उत्तरदायी हैं। अपने-2 कर्मों का फल तो भोगना ही पड़ता है।