७ फेब्रुवारी २०२२
दान का महत्व - महाभारत कथा
Dan ka mahatva _ mahabharat kahani
दान का महत्व बतला कर भीष्म जी ने महाभारत यूधिष्ठीर से कहा राजन् ! अब दया का महातम सुनो। जिस व्यक्ति की नजर में जड़ और चेतन एक समान है वह परमात्मा को सर्व व्यापक मानता है। दया यह परमात्मा का गुण है, अत: जिस व्यक्ति में दया भाव होता है पर ब्रह्म की उस पर कृपा होती है।
राजा शिबि ने यज्ञ किया वह समाप्त होने के मार्ग पर था। वैसा-2 ने ही इन्द्र का सिंहासन डोलने लगा। शिबि का सत्व भंग करने के लिए इन्द्र ने बाज का वेष धारण किया और अग्नि को कबूतर बना कर बाज ने कबूतर को घेर लिया। भयभीत होकर कबूतर भाग रहा था और बाज उसका पीछा कर रहा था । कबूतर हा, हा पुकारते हुए शिबि के पास पहुंच गया। शिवि ने उसको चमकार कर गोद में बिठा लिया । यह देखकर बाज ने कहा ऐसी दया को धन्य है। बाज ने कहा कि इसमें कोई सन्देह नहीं है, अभय दान सब दानों में श्रेष्ठ है। जो दीनों पर दया करते हैं परमात्मा की दया उसप होती है। परन्तु इस बात को भूल मत जाना । आपके द्वारा प्राणी को जीवन दान मिल जाएगा परन्तु दूसरा जीव तरस 2 कर मर जाएगा। साधुजन तो अपने समान ही दूसरों का भी ध्यान रखते है।
हिंसा करना हमारा नीच कर्म है, परन्तु आप यह भी जानते हैं कि इस संसार में जीव का आहार जीव है। इसलिए राजन, ! मेरी आहार मेरे सामने रख दो : या किसी दूसरे तरीके से मेरी भूख मिटा दो। शिवि ने कहा कि तेरे लिए मेरा मस्तक तैयार है, परन्तु शरण आए को छोड़ देना मेरे लिए उचित नहीं है। इस कबूतर के बदले में दूसरी जो भी वस्तु चाहेगा। वह मिल जाएगी। यदि मांस ही खाना है तो मेरे शरीर का भाग तेरे को दे दूंगा। बाज ने कहा कबूतर के बदले में मुझे तो भोजन चाहिए। मेरे हाथों से मांस ही छीना है, अत: मझे मांस ही दे दे। नृप ने उसी समय तराजू लेकर उपर कबूतर को बिठा दिया और उसके बराबर अपने तन का मांस निकाल कर रखना शुरु कर दिया। सारे शरीर का मांस उतार दिया परन्तु वह कबूतर के बराबर नहीं हुआ। अन्त में राजा स्वयं पलड़े पर बैठ गया। यह देखकर इन्द्र और अग्नि दोनों देव सामने प्रकट हो गए। तुप भी स्वस्थ हो गए। देव वरदान देकर विदा हो गए।
अतिथि सत्कार
हें राजन ! अतिथि सत्कार का भी ऐसा ही मान है। जो व्यक्ति प्रति दिन अतिथि सत्कार में अपना जीवन खर्च करता है। ज्ञानी या अज्ञानी, भला अथवा बुरा प्रत्येक व्यक्ति का आना-जाना चलता है। पता नहीं किस रुप में परमेश्वर का ही मिलाप हो जाए। जंगल में किसी शिकारी ने एक कबूतरी को फंदे में फंसा लिया। विवश होकर पेड़ पर बैठा हुआ कबूतर लम्बी सांसे लेने लग। कबूतरी ने कहा हे स्वामी ! आप व्यर्थ में ही मोह क्यों बड़ा रहे हो । ना कुछ मिट्टी की ममता के कारण अपने कर्तव्य को भूल रहे हो । यदि अ ना योग हुआ तो फिर दुबारा मिलाप हो जाएगा परन्तु अतिथि की सेवा का मौका फिर नही मिल सकेगा: अतिथि सत्कार में जीवन अर्पण करने से स्वर्ग के द्वार खल जाते हैं। हे नाथ ! आप नहीं जानते यह शिकारी के रुप में ईश्वर हैं ।
कबूतरी के वचन सुनकर कबूतर की आंखें खल गई । तत्काल पेड़ पर से कूद कर नीचे आ गया। यह देखकर शिकारी का हृदय पसीज गया। और बोला हे दया धाम ! पकड़ो, हम किस मार्ग पर चल रहे हैं। हे प्रभो ! अपना कर्तव्य पालन करने में पशु-पक्षी हमारे से बढ़कर है । ना कुछ पक्षी का यह विचार है कि सेवा में अपना जीवन अर्पित कर दें। परन्तु मेरे जैसे दुष्ट के जीवन में कभी प्रभु का ध्यान ही न हो यह वह प्राणी है जिसने परोपकार के लिए अपना शरीर जला दिया। और मैं भी एक प्राणी हू जिसने अपने स्वार्थ के लिए दूसरे का जीवन नष्ट कर दिया।
पक्षी की देह धारण किए हुए दानी तेरे ऊपर देव लोक भी बलिहार है । और मनुष्य देह धारण किए हुए मुझ पामर को लाख-लाख धिक्कार शिरीने उस कबूतरी को छोड़ दिया परन्तु उसने भी अग्नि में अपने शरीर को जला दिया। अब तो वे पक्षी, पक्षी नहीं रहे देव लोक के वासी हो गए। दूसरों की भलाई में जीवन खर्च करने से उनका आत्म कल्याण हो गया ।
तपस्या दान, भजन या दया आदि शुभ कर्मों से सच्चा प्रकाश हो जाता है परन्तु थोड़ा भी सद का अंकुर निकल आए तो सर्वनाश हो जाता है। जाजलि नामक ऋषि ने योग का अभ्यास शुरू किया, तपस्या में ही उनके बारह मास बीतने लगे। धूप बरसात और सर्वो में वे खड़े-2 ही सारा समय व्यतीत करने लगे। ऋषि हमेशा प्रसन्नचित रहते थे। उनकी जटाअ में कई पक्षियों में घोलले बनाकर बच्चों को जन्म दिया। उनका पालन करके पक्षी चले गए, परन्तु जाजलि ऋषि योग साधना में स्थिर रहे । यह देख कर उन्हें गर्व हो गया। वे सोचने लगे मेरे समान अब दूसरा कोई ऋषि नहीं है ।
ऋषि के हकार को भगवान सह नहीं सके । आकाशवाणी में कहा गया जाजलि एक साधारण तप से तेरे को अहंकार आ गया। तेरी अपेक्षा तो वह तुलाराम ही अच्छा है। यदि इसका रहस्य समझता है तो उसी के पास जाने पर खूलेगा। मनुष्य जीवन का असली रहस्य बह तेरे को बतलाएगा। आकाशवाणी सुनकर जाजलि के होस हवास उड़ गए भागते हुए वे तुलाराम के पास गए ऋषि को देखकर तुलाराम ने कहा प्रभो । आपका स्वागत है। ऋषिराज ! आश्चर्य किस बात का कर्मों की गति अति गहन है। मैं समझता आपने अपना जीवन तपस्या में बिता दिया परन्तु अफसोस है कि अहंकार के कारण आपने वह सब मिट्टी में मिला दिया। तुलाराम ने सारी बातें बता दी तो जाजलि का अभिमान नष्ट हो गया ।
ऋषि ने तुलाराम से पूछा भैया ! आपने तो गुड़ तेल बेच कर अपनी जिन्दगी बिताई है परन्तु मुझे आश्चर्य हो रहा है कि यह योग दृष्टि आपको किस तरह प्राप्त हुई ? इतना कठिन तप करने पर भी मुझे समझ नहीं आई। इससे तो निश्चित होता है कि ऋषि होना कोई बड़ी बात नहीं है। यह ऋषि के वचन सुनकर तुलाराम ने कहा यह आपको भ्रम है। ज्ञान चीज अलग है और सिद्धि की बात अलग हैं। जिन्दगी भर तप करने पर जी सिद्धि प्राप्त नहीं होती, वही सिद्धि अपना कर्तव्य निभाने से स्वयं प्राप्त हो जाती है।
सिद्धि, स्वर्ग या मुक्ति मनुष्य अपने कर्मों से प्राप्त करता परन्तु थोड़ा भी अभिमान आ जाए तो सर्वनाश हो जाता है। जो अहम और अभिमान को छोड़ कर केवल कर्तव्यों का पालन करता है, वह सिद्धि स्वर्ग या मक्ति का लाभ अपने आप ही प्राप्त कर लेता है। ऋषि ! में जो कुछ भी करता हूं वह प्रभु का समझ कर करता हूं। और उनकी हो कृपा के द्वारा यह अन्तर भाव जानता हूँ। तुलाराम ने इस प्रकार जब उपदेश दिया तो ऋषि को ज्ञान होकर उनका क्लेश समाप्त हो गया ।
हे राजन! जब तक मनुष्य का पुण्य समाप्त न हो, और उसे अभिमान न आए या किसी ब्राह्मण का शाप न लगे तब तक ही उसकी भलाई है। देखिए ! जिस समय राजा नहुष को स्वर्ग का राजा मिल गया और अहिल्या के साथ व्यभिचार करने से इन्द्र को इन्द्रासन से हटा दिया गया। राजा नहुष को इन्द्रासन मिलने पर उसकी अभिलाषा इन्द्राणी के साथ भोग विलास की हुई । इन्द्राणी को सन्देश दिया गया कि आपके भवन में देवराज नहुष नरेश आ रहे हैं। इन्द्राणी ने शान्ति से उत्तर दिया कि बड़े प्रेम के साथ आए । परन्तु मेरी एक शर्त है उसे पूरी करने पर में उन्हें मिलूंगी। देवराज पालकी में बैठकर पधारें परन्तु मजदूरों के बदले ब्राह्मणों से पाल की उठवाएं।
कामातुर नहुष इन्द्राणी का भेद नहीं समझ सका। इसी बहाने से उस मूर्ख का पतन का समय आ गया शनि के भवन में पहुंचने के लिए ब्राह्मणों के कन्धों पर पालखी रख दी। काम की उमंग में आकर उसने सर्प-2 चिल्लाना शुरु कर दिया। उस नीच की बात ब्राह्मण नहीं सह सके। पालकी को नीचे गिरा कर बोले पापी ! सो जा (सर्प शब्द का अर्थ सांप और सर्प का भाव जल्दी- 2 चबने से है) सर्व की लगन है तो स्वयं सर्प हो जा तरह ब्राह्मणों ने नहुब को शाप दे दिया।
राजा के विनाश का कारण उसका दर्प बना। सर्प 2 कहने वाला अगले जन्म में सर्प हुआ। अभिमान छोडकर जो कर्म करता है धर्म उसकी रक्षा करता है। मनुष्य देह का यही सार है।
इस प्रकार सत्संग करते हुए फाल्गुन मास आ गया। भक्त भीष्म ने कहा हे जगत के स्वामी ! मेरे जीवन की अन्तिम स्वार्से हैं, नाव किनारे पर पहुंच गई है। अब आपके विश्वास और बल पर जंजीर खींचनी है। इस जगह अजुन से समता थी, और मरने के बाद कर्मों से युद्ध होगा। यहाँ पर तो दल-बल की दुहाई देते थे वहां पर कर्मों की दुहाई होगी। हे जगत के स्वामी ! युद्ध के समान कठोरता वहां पर मत रखना। जिस तरह यहां पर मुझे भूला दिया उसी तरह वहां पर मत भूलाना में इस बात को मानता हूं कि आपने भक्तों की भलाई के लिए मानव का तन धारण किया है। परन्तु परम पिता के नाते से यह पापी भी आपका बालक है। यह सुन कर कमल नयन की आंखों में आंसू भर आए ।
सिसकी भरते हुए माधव इस प्रकार बोले हे ज्ञान सिन्धु ! हे कर्म वीर ! अब अपना प्रताप मत दिखाओ । शान्ति से जाओ व्यर्थ ही मुझे शर्मिन्दा मत करो। लोक और परलोक में आपको अपने कर्मों का ही सहारा है। इस दुनियां से आपके कर्तव्य ही पार उतारेंगे। हे भारत भूषण ! जाओ आपकी आशाएं पूरी हो । हे भक्त राज ! में और क्या कहूं आप स्वयं शान्ति के अधिकारी है। शान्ति पूर्वक भगवान श्री कृष्ण चन्द्र जी को प्रणाम करके भारत के श्रृंगार स्वर्गवासी हो गए। रोते-धोते धर्मराज भगवान श्री कृष्ण चन्द्र जी के साथ वापस आ गए ।