संकट आने पर ही भगवान को याद करना ये तो स्वार्थ है ।
लिखने से पहले प्रभु जी के श्रीचरणों की महिमा का गुणगान करना चाहता हूँ। एक प्रभु भक्त के लिए प्रभु जी के श्रीचरण ही सब कुछ हैं, भक्त सदा प्रभु जी के श्रीचरणों का वन्दन करता है। भक्त सूरदास भगवान श्री कृष्ण की स्तुति गाते हुए कहते हैं
चरण कमल बन्दौ हरिराई,
जाकी कृपा पंगु गिरी लंघे,
अंधे को सब कुछ दर्शाई,
बहरो सुने मूक पुनि बोले-
अर्थात् मैं प्रभु जी के कमल के समान श्रीचरणों की वन्दना करता हूँ। जिन चरण कमलों की कृपा से एक लंगड़े को चलने की इतनी शक्ति प्राप्त होती है कि वह पर्वत को पार कर जाता है तथा अंधे को सब कुछ दिखाई देने लगता है, बहरा सुनने लगता है। तथा मुकं करोति वाचल ।गूंगा बोलने लगता है। प्रभु जी के श्रीचरणों की कृपा प्रताप से मनुष्य की सब शारीरिक-मानसिक समस्याऐं ही सुलझ जाती है तथा मनुष्य शान्ति पूर्व इस संसार में अपना जीवन व्यतीत कर सकता है। वास्तव में इस संसार में मनुष्य का जीवन भी एक बहुत बड़ा संघर्ष है। प्रत्येक मनुष्य के जीवन में समय-समय पर शारीरिक तथा मानसिक समस्याऐं आती ही रहती हैं जो मनुष्य को पीड़ित करती हैं।
धर्म शास्त्र इसे तीन ताप कहते हैं— अधिभौतिक, अधिदैविक तथा अध्यात्मिक। कभी मनुष्य को गर्मी से पीड़ा होती है तो कभी सर्दी से यह अधिभौतिक ताप है। कभी वह अपनी शक्ति से अधिक कार्य करने के कारण पीड़ित होता है इसे अध्यात्मिक ताप कहते हैं तथा कभी उसे अपने दुर्भाग्य के कारण कष्ट उठाने पड़ते हैं इसको अधिदैविक ताप कहते हैं। त्रेता युग के अर्लक राजा के ये तीनों ताप भगवान श्री दत्तात्रेय महाराज जी के श्रीचरणों में शरणागत होने पर केवल प्रभु जी द्वारा बोले गये शंभोली-शंभोली इन शब्दों से निवाराण हो गये। अतः प्रभु जी के श्रीचरणों में जाने पर ही जीव के शारीरिक-मानसिक कष्टों का निवारण हो सकता है।
एक सज्जन मुझसे बचपन से ही परिचित थे। कभी-कभी मिलने चले आते थे। एक बार वे मिलने आये तो वे बहुत परेशान, दुखी दिखाई दे रहे थे। मैंने पूछा – ‘आपको क्या दुख है ?’ तो वे बोले– ‘मेरे एकलौते जवान है बेटे को दुर्भाग्य से कैन्सर का रोग हो गया है।’ मैंने पूछा–‘क्या उसका इलाज करा रहे हो ?’ तो वे बोले–‘उसका इलाज कराने में कोई कसर नहीं छोड़ी है उसका इलाज तो अब कर्ज लेकर करा रहा हूँ। अब मैं उसे बम्बई टाटा हस्पताल में ले गया तथा वहाँ से उसका इलाज करवा रहा हूँ। बहुत दुखी हूँ सारा घर परेशान है, खाने की इच्छा नहीं होती, चौबीस घण्टे चिन्ताओं से घिरा हूँ।’
मैं बोला—‘डाक्टरी इलाज तो करवा रहे हो कुछ प्रभु जी से प्रार्थना करो, प्रभु जी सब कुछ कर सकते हैं असम्भव को भी सम्भव कर देते हैं।’ तो वे बोले– ‘ऐसी मुसीबत में तो श्रीभगवान जी की पूजा करने में भी मन नहीं लगता। बस सदा उस बालक की चिन्ता ही मन को घेरे रहती हैं। ’ फिर कुछ दिन बाद मिले तो फूट-फूटकर रोने लगे- “मेरा एकलौता जवान लड़का चल बसा।” मैंने उनको सांत्वना देने का प्रयत्न किया परन्तु मुझे एक बात का बहुत बड़ा अफसोस हुआ कि शारीरिक कष्ट आने पर मनुष्य कर्ज उठाकर इलाज कराने देश-विदेश जा सकता है परन्तु प्रभु चरणों में जाकर प्रभु है जी से प्रार्थना करने को तैय्यार नहीं है। जहाँ जाने पर मनुष्य की प्रत्येक शारीरिक-मानसिक समस्या का समधान हो जाता है। कहते भी हैं जहाँ दवा काम नहीं करती वहाँ दुआ काम कर जाती है। अंग्रेजी में भी कहा -More things are wrought by prayers than man can dream of अर्थात् मनुष्य सोच भी नहीं सकता इतने काम परमेश्वर की प्रार्थना द्वारा हो जाते हैं। इस बात को भली भाँति सोचने समझने की आवश्यकता है कि मनुष्य यदि प्रभु भक्ति करें तभी जीवन सुख-शान्ति पूर्वक व्यतीत हो सकता है अन्यथा जीवन में चिन्ता करते-करते चिता तक तो पहुँच ही जाना है।
अब प्रश्न यह उपस्थित होता है कि किस प्रकार प्रभु जी के श्रीचरणों में जाकर उनकी सेवा करें। श्रीमद्भगवद्गीता यह बताती है कि परमेश्वर इस सृष्टि का निर्माण कर जीवों के कल्याण करने हेतु इस संसार में अवतार धारण कर स्वयं ही चले आते हैं। श्री कृष्ण भगवान गीता में यह भी कहते हैं कि मैं भी अवतार धारण कर इस संसार में आया हूँ। श्री भगवान जी का अवतार मथुरा, में हुआ और उन्होंने बाल लीलाएं कर बृज भूमि मथुरा, वृन्दावन, गोकुल, गोवर्धन आदि स्थानों को परम पवित्र बना और आज लाखों-करोड़ों लोग उनको परम पवित्र तीर्थ स्थान मानकर वहाँ श्री भगवान जी की पूजा करने जाते हैं। वास्तव में परमेश्वर इस धरती पर जब अवतार धारण कर आते हैं तो जहाँ उनका अवतार होता है जहाँ उनके श्री चरण लगते हैं तथा जहाँ वे लीलाएं करते हैं वे स्थान परम पवित्र स्थान बन जाते हैं।
भगवान श्री दत्तात्रेय महाराज अवतार धारण कर सह्याद्री पर नित्य निवास करते हैं अत: उनके श्री चरणों से पवित्र सैह्याद्री पर देव देवेश्वर माहूर परम पवित्र तीर्थ स्थान है। जहाँ लाखों लोग प्रभु जी के श्री चरणों की सेवा में जाते हैं तथा जहाँ जाकर सेवा करने पर लाखों लोगों के कष्टों का निवारण होता है। इसी प्रकार भगवान श्री चक्रपाणि महाराज जी का अवतार महाराष्ट्र में सातारा जिले के फलटण नामक स्थान पर हुआ। महाराज ने वहाँ 37 वर्ष व्यतीत किये तथा अनेक लीलाएं की।
श्री भगवान जी के श्रीचरणों से पवित्र इस फलटण तीर्थ स्थान पर जाने से अनेक कोढ़ियों के कोढ़ रोग दूर हुए हैं। अनेक लोगों का पागलपन भी दूर हुआ है। तथा अनेक व्याधियों से ग्रसित लोग महाराज के श्री चरणों की सेवा करने से कष्टों से मुक्त हुए है। इसी प्रकार भगवान श्री गोविन्द प्रभु महाराज जी के श्री चरणों से पवित्र नगरी ऋद्धपुर भी एक महास्थान है जिसे परमेश्वरपुर भी कहा जाता है। यहाँ आकर महाराज के श्रीचरणों की सेवा करने पर अनेक लोगों के कष्टों का निवारण हुआ है तथा हो रहा है।
भगवान श्री चक्रधर महाराज तो महाराष्ट्र में अनेक स्थानों पर भ्रमण करते रहे तथा जहाँ-जहाँ प्रभु जी के श्री चरण पड़े वे स्थान तीर्थ स्थान बन गये जहाँ लाखों लोग जाकर उन श्रीचरणों से पवित्र स्थानों की पूजा वन्दना करते हैं जिससे अनेक लोगों के कष्ट निवारण होते हैं। बड़े आश्चर्य तथा दुख की बात तो यह है कि जब किसी मनुष्य को शारीरिक-मानसिक कष्ट प्राप्त होते हैं वह दूर-दूर इनके निवारण के लिए भागता है। धन का भी बहुत व्यय करता है परन्तु जहाँ कष्टों का वास्तव में निवारण होकर परम शान्ति प्राप्त होती है ऐसे श्रीचरणों में शरणागत नहीं होता। यह मनुष्य की अज्ञानता तथा नासमझी नहीं तो और क्या है ? जीवन में शारीरिक मानसिक कष्ट तो आते ही हैं परन्तु इन कष्टों में प्रभु जी के श्रीचरणों की श्रद्धा भाव आस्था से सेवा करने पर मनुष्य के भयंकर से भयंकर कष्टों का भी निवारण होता है इसमें कोई सन्देह की बात ही नहीं है।
महानुभाव जयकृष्णी धर्म, परधर्म के अनुयायी सदैव प्रभु जी के श्रीचरण की ही सेवा करते चले आये हैं। जब इस धर्म में जिज्ञासा की निवृत्ति होने पर तथा सभी धार्मिक शंकाओं का समाधान होने पर एक व्यक्ति इस धर्म के किसी गुरु से गुरुमंत्र दीक्षा लेता है तो उसी समय उसे प्रभु जी के श्रीचरणों की सेवा करने के लिए प्रभु जी के श्रीचरणों से सम्बन्धित तथा पवित्र वे पाषाण पूजा करने हेतु दिये जाते हैं। इन्हें विशेष कहा जाता है। ब्रह्मविद्या ज्ञान में इनको सेवा सम्बन्ध कहा जाता है तथा इनकी सेवा को प्रसाद सेवा कहा जाता हैं ब्रह्मविद्या ज्ञान के अनुसार जहाँ-जहाँ परमेश्वरावतार के श्रीचरण पड़ते हैं उन स्थानों पर एक प्रकार की प्रभु जी की कृपा रूप प्रसन्नता का तथा प्रभु जी की माया शक्ति का सामर्थ्य का निक्षेप होता है। उन स्थानों की अथवा उन स्थानों के पाषाण (विशेष) की सेवा होती है। उन पाषाणों की पूजा करने पर, उनको तिलक लगाने पर, पुष्प चढ़ाने पर, उनको अगरबत्ती, धूप दिखाने पर तथा उनकी आरती उतारने पर परमेश्वर प्रसन्न होते हैं तथा परमेश्वर के प्रसन्न होने पर वे भक्त को क्या नहीं देते, अर्थात् सब कुछ दे देते हैं। अत: महानुभाव जयकृष्णी धर्म के अनुयायी जो इन विशेषों की पूजा करते हैं वे वास्तव में प्रभु जी के श्रीचरणों की ही सेवा करते हैं।
महानुभाव जयकृष्णी धर्म के अनुयायी संत, महन्त, नामधारकों ने गत आठ सौ वर्षों से इन विशेषों को संभाल कर रखा है। तथा इन्हीं विशेषों को अपनी धार्मिक सम्पत्ति माना है तथा इनको भली-भाँति संभाला है। ये विशेष पीढ़ी दर पीढ़ी चले आ रहे हैं ये अनमोल हैं, केवल श्रद्धा भाव से, आस्था से इन पर मस्तक लगाकर इन का वन्दन करना ही इनका वास्तविक मूल्य है। इनका वंदन करने पर कितनी प्रसन्नता का अनुभव होता है यह तो शब्दों द्वारा बताया नहीं जा सकता।
महानुभाव जयकृष्णी धर्म का प्रत्येक अनुयायी इन विशेषों का प्रतिदिन प्रातः सायं वन्दन करता है। इन को वंदन किये बिना वह अन्न जल ग्रहण नहीं करता। इनको देवपूजा भी कहा जाता है। कहीं यात्रा पर जाने पर भी यह देवपूजा साथ ही होती है, कहीं भी जाये दोनों समय देवपूजा वंदन का नियम कभी भंग नहीं होता। विशेष कर भगवान श्री दत्तात्रेय प्रभु महाराज जी के श्रीचरणों से पवित्र पाषाणों की सेवा करने से तो अनेक लोगों के कष्टों का निवारण हुआ है तथा हो रहा है। कहते हैं कि
दुख में सिमरण सब करें, सुख में करे न कोय ।
जो सुख में सिमरण करें, तो दुख काहे को होय ॥
दुख आने पर तो सभी परमेश्वर को याद करते हैं परन्तु सुख में उनकी भक्ति कोई नहीं करता, यदि सुख में भी नियमपूर्वक, श्रद्धापूर्वक प्रभु जी की भक्ति की जाये तो आने वाले अनेक कष्टों का निवारण अपने आप ही हो जाता है। महानुभाव जयकृष्णी धर्म के अनुयायी कोई दुख आने पर ही देवपूजा करते हैं ऐसा नहीं है, नियमपूर्वक प्रातः- सायं देवपूजा करना महानुभाव जयकृष्णी धर्म का नियम है जिसे प्रत्येक अनुयायी दृढ़तापूर्वक पालन करता है। श्रद्धापूर्वक प्रभु जी के श्री चरणों से सम्बन्धित देवपूजा का वन्दन करने से, परमेश्वर कृपा कर अपने भक्तों के कष्टों का निश्चित ही निवारण करते हैं तथा सुख-शान्ति प्रदान करते हैं। यदि दुर्भाग्य से कोई बहुत बड़ा कष्ट आ भी गया तो इस धर्म के अनुयायी तीर्थ स्थानों पर जाकर स्मरण, पूजा करते हैं जिससे उनके भयंकर से भयंकर कष्टों का भी निवारण होता है, असाध्य रोग भी दूर हो जाते हैं।
अनेक वर्ष पूर्व की बात है, एक महात्मा ने बताया - मुझे भी इसका एक ऐसा अनुभव हुआ जिसको मैं कदापि भूल नहीं सकता। एक बार मुझे बुखार आ गया, सोचा दो चार दिन में बुखार चला जायेगा। परन्तु बुखार नहीं गया, बढ़ता ही गया। जब सात दिन तक बुखार नहीं गया तो डाक्टर बोलने लगे- कि टाईफाईड का बुखार है इसके दूर होने में समय लगेगा । डाक्टरों ने बहुत सी दवाईयां दी जिसे नियमपूर्वक खाना पड़ा। दवाईयां खाता गया और कुछ दिन बाद बुखार तो उतर गया परन्तु मुंह से खून आने लगा तथा इतनी अशक्ता आ गई कि न उठ सकता था, न बैठ सकता था, न सो सकता था। रात को न तो मैं स्वयं सोता था न दूसरों को सोने देता। नर्वस सिस्टम बिगड़ गया। चौबीस घण्टे भय की स्थिति बन गई। लगता था कि मृत्यु निकट है। सदैव मन में बुरी-बुरी अनिष्ट की कल्पनायें ही आती रहती थी। मैं अपने आप से तंग पड़ गया, न जीने में न मरने में, ऐसी दुर्दशा में फंस गया।
एक दिन प्रभु जी के मन्दिर में प्रभु जी के श्रीचरणों में लेटा पड़ा था तो प्रभु जी से प्रार्थना की— ‘हे प्रभु, मुझे आपके श्रीचरणों से परम पवित्र जालीकादेव तीर्थ स्थान पर जाने की शक्ति दो।’ मैंने समझ लिया कि मुझे अब कोई डॉक्टर ठीक नहीं कर सकता। प्रभु जी से सच्चे हृदय से रोकर प्रार्थना की। मैंने प्रभु जी से प्रार्थना तो कर दी परन्तु मेरे पास इतनी यात्रा करने की न तो शक्ति थी और न ही साहस था। मैं तो यह भी सोचता था कि यदि कभी मैं इस जालीकेदेव तीर्थ स्थान की यात्रा पर चल भी पड़ा तो मैं वहां तक पहुंच भी न पाऊंगा, रास्ते में ही मेरा देहान्त हो जाएगा। परन्तु मेरे अन्दर यह दृढ़ आस्था भी थी कि मुझे जालीकेदेव तीर्थ स्थान पर स्मरण करने से ही स्वास्थ्य लाभ प्राप्त हो सकता है।
अत: कुछ लोगों ने मुझे साहस दिया और वे मेरे साथ चलने को तैय्यार हो गये। मैं चल तो पड़ा परन्तु मुझे यह आत्मविश्वास न था कि मैं वहां पहुंच भी पाऊगां। परन्तु जैसे-जैसे यात्रा पर मैं अग्रसर तो प्रभु कृपा से अधिक से अधिक साहस प्राप्त हुआ। भय भी कुछ कम लगने लगा और मैं भगवान के श्रीचरणों में जालीकेदेव परम पवित्र तीर्थ स्थान पर पहुंच ही गया साथ में ढेर सारी दवाईयां भी थी। रोज बहुत दवाईयां खानी पड़ती थी। जालीका देव तीर्थ स्थान भगवान के श्रीचरणों में उपस्थित होने पर वहां प्रभु स्मरण के लिए बैठ गया। तीन दिन स्मरण करने पर जब तीसरी रात को सोया तो अगले दिन प्रातः मुझे एक स्वप्न दिखाई दिया जिसमें एक सफेद दाढ़ी वाला बाबा दिखाई दिया जो मुझे बार-बार कह रहा था कि सारी दवाईयां पहाड़ से नीचे फेंक दो।
अजीब सी बात थी। जागा तो सोचने लगा कि क्या करूं? मैंने समझा कि यह प्रभु जी का आदेश है। अतः मैंने प्रातः सर्वप्रथम उन दवाईयों को पहाड़ से नीचे फेंक दिया। अब तो मेरे पास केवल एक ही औषध रह गई, वह थी प्रभु नाम का स्मरण । प्रभु जी की कृपा से मैंने सात दिन जालीकेदेव में स्मरण किया और फिर वापिस लौटना पड़ा। परन्तु मैं सच कहता हूँ कि सब कुछ बदल चुका था। शरीर की कमजोरी समाप्त हो गई भूख बढ़ गई पर्याप्त भोजन करने लगा, सब कुछ पचने लगा। अब मैं आत्म विश्वास के साथ प्रभु जी से विदा लेकर वापिस मेरठ जब पहुंचा तो मेरे गुरुवर्य कैवल्यवासी बाबा अर्जुन राज जी सर्वप्रथम मुझे मन्दिर के मुख्य द्वार पर ही मिले। मैंने दण्डवत् प्रणाम किया तो उन्होंने भी मुझे दण्डवत् कहकर प्रत्युत्तर दिया परन्तु मुझे पहचाना ही नहीं। उन्होंने समझा कोई महात्मा अभ्यागत आया है। मैं उनके पास जाकर बोला, ‘गुरु जी, मैं आपका शिष्य हूँ, तो वे आश्चर्य चकित हो गये।’ सात दिन में इतना परिवर्तन देखकर वे विश्वास न कर सके कि प्रभु जी की कृपा से इतना स्वास्थ्य लाभ हो गया कि मुझे वे पहचान भी न सके। प्रभु जी सर्व समर्थ हैं वे क्या नहीं दे सकते, वे सब कुछ कर सकते हैं, असंभव को भी संभव कर सकते हैं। मुझे भगवान के श्रीचरणों का स्मरण करते हुए लीला चरित्र में दी गई एक भगवान श्री चक्रधर प्रभु महाराज की लीला का भी स्मरण हो आया है जिसे प्रसंगानुरूप यहां लिख रहा हूँ। यह घटना आठ सौ पूर्व की है। भगवान श्री चक्रधर महाराज महाराष्ट्र में भ्रमण क्रम में डोमेग्राम नामक स्थान पर पहुंचे।
महाराज का निवास वहाँ गोदावरी नदी के किनारे छिन्नस्थली नामक स्थान पर था । डोमेग्राम से प्रभु प्रेमी वहां महाराज के दर्शन के लिए आते थे। डोमेग्राम का अधिकारी (सरपंच) रेइनायक भी प्रतिदिन श्रीभगवान जी के दर्शन के लिए छिन्नस्थली आता था। एक दिन उसको बुखार आ गया। उसका बुखार जाता ही न था। नौ दिन तक उसका बुखार गया ही नहीं। उस समय बुखार आने पर खाने में अन्न नहीं दिया जाता था। अतः नौ दिन तक अन्न न ग्रहण करने के कारण वह अत्यन्त कमजोर हो गया था। उसका बुखार जाने का नाम ही नहीं लेता था। उसके पुत्र का नाम नागोबा था। नौवें दिन जब वह गौओं को चराने निकला तो उसने सोचा कि मेरे पिता का ज्वर जाता ही नहीं अत: आज भगवान श्री चक्रधर महाराज जी का चरणामृत लाकर अपने पिता को पिलाऊंगा संभवतः श्री भगवान जी के चरणामृत पीने से पिता जी का ज्वर दूर हो जायेगा।
अतः उसने अपने थैले में चरणामृत लाने के लिए एक लोटा डाल लिया। वह गौओं को चराते हुए भगवान श्री चक्रधर महाराज जी के पास छिन्नस्थली पर आया। महाराज के पास आकर उसने महाराज के श्रीचरणों में दण्डवत् प्रणाम किया तथा महाराज के दर्शन करते हुए वह महाराज के पास बैठ गया। वह यह भूल गया कि उसे अपने पिता जी के लिए महाराज से चरणामृत लेना है। तब भगवान श्रीचक्रधर महाराज जी ही बोले ‘आज कल तुम्हारे पिता हमारे दर्शन को नहीं आते’। तो नागोबा बोला, ‘प्रभु जी, पिता जी बुखार के कारण बहुत कमजोर हो गये हैं। नौ दिन से उन्होंने अन्न भी ग्रहण नहीं किया है।’ इसके बाद कुछ समय महाराज के पास बैठकर वह चलने लगा तथा महाराज का चरणामृत लेना ही भूल गया। तब सर्वज्ञ महाराज स्वयं ही बोले ‘नागोबा, आपके थैले में क्या है’? तो नागोबा को स्मरण हुआ कि वह तो लोटे में अपने पिता के लिए चरणामृत लेने आया था।
उसने कहा – ‘प्रभु जी, मैं आपसे अपने पिता के लिए चरणामृत मांगना ही भूल गया अतः प्रभु जी अपना चरणामृत देवें। महाराज ने नागोबा से कहा- हमारा चरणामृत लेने से क्या होगा ?’ तो नागोबा बोला, ‘प्रभु जी, इस चरणामृत से ही मेरे पिता का बुखार दूर होगा। तभी बाईसा ने महाराज से प्रार्थना की, ‘प्रभु जी, इस बेचारे को आपका चरणामृत प्रदान करें।’ तब बाईसा ने महाराज के श्रीचरणों को धोया तथा वह चरणामृत उस लौटे में भरकर नागोबा को दिया। महाराज ने उस चरणामृत को लेने की विधि बताई-’इस चरणामृत में से कुछ तो पीना है तथा
इसको शरीर पर भी मलना है बाकी बचा चरणामृत में कुछ पानी मिला कर दूसरे दिन भी इसे ग्रहण करना है तथा तुम्हारे पिता रेइनायक से कहना कि हमने उनको दर्शन के लिए बुलाया है। नागोबा को विश्वास न आया कि उसके पिता महाराज के बुलाने पर उनके दर्शन को आ पायेंगे। बाईसा ने नागोबा से कहा, जैसा महाराज कहते हैं वैसे ही करना नागोबा महाराज को दण्डवत् प्रणाम कर घर वापिस लौटने लगा।
इधर बुखार से पीड़ित उसके पिता रेइनायक बिस्तर पर लेटे-लेटे यह शोर मचा कर अपने पुत्र नागोबा को बुलाने लगे- अरे ! तू कहा चला गया, क्या तू मेरी बिमारी के कारण मुझसे तंग आ गया है? इतने में उसका पुत्र नागोबा अपने घर वापिस पहुंच गया। नागोबा को देखकर रेइनायक ने पूछा, ‘अरे तू कहां गया था? क्या तू मुझसे मेरे बुखार के कारण तंग आ गया है ?’ तो नागोबा बोला, ‘मैं महाराज के दर्शन को गया था’ तो रेइनायक बोला, अरे जाने से पहले मुझसे पूछा तो लेता तो मैं महाराज का चरणामृत लाने के लिए तुमसे कहता। यह सुनकर नागोबा बोला -पिताजी, मैं महाराज का चरणामृत आपके लिए लाया हूँ ।
रेइनायक बोला, ‘क्या तुमने मेरा बुखार दूर करने के लिए महाराज प्रार्थना की थी। तो नागोबा बोला, हां मैंने आपके ज्वर के बारे में महाराज को बताया था। तो महाराज ने इस चरणोंदक को देते हुए कहा था कि इसको पीना भी है तथा शरीर पर भी मलना है तथा आपको दर्शन के लिए महाराज ने बुलाया है। रेइनायक को महाराज के आदेशानुसार कुछ चरणामृत पिलाया गया। कुछ शरीर पर भी मला गया। चरणामृत पीने से अन्दर का ज्वर शांत हुआ शरीर पर मलने से ऊपर का ज्वर भी जाता रहा।
रेइनायक महाराज के आदेशानुसार उनके दर्शन के लिए चलने को तैय्यार हो गया। उसने महाराज के लिए भोजन भी तैय्यार करवा लिया। वह महाराज के दर्शन को निकला और घर से बाहर भी स्वयं चलकर आ गया। वह चलता-चलता गांव के द्वार तक पहुंचा। वहां ग्राम की कुल देवता डोंबाई देवी का मन्दिर था। उस मन्दिर को देखकर वह वहां दण्डवत् प्रणाम के लिए जैसे ही आगे बढ़ा उसकी पावों की शक्ति पुनः जाती रही वह चलने में असमर्थ हो गया उसे बड़ी कठिनाई से नागोबा का कंधा पकड़ कर उस मन्दिर में ले जाया गया जहां उसने उस देवता को बीड़ा समर्पण किया। फिर वह महाराज के दर्शन के लिए चल पड़ा तो बड़े आश्चर्य की बात कि रेइनायक बिना किसी के आश्रय के महाराज की ओर कदम बढ़ाने लगा।
वह चलते-चलते छिन्नस्थली पर महाराज के दर्शन के लिए पहुंच गया। महाराज ने पूछा रेइनायक, बुखार आ गया। तो रेइनायक बोला ‘महाराज, यदि मैं पहले ही आपसे मेरा ज्वर दूर करने की प्रार्थना करता तो मेरा ज्वर अवश्यमेव दूर हो जाता।’ प्रभु जी, मैं जब आपके दर्शन के लिए चल पड़ा तो पांवों में अपने आप शक्ति आ गई परन्तु जब मैं डोंबाई देवता के दर्शन को गया तो मेरे पावों की शक्ति फिर चली गई। महाराज बोले— ‘जो भी व्यक्ति सब आश्रय छोड़कर यदि हमारी ओर मुख भी करता है तो हम उसको संभाल लेते हैं।’ रेइनायक ने श्री भगवान जी को भोजन भी करवाया। फिर जब वह लौटने लगा तो महाराज बोले- अब यह घोड़े द्वारा ही वापिस जा पायेंगे। भगवान की ओर बढ़ने पर तो भगवान सहायता करते हैं परन्तु पुनः यदि वह घर की ओर वापस लौटता है तो भगवान सहायता नहीं करते। इस प्रकार भगवान श्री चक्रधर महाराज जी के चरणों की सेवा से रेइनायक का कष्ट निवारण हुआ।
एक मनुष्य के जीवन में प्रभु जी के श्रीचरणों की सेवा का अत्यन्त महत्व में है। प्रभु चरणों की सेवा करने से ही मनुष्य के बड़े से बड़े कष्टों का निवारण होता है तथा वह सुख-शान्ति पूर्वक जीवन व्यतीत कर सकता है। मनुष्य के जीवन में परमेश्वर पर दृढ़ आस्था की परम आवश्यकता है। प्रभु जी की आस्था मनुष्य का सच्चा आश्रय है। धन साथ नहीं देता, रिश्तेदारी साथ नहीं देती, यश-कीर्ति साथ नहीं देती परन्तु प्रभु की आस्था सदैव आश्रय देती है। अतः आस्था बिना भी क्या जीवन है ? आस्था बिना जीवन तो एक पशवत् जीवन व्यतीत करना है। गीता में भगवान श्री कृष्ण सोलहवें अध्याय में कहते हैं, जो कुछ इस संसार में आकर अभिमान पूर्वक धन कमा कर तथा सांसारिक सुख भोगते हुए जीवन व्यतीत करता है वह मनुष्य नहीं कहा जा सकता, वह तो मनुष्य रूप में एक असुर अथवा राक्षस है। वह तो निश्चित ही नरकों, दुखों को ही प्राप्त करता है। वह इस धरती पर एक भार मात्र है। अतः प्रभु चरणों की सेवा जीवन में प्राप्त होना मनुष्य का परम सौभाग्य है।
प्रभुचरणों की सेवा जीवन में प्राप्त हो ऐसी मनुष्य को सदैव कामना करनी चाहिए। मनुष्य को इस जीवन में प्रभु की कृपा का पात्र बनने का प्रयत्न करना चाहिए। प्रभु जी आपको अपनी प्रीति, वेध, बोध, ज्ञान, अनुसरण, धर्माचरण करने की शक्ति देंवे ऐसी आप सब के लिए शुभकामना करता हुआ अपनी लेखनी को विराम देता हूँ।
श्रीदत्तात्रेय दर्शनयाचक स्तोत्र अर्थ👇
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