जीवोद्धार का व्यसन श्रीचक्रधर प्रभु अवतार

जीवोद्धार का व्यसन श्रीचक्रधर प्रभु अवतार

 जीवोद्धार का व्यसन श्रीचक्रधर प्रभु अवतार



सुष्टि रचना के उद्देश्य की पूर्ति के लिए परमेश्वर को संसार में अवतार धारण करना पड़ता है। परमेश्वर अवतार चाहे वे कच्छ हो, मच्छ हो देव हो, तोच (पक्षी) हो मनुष्य हो मनुष्य में भी वेडे हो, पीसे हो, अवरदर्शी हो, परदर्शी हो, उभय वर्गी हो, सभी का उद्देश्य यही होता है कि इन जीवों को दुःख मुक्त किया जाए, सुव दिया जाए, अविद्या के बन्धन तोड़ कर जीव को परमानन्द प्रदान किया जाए।

आज तक के इतिहान में सर्वज्ञ श्री चक्रधर स्वामी की अपनी अनेक विशेषता है जो अन्यत्र नहीं मिलती। स्वामी ने अपने ही श्री मुख से कहा है कि 'किसी अवतार को कोई व्यसन है, किसी अवतार को कोई व्यसन है, परन्तु हमें तो जीवों का उद्धार करने का ही व्यसन है।

व्यसन दो प्रकार के होते हैं एक अधः व्यसन और दूसरा ऊर्ध्व व्यसन व्यसन शब्द का अर्थ है आदत । अधः व्यसन दुःखों का बन्धनों का, का पापों का, शापों का कारण होता है। परन्तु उर्ध्वं व्यसन सुख शान्ति का परहित का कारण होता है। अधः व्यसन में स्वार्थ होता है और उर्ध्व व्यसन में, परमार्थ । उर्ध्व व्यसन (परहित जीव उद्धार व्यसन) के अधीन होकर स्वामी ने माता-पिता की ममता तोड़ो, देश व ग्राम का मोह छोड़ा और महाराष्ट्र में पहुंचे। ऋद्धिपूर में जाकर श्री गोविन्द प्रभु को निमित्त करके ज्ञान शक्ति को स्वीकार किया। प्रथम बारह वर्ष साल बर्डी के बियाबान जंगल में वैराग्य वृति धारण करके एकान्त में रहकर जीवों का चिन्तन करते रहे।

चिन्तन से योग्य हुए जीवों की खोज में स्वामी वहां से निकल पड़े। भण्डारा नामक ग्राम में जाकर निल भट्ट नामक विद्वान ब्राह्मण को दर्शन देकर अपनी ओर खींच लिया।

अधिकांश अवतार जीवों को शब्दों से ज्ञान बतला देते हैं। उस ज्ञान के अनुसार ज्ञानी आचरण करे या न करे उसकी इच्छा पर छोड़ देते हैं। स्वयं करके नहीं दिखलाते स्वामी का ऐसा नहीं था। वे शब्दों से समझाते थे ओर करके दिखलाते थे । सौलह वर्ष भण्डारे कार को स्वामी ने अपने सन्निधान में रखकर परमानन्द प्राप्ति के योग्य बनाया। महादेव भक्त को प्रेम का दान देकर केवल्य पद के योग्य बनाया ।

जीव उद्धार व्यसन के पीछे स्वामी देश-2, गाँव-2, गली-2, और घर जाकर अधिकारी जीवों की खोज करते थे । अधिकारी जीवों का योग न आने पर अनाधिकारी जीवों को अधिकारी बनाते थे । योग्य बना कर उसे ज्ञान देते थे । ज्ञान देकर चुप नहीं रहते थे स्वयं करके दिखलाते थे । स्वयं करके दिखलाना इस अवतार की खास विशेषता है कारण स्वामी ने स्वयं बतलाया है कि ‘बोल कर ज्ञान बतलाने वाले और आचार करके दिखलाने वाले अवतार दुर्लभ होते हैं ’

व्यसन के पीछे इन्सान सब कुछ त्याग कर देता है उसी तरह स्वामी ने जीव उद्धार व्यसन के पीछे सब कुछ त्याग करके अपने साधकों को दिखलाया है कि यदि आप लोगों को सचमुच ही संसार से घृणा है तथा मुक्ति की अभिलाषा है तो हम जिस प्रकार कह रहे हैं करके दिखा रहे हैं वैसे हो करना पड़ेगा। क्योंकि एक का त्याग किए बिना दूसरे की प्राप्ति नहीं होती। अतः स्वम्मी ने लड़की का न्याय देकर बतलाया है कि जिस तरह एक शरीर के पति का सुख प्राप्त करने के लिए माता-पिता देश गाँव आदि छोड़ने पड़ते हैं तब वह पति को प्रिय होती हैं। उसके घर मकान, जमीन व द्रव्यादि का भोग मिलता है। वैसे ही आत्मा के पति परमेश्वर को प्राप्त करने के लिए मनुष्य को शरीर सम्बन्धी व द्रव्यादि पदार्थों का त्याग करना अनिवार्य है।

जीवों के उद्धार के लिए स्वामी ने देश ग्राम सम्पत्ति और माता पिता का त्याग करके दुबारा अपने देश में नहीं गए। न कोई पैसा ही साथ में लेकर आए। इसका मतलब साघओं ने घर की द्रव्य सम्पत्ति को साथ में लेकर नहीं जाना चाहिए, रिश्तेदार दे फिर भी न लें। दुबारा लौट कर अपने देश में न जाएं। ज्ञान शक्ति स्वीकार करके स्वामी ने एकान्त वास करके बतलाया कि जो कुछ ज्ञान सुना हो उसका चिन्तन मनन करें। ज्ञान के अनुसार तपस्या करें । देश-2 गांव-2 गली-2 और घर-2 घूम कर स्वामी ने यह बतलाया है कि साधु पुरुष एक जगह पर ही डेरा लगाकर न बैठे। एक जगह बैठने पर अनेक प्रकार के आलिम्बन जीव के पीछे लग जाते हैं। आलिम्बन से विकार उत्पन्न होते हैं और विकार विकल्प की ओर ले जाता है। इस तरह के अनेक दोषों से बचने के लिए स्वामी ने साध के लिए अनियत वास करने की आज्ञा की है। भिक्षा विधि बतलाकर स्वामी ने पचन पाचन का आलिम्बन समाप्त करवाया। हाथ पर भिक्षा लेकर स्वामी ने पात्र का आलिम्बन समाप्त करवाया। नदी पर भोजन और पेड़ के नीचे निद्रा करके मठ-मन्दिर और आश्रम का आलिम्बन तुड़वाया ।

सारांश - उपरोक्त आचार करके स्वामी ने अपने साधकों को शीघ्रता से परमपद के अधिकारी बनाने का भरसक प्रयत्न किया है। स्वामी ने हमारे कल्याण के लिए सब प्रकार के कष्ट सहे हैं, अतः हमारा भी कर्तव्य बनता है कि परमात्मा के लिए हम भी कुछ करें। स्वामी के लिए नहीं, अपने लिए। यदि हम कुछ करेंगे तो इससे हमारा ही भला हैं। प्रसतिपरी का ज्ञान बतला कर स्वामी उत्तर दिशा की ओर गए परन्तु उनका ध्यान हमारी तरफ ही हैं। वे चाहते हैं कि मेरे भक्त मेरे द्वारा बतलाया हुआ उत्तम आचार करें। शीघ्रता से मेरे समीप पहुंचे। ऐसे परम कृपाल परमात्मा की जयन्ति के दिन हमने प्रण करना है कि परमात्मा के द्वारा जो भी हमें तन मन और धन प्राप्त हुआ है उसे प्रभु की सेवा में खर्च करेंगे ।


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