सुख साधन से भगवान कभी नहीं मिलते - दु:ख से दु:ख का नाश करते है
किसी भी धार्मिक कार्य का आरंभ करने पर परमेश्वर अवश्यमेव सहायता करते हैं परन्तु परमेश्वर तभी सहायता करते हैं जहाँ पर उस धर्म कार्य को करने के लिए परिपूर्ण कष्ट उठाया जाता है, प्रयत्न तथा पुरुषार्थ किया जाता है। केवल परमेश्वर के भरोसे बैठने पर तथा प्रयत्न, पुरूषार्थ न करने पर परमेश्वर कदापि सहायता नहीं करते। इसीलिए हमारे भगवान श्री चक्रधर महाराज जी ने यह उपदेश दिया है । पुरूष के प्रयत्न करने पर ही परमेश्वर सहायता करते हैं। दूसरी बात हमारे भगवान जी ने हमें आज्ञा रूप कही है - सुख की चाह करने से परमेश्वर की प्राप्ति कदापि नहीं हो सकती। परमेश्वर का मोक्षमार्ग कोई फूलों की सेज पर सोना नहीं है अपितु कांटों भरी राहों पर चलना है। अतः परमेश्वर की सेवा रूप जो भी धार्मिक कार्यक्रम किया जाता है उसमें मनुष्य को सदैव कष्ट उठाने के लिए तैयार रहना चाहिए तथा कष्टों की जीवन में आशा करनी चाहिए। साधारणत: संसार में लोग भाग दौड़ कर धन कमाते हैं, मकान बनाते हैं, व्यापार चलाते हैं, नौकरी पर भी बहुत कष्ट उठाते हैं परन्तु उनका उद्देश्य यही होता कि कष्ट उठाने के बाद उन्हें सुख प्राप्ति होगी, मेरे पास सुन्दर मकान होगा, फिर मेरी आज्ञा धारक पत्नी होगी तथा आज्ञापालक बच्चे भी होंगे। मेरे पास बहुत धन होगा तथा मुझे इस संसार में बहुत यश प्राप्त होगा तथा इन सबको प्राप्त कर मैं बहुत सुखी हो जाऊँगा। मनुष्य ऐसा सोचता तो जरूर है परन्तु उसे सुख मिलता भी है या नहीं यह तो केवल भाग्य पर ही निर्भर है।
हमारे भगवान श्री चक्रधर जी कहते हैं कि इस संसार का स्वरूप सुख रूप नहीं है वह तो दुःख रूपता है। दुःख रूपता क्यों है क्योंकि पाप मूलता है तथा अनित्यता है। यहाँ कोई सुख नित्य नहीं रहता, आखिर दुःख भोगना ही पड़ता है। कौन ऐसा व्यक्ति है जिसको दुःख प्राप्त नहीं होता। अतः हमारे भगवान श्री चक्रधर महाराज हमें आदेश देते हैं कि यदि हम मोक्षमार्ग पर अग्रसर होना चाहते हैं तो सुखों की चाह को त्याग कर दुःखों की ही आशा करनी है तथा सदा कष्ट उठाने के लिए तत्पर रहना है। हाँ इतनी बात जरूर है कि परमेश्वर के लिए, धर्म के लिए उठाये कष्ट में जो आत्म सन्तुष्टि तथा सुखानुभूति होती है वह संसार में कहीं पर प्राप्त नहीं होती। जिस बात को संसार के लोग सुख रूप कहते हैं वही दुःख रूप बन जाती है। जिस परिवार से सुखों की आशा की थी वह हमारे दुःख तथा अशान्ति का कारण बन जाता है, जिस यश को प्राप्तकर सुख चाहा था वह हमारे महान अपयश का, दुःख का कारण बन जाता है। अतः परमेश्वर के मार्ग पर चलते हुए तथा कोई धर्म कार्य करते समय जो कष्ट प्राप्त होता है वास्तव में संसार में वही सच्चा सुख है। इसीलिए तो पाण्डवों की माता कुन्ती श्री कृष्ण भगवान जी से सदैव यही वरदान मांगती थी, “प्रभु जी, मुझे यदि जीवन में कुछ देना है तो दुःख ही देना, कष्ट ही देना, आपके लिए उठाये कष्ट में ही वास्तव में जीवन का सच्चा सुख है" । अतः इस संसार में सच्चा सुख तो परमेश्वर के मार्ग पर चलते हुए दुःख, कष्टों को सहन करना है।
जीवन में धर्म मार्ग का अनुसरण करते समय जो दुःख कष्ट प्राप्त होते हैं उनका विश्लेषण करते हुए हमारे ज्ञानी लोग एक धूव सत्य प्रकट करते हैं कि सदैव दुःखों से, कष्टों से ही दुःखों की, कष्टों की निवृत्ति होती है। यह भी एक धूव सत्य है कि इस संसार में सबसे बड़ा सुख परमेश्वर है जिसकी प्राप्ति दुःख तथा कष्ट उठाने पर ही हो सकती है। सुखों के मार्ग का अनुसरण करने पर परमेश्वर प्राप्त नहीं होते अर्थात् जीवन में सच्चा सुख प्राप्त नहीं होता। उदाहरण के तौर पर प्रातः काल अमृतबेला में तीन से छ: बजे तक की अमृतबेला में पश्चात् प्रहर में बहुत नींद आती है। यदि हम अपनी नींद का त्याग करते हैं तो अवश्यमेव कष्ट होता है परन्तु इस कष्ट उठाने पर परमेश्वर के स्मरण का आनन्द प्राप्त हो सकता है। यदि हम अपने शरीर के सुखों के बारे में ही सोचते रहे कि पूरी नींद कर सुबह देर सूर्योदय होने पर मजे से उठेंगे तथा नहा-धोकर तरो ताजे होकर भगवान की पूजा-स्मरण करेंगे तो इससे अमृतबेला में प्रभु का स्मरण करने से प्राप्त होने वाला आत्मानन्द प्राप्त करने से हम वंचित रह जाते हैं। अतः निद्रा का निरोधकर जागने पर ही हम उस आत्मानन्द को प्राप्त कर सकते हैं। ऐसा करने पर हम श्री भगवान जी की एक आज्ञा पालन भी कर लेते हैं क्योंकि श्री भगवान जी ने यह आदेश दिया है कि पेट भर खाना तथा सुबह देर तक सोने से परमेश्वर के धर्म का अनुसरण नहीं हो सकता। अतः यदि हम अमृत बेला में कष्ट, दुःख सहनकर जाग जाते हैं तथा प्रभु भक्ति करते हैं तो इससे प्रभु जी प्रसन्न हो जाते हैं कि इस बालक ने मेरी इस आज्ञा का पालन किया है। जब प्रभु जी प्रसन्न हो जाते है तो क्या और कितना दे है इसे कोई जीव समझ नहीं सकता। हाँ इतना अवश्य है कि इस सारे संसार में केवल परमेश्वर ही सच्चे दाता हैं। अत: वे प्रत्येक जीव को कुछ न कुछ देते हैं परन्तु जो जीव उनकी आज्ञाओं का पालन करते हैं उनको तो वे आशातीत सुख देते हैं इसमें यत्किंचित् भी सन्देह नहीं है। अतः परमेश्वर के लिए दुःख कष्ट उठाने से ही परमेश्वर के सुख की प्राप्ति हो सकती है।
इसी प्रकार यदि हम परमेश्वर के ज्ञान को प्राप्त करने की चाह रखते हैं। क्योंकि परमेश्वर का ज्ञान भी एक बहुत बड़ा सुख है परन्तु उस ज्ञान को प्राप्त करने के लिए कष्ट उठाना परमावश्यक है। उस ज्ञान को प्राप्त करने के लिये अपने गुरू अधिकरण की संगति करना, पास रहना तथा उनकी दुःख उठाकर सेवा करना आवश्यक है। कष्ट-दुःख उठाकर प्राप्त किया हुआ ज्ञान ही सच्चा ज्ञान है। वह ज्ञान फल रूप होता है। यदि हम किसी गुरू अधिकरण को धन से खरीद कर उससे ज्ञान प्राप्त कर ज्ञानी बनना चाहते हैं तो उससे हम गुरु द्रोही, परमेश्वर द्रोही ही बनेंगे। ऐसी भावना होने पर हमारी गुरू पर विपरित बुद्धि आना स्वाभाविक है। हम सोचते हैं कि हमने ज्ञान तो पढ़ा है पर उसके लिए गुरू को धन दिया है। धन से ज्ञान की प्राप्ति नहीं होती, केवल सेवा का है कष्ट उठाने पर ही गुरू से सच्चा ज्ञान प्राप्त हो सकता है तथा वह ज्ञान फलरूप हो सकता है। अतः सेवा कर कष्ट उठाने पर ही ज्ञान की प्राप्ति सम्भव है तथा ज्ञान प्राप्त होने पर ही परमेश्वर के सुख का अनुभव हो सकता है। परमेश्वर का ज्ञान कष्ट से प्राप्त होता है तो परमेश्वर का प्रेम तो अत्यन्त कष्टों से प्राप्त होता है। किसी कवि ने कहा है कि सीस दिये जो प्रभु मिले तो भी सस्ता जान।
इसी प्रकार कष्ट उठाये बिना तो परमेश्वर के भक्तों की भेंट तथा सेवा भी नहीं हो सकती। परमेश्वर के भक्तों की भेंट के लिए तो चलकर वहाँ जाने का कष्ट उठाना ही पड़ता है तथा भेंट होने पर उनकी सेवा भी करनी ही पड़ती है। इसी प्रकार कोई बीमार अशक्त प्रभु का भक्त हमारे पास चलकर नहीं आता है हमें ही स्वयं उसके पास जाकर कष्ट उठाकर उसकी सेवा करनी चाहिए तथा इसी से प्रभु भक्तों की भेंट तथा सेवा का सच्चा सुख हमें प्राप्त हो सकता है। अतः एक तमोगुणी, आलसी, सुस्त के लिये धर्माचरण करना असम्भव है तथा जो धर्माचरण नहीं कर सकता वह परमेश्वर के सुख का स्वाद कैसे ले सकता है ?
परमेश्वर के धर्म का अनुसरण करते समय अवश्यमेव दुःख का मार्ग अपनाना पड़ता है परन्तु यह जीव बहुत विचित्र है। यह जीव थोड़ा सा कष्ट-दुःख परमेश्वर के लिए उठाता है तो सारी दुनिया में उसका ढिंढोरा पीटता है। जो उसे मिलता है उसे कहना शुरू कर देता है कि मैंने परमेश्वर के लिए यह सेवा की है तथा इतने कष्ट उठाये हैं। मैंने भगवान के लिए इतना कष्ट उठाया है, सोने की लंका का त्याग कर संन्यास लिया है। दुनियां के सुखों को संन्यासाश्रम धारण किया है। ऐसा करने पर परमेश्वर उसके त्याग को स्वीकार ठुकराकर नहीं करते। यह तो परमेश्वर की सेवा करना नहीं है अपितु परमेश्वर सेवा का बहाना कर अपनी कीर्ति को बढ़ाना मात्र है। कीर्ति की भावना से किया गया त्याग कदापि संन्यास नहीं हो सकता। ऐसा करने पर कीर्ति तो बहुत मिलेगी परन्तु प्रभु जी अवश्यमेव उस जीव से दूर हो जाते हैं। हमारे श्री भगवान जी कहते हैं कि कीर्ति की भावना से किया गया वैराग्य भी हैं एक प्रकार का विकार दोष है। अत: हम चले थे दोषों को दूर करने परन्तु हम और अधिक दोषों में फंस जाते हैं।
अतः एक महात्मा के लिए कीर्ति की अभिलाषा कर धर्माचरण करना एक बहुत बड़ा दोष है। चाहे वह कितना ही धर्माचरण कर ले परन्तु परमेश्वर उसकी सेवा को कभी स्वीकार नहीं करते। इतने विद्वान माहिमभट्ट जी श्री गोविन्द प्रभु महाराज जी की सेवा करते समय एक दिन ऐसा सोचने लगे कि मैं कमाई कर धन कमाता हूँ तथा श्री प्रभु महाराज जी को अनेक पदार्थ बनवाकर भोजन कराता हूँ। श्री गोविन्द प्रभु महाराज जी ने उस दिन उसका भोजन स्वीकार नहीं किया। अतः जहाँ मैं है वहाँ सेवा नहीं तथा जहाँ सेवा नहीं वहाँ प्रभु सुख की प्राप्ति नहीं। अतः निष्काम भाव से प्रभु सेवा समझकर जो धर्म कार्य किया जाता है उसमें परमेश्वर आशातीत सफलता प्रदान करते हैं तथा स्वयं खड़े होकर सहायता भी करते तथा सिद्धि सुख तथा परमगति प्रदान करते हैं। किसी ने ठीक ही कहा है-है जीत तुम्हारे हाथों में, है हार हमारे हाथों में।
सर्वप्रथम प्रभु जी पर वीड़ा चढ़ाकर धर्म कार्य प्रभु का आश्रय लेकर करना है तथा प्रभु जी से यही प्रार्थना की जाती है कि प्रभु जी इस अनुसरण को आपने ही सम्भालना है।
मराठी में एक कवि ने कहा है
मी अनाथ दीनदुबळा नसे कोणताही आधार।
तू हात दिला नाही तर घेईन माघार।
हे श्री कृष्ण भगवान जी आपने ही गोवर्धन पर्वत अपनी छोटी अंगुली पर धारण करना है हमने तो केवल नीचे अपनी-2 लाठियाँ ही लगानी हैं परन्तु हमें यह भली-भांति ज्ञात है कि यह गोवर्धन हमारी लाठियों पर टिका नहीं है वास्तव में वह तो अपनी परम शक्ति से ही आपने धारण कर रखा है। यह सब प्रभु जी ही कर रहे हैं।
न हममें बल है न हममें शक्ति,
न हममें साधन न हममें भक्ति,