तीन प्रकार के लोग - tin prakarke log
संसार में तीन प्रकार के मनुष्य देखे जाते हैं। विद्वान् पठत मूर्ख और मुर्ख विद्वान् जो होते हैं वे सत्य भाषण करते हैं और सत्य ही लिखते हैं उनकी वाचा और लेखनी में रस होता है, प्रेम होता है, श्रद्धा होती है, भक्ति होती है, साधन दाता को सम्बोधित करते हुए या लिखते हुए श्री के सिवाय नाम नहीं लेते। पठत् मूर्ख होते है ये भाषण करते हुए पहले तो अपनी डिग्रियों का प्रदर्शन करते हुए अपने आपका बड़प्पन प्रकट करते रहते हैं।
उनमें साधन दाता परमेश्वर के प्रति श्रद्धाभाव का अभाव होता है क्योंकि जो बातें अन्तःकरण में होतो हैं वही यांचा के द्वारा निकलती हैं या लिखी जाती हैं। पठतु मूर्ख जब परमेश्वर अवतारों के विषय में कुछ बतलाते हैं तो बिना 'श्री' लगाए ही 'कृष्ण ने ऐसे कहा', 'चक्रधर ने ऐसे कहा' बोलते हुए दिखाई देते हैं। इसी प्रकार वे बिना श्री के अवतारों के नाम लिखते है। 'पठत् मूर्खों की विद्या केवल पेट भरने और मान-सम्मान के लिए होती हैं।
ऐसे लोगों का बोला हुआ या लिखा हुआ प्रेम उत्पन्न नहीं करता। श्रोता गण एकाग्रचित्त होकर नहीं सुनते, सभा में हो इधर-उधर की बातें चलने से क्रोध के वशीभूत होकर श्रोताओं पर डाट-फटकार शुरु कर देते हैं। अपना एहसान जतलाना शुरु कर देंगे कि हम पढ़े लिखे विद्वान् है, आप लोगों को शिक्षा दे रहे हैं, सुनते क्यों नहीं ? आप लोग सुनते नहीं, न दूसरों को हो सुनने देते है, पाप कमा रहे हैं। इस प्रकार श्रोताओं को डराते हैं।
ऐसे लोग यह नही सोचत कि जो बातें हम श्रोताओं को तला रहे हैं इस पर हमने खुद कितना अमल किए ? पठत् मूर्ख बहुत दुःखी रहते हैं। ऐसे लोगों को बैठने को आसन, खाने के लिए पटड़ा (पाठ) और दक्षिणा अधिक न मिले तो पेट भर नहीं खाते। दूसरे स्थान पर जाकर निन्दा करते हुए आप तो दुःखी रहते ही हैं, दूसरों को भी दुःखी कर देते हैं।
तीसरे मूर्ख यानि जिसको कुछ आता नहीं। 'पठत मूर्खों की अपेक्षा अज्ञानी अनेक बातों में अच्छे होते हैं, इस प्रकार स्वामी ने कहा है। अज्ञानो झूठ बोलने से पाप कर्मों से डरता है वैसा 'पठत् मूर्खो' का नहीं। 'पठत् मूर्ख' झूठ बोल सकता है, शब्द-बाणों से दूसरे के अन्तःकरण देव सकता है, भरी सभा में विद्वानों का अपमान कर सकता है। सारांश : अज्ञानियों की अपेक्षा अनेकगुणा अधिक पाप 'पठत् मूर्ख' करसकते हैं।
सत्य की शिक्षा :- संसार की रीति है कि समानता के सिवाय प्रीति नहीं होती, "परमेश्वर" सत्य स्वरूप है, अतः सत्य भाषण करने वाला, सत्य कर्म करने वाला "साधक" ही परमेश्वर को प्रिय होता है। यदि साधक लाख सेवा करे परन्तु सत्य नहीं बोलता तो परमेश्वर भूल कर भी उस पर प्रसन्न नहीं हो सकते। अतः साधक को चाहिए कि भूल कर हंसते हुए भी असत्य भाषण न करें। असत्य भाषण करने वाले के हाथों से बड़े-2 पाप हो जाते हैं। असत्य भाषण करने वाले बाह्मण के सिर पर महादेव भक्त की हत्या का पातक लग गया था। असत्य भाषण करने से धांदल किसान अनेकों की हत्या का कारण बना था।
किसी भी सेवा के निमित्त जिस वस्तु की और जितनी वस्तु की जरूरत हो वही वस्तु और उतनी ही वस्तु की मांग करने पर परमेश्वर सहायता करते है। स्वार्थवश जो मनुष्य झूठ बोल कर अपना कार्य करना चाहता है तो परमेश्वर की ओर से सहायता नहीं होती। परमेश्वर सर्वज्ञ है, अन्तर्यामी है, सर्व समर्थ है उसको तन मन अर्पित कर देने पर झूठ बोल कर दव्यादि किसी भी वस्तु की मांग करना "ब्रह्मविद्या शास्त्र के विरूद्ध है। यदि परमात्मा ने साधक से सेवा लेनी हो तो उसकी व्यवस्था परमेश्वर करते है।
स्वामी के दर्शन से भण्डारेकर (निलभट्ट) को निश्चय हो गया कि मेरे द्वार पर आए हुए पुरुष भिक्षा मांग कर पेट पालन करने वाले नहीं है। ये तो अन्तर्यामी है और मेरे हितक्ष है, अतः स्वामी के साथ चल पड़े। आगे चल कर उन्हें पश्चाताप होने लगा कि दुनियां के स्वामी मेरे घर आए परन्तु दुर्भाग्य के कारण मैं सेवा नहीं कर सका, जबकि किसी वस्तु की घर में कभी भी नहीं थी। भंडारेकार निलभट्ट की आन्तरिक इच्छा को समझकर स्वामी ने अचलपुर की रानी के माध्यम से उनके हाथों से रत्न माणिक मोती आदि सह पूजन स्वीकार किया।
असत्य भाषण सभी अनर्थ का कारण है, सभी पापों का उद्गम स्थान है। जितने भी दुनियां के पाप हैं असत्य बोलने वाले के हाथों से हो सकते है। अतः साधकों को चाहिए कि असत्य भाषण का स्पर्श न होने दें। परधर्म की सेवा करना चाहते है। तीर्थों की सेवा करने की इच्छा है। मठ-मन्दिर बनाने के इच्छुक है। मार्गों में पंगत करना चाहते हैं तो सत्यता पूर्वक भिक्षा की मांग करें। भिक्षा मांगना पाप नहीं है। झूठ बोलना पाप है। वैसे ही धर्म के लिए मांगना पाप नहीं है, अपने स्वयं के लिए मांगना पाप है। कबीर दास कहते है -
मांगु नहीं मर जाऊं में अपने तन के काज
परमार्थ के कारणे मोहे नहीं आवे लाज ॥