15-6-2022
सदैव सत्य तथा प्रिय भाषण करें - Always speak truthfully and dearly
संसार का प्रत्येक व्यक्ति यही चाहता है कि उसके साथ - सभी सत्य तथा प्रिय बोलें। झूठ तथा अप्रिय भाषण करने वाला व्यक्ति कभी भी मान-सम्मान प्राप्त नहीं कर पाता। एक झूठ को छिपाने के लिये अनेक झूठ बोलने पड़ते हैं, फिर भी यथार्थ बात प्रकट हुए बिना नहीं रहती। झूठ बोलना हिंसा का ही एक प्रकार है, क्योंकि झूठ का पता चल जाने पर जिसके साथ झूठा वर्ताव किया जाता है, उसके अन्तःकरण को बड़ी भारी चोट पहुँचती है। किसी के भी दिल को दुःख पहुँचाना ही हिंसा है। किसी कवि ने लिखा है:
"पर पीडनम् पाप:
अर्थात् दूसरों को कष्ट पहुँचाना ही पाप है। मेरे ख्याल से प्रत्येक धर्म सम्प्रदाय ने झूठ, असत्य व्यवहार का निषेध किया है। यदि कोई धर्म के नाम पर झूठ तथा असत्य का व्यवहार करता है या दूसरों को झूठ बोलने की प्रेरणा देता है, तो उसे धर्म नहीं कहा जा सकता। मनु स्मृति में सत्य - अहिंसा को धर्म का लक्षण कहा है। गीता में भगवान ने कहा है कि- उद्वेग रहित, सत्य, प्रिय और हितकर भाषण करना वाचा का तप है।
सत्यवादी राजा हरिशचन्द्र की परिक्षा हो रही थी। राज्य छूट पत्नि और पुत्र सहित तीनों प्राणी बिक गए। हरिशचन्द्र गया, शमशान में सेवा कर रहा था। पुत्र रोहितास की मृत्यु हो जाने से रानी उसे शमशान में लेकर आई। रात का समय था, रानी के पास शमशान का कर चुकाने के लिए भी नहीं था। राजा ने कहा कि कर चुकाए बिना यहां किसी को जलाने नहीं दिया जाता। रानी ने सोचा - राजा के मन में पुत्र की ममता और दैन्यता पर तरस न आ जाए अतः राजा को सावधान करते हुए कहा कि:
सत्य मत छोड़े शूरमा, सत छोड़े पत जाए ।
सत की बांधी लक्ष्मी, फिर मिलेगी आए ।
अर्थात् राजन्! आप सत्य पर अडे रहो, अभी मैं कर चुकाने का दम रखती हूँ। रानी ने पुत्र का संस्कार करने के लिये अपनी पहनी हुई साड़ी को आधी फाड़ कर, कर के रूप में पेश की। यह देख कर देवताओं ने पुष्प वर्षा करके राजा हरिशचन्द्र तथा रानी तारामती का स्वागत किया। कबीर दास लिखते हैं: -
सांच बराबर तप नहीं, झूठ बराबर पाप ।
जाके हिरदे सांच है, ताके हिरदे प्रभु आप ।।
कहने का तात्पर्य यह है कि - यदि मनुष्य सत्यवादी है तो, तप की जरुरत नहीं और यदि झूठ बोलता है तो दूसरे पाप कर्म की आवश्यकता नहीं। अर्थात् सत्य बोलना तप से बढ़ कर है और झूठ बोलना पापों से अधिक है। परमेश्वर सत्य स्वरुप है, सत्य व्यक्ति के हृदय में ही परमेश्वर का वास होता है। धर्म कहता " है “सत्य वद्” अर्थात् सदा सत्य बोलो।
हमारे साधनदाता सर्वज्ञ श्री चक्रधर महाराज ने सत्य बोलने के लिये अपने भक्तों को बार- 2 समझाया है। स्वामी ने कहा है कि- “हिंसा करना पाप है और पाप कर्म के बदले में जीव को नरक यातना भोगनी पड़ती है"। झूठ बोलने से दृष्ट पर तीनों ताप प्राप्त हो सकते हैं। अदृष्ट पर परमेश्वर को खति (नफरत ) आती है। वही झूठ वर्ताव का प्रसव बढ़ जाए तो परमेश्वर अवतारों तक पहुँच कर नित्य नरक का महाद्वार खुल जाता है, जहां पर बचाव की आशा ही नहीं रहती।
स्वामी ने एक बार भक्तों को समझाया कि - झूठ बोलने से धांदुल नामक किसान अनेकों के साथ स्वयं भी मृत्यु को प्राप्त हुआ। भक्तों की प्रार्थना पर स्वामी ने प्रसंग बतलाया कि - धांदुल नामक एक किसान था। उसने अपने खेत में कपास लगाई हुई थी। एक दिन स्वर्ग से ऐरावत हाथी आ गया, जिसने धांदुल के कपास को बहुत नुक्सान पहुँचाया, जिससे धांदुल को बहुत दुःख हुआ। अगले दिन अपने खेत में रात के समय धांदुल कम्बल ओढ़ कर, हाथ में लाठी लेकर, छिप कर बैठ गया।
दूसरे दिन फिर ऐरावत हाथी आया, जिसे देख कर धांदुल ने सोचा कि यह कोई भैंसा है, धांदुल धीरे से उसके पास गया और उसकी पूंछ पकड़ कर उसकी पीठ पर जोर से लाठी मारी, जिससे हाथी उत्पवन करके स्वर्ग में पहुँच गया। धांदुल ने इन्द्र दरबार में पहुँच कर गुस्से में इन्द्र को कहा कि तुम्हारे - भैंसे ने मेरा कपास का खेत बर्बाद कर दिया है। मैं गरीब आदमी मारा लोगों का कर्ज मैं किस प्रकार उतारुँगा ? इन्द्र ने कहा कि तेरा जितना नुक्सान हुआ है, उतना सोना ले जा, या जितना तू आप उठा सकता है, उतना उठा ले जा परन्तु याद रखना कि आगे के लिये इसे खेत में चरने से रोकना मत।
धांदुल ने हाँ करते हुए कम्बल में बहुत सारा सोना बाँध लिया और इन्द्र को पूछा कि - अब मैं जाऊँ किस तरह? इन्द्र ने कहा कि- तू जिस तरह आया है, उसी तरह चला जा । धांदुल ने सोने की गांठ पीठ पर बांधी और ऐरावत की पूंछ पकड़ कर घर पहुंच गया। हुआ क्या कि- अब तो धांदुल ने अच्छा सुन्दर महल बना लिया, खाने-पीने, ऐश-आराम की सभी सामग्रियाँ एकत्र कर लीं। बड़े आनन्द से दिन व्यतीत करने लग गया।
दूसरे मजदूरों ने धांदुल से पूछा कि तेरे को इतना द्रव्य कहां से प्राप्त हुआ? धांदुल ने झूठ बोलते हुए कहा कि मैंने स्वर्ग में कपास का व्यापार किया, जिससे मुझे लाभ हुआ। दूसरे मजदूरों ने उससे कहा कि- हमने भी कपास एकत्र किया है, हमें भी स्वर्ग में ले चल। धांदुल ने बहुत सारे मजदूरों को रात के समय अपने खेत पर बुला कर कहा कि एक दूसरे की कमर पकड़ कर तय्यार रहो। धांदुल ने ऐरावत की पूंछ पकड़ कर एक को अपनी कमर पकड़ा कर ऐरावत को स्वर्ग की ओर जाने का इशारा किया।
धांदुल सहित सभी स्वर्ग की ओर उड़ते हुए जा रहे थे। धांदुल की कमर जिसने पकड़ी थी, उस बुढ़िया माता को ज्यादा बोलने की आदत थी। वह धांदुल को पूछने लगी कि - धांदुल दादा! स्वर्ग में कपास का भाव क्या है? धांदुल ने हाथी की पूंछ छोड़ कर दोनों हाथ फैला कर कहा कि- इतने कपास के इतने रुपये। धांदुल सहित सब के सब मजदूर गिर कर मर गए। झूठ बोलने से अनेक मजदूरों सहित धांदुल भी मौत के मुख में साथ ही सब की हत्या का पाप भी उसके सिर ही पड़ा।
उसी तरह स्वामी भक्तों सहित परिभ्रमण करते हुए एक गांव को गए। उस गांव में ब्राह्मणों के मकान बहुत कम थे अतः सभी साधुओं को पर्याप्त मात्रा में भिक्षा नहीं मिल सकेगी, इसलिये स्वामी ने श्री नागदेव जी को गांव में महाजनों के पास भेजा तथा राशन के प्रबन्ध का सन्देश दिया। महाजनों को जाकर उन्होंने कहा तो उन्होंने पूछा कि - खाना खाने वाले कितने महात्मा हैं तथा दूध पीने वाले कितने महात्मा हैं? श्री नागदेव जी ने कह दिया कि इतने - महात्मा भोजन करने वाले हैं और इतने दूध पीने वाले हैं। ( उस समय महाराष्ट्र में "पयोवृत्ति पंथ” प्रसिद्ध था, बाईसा उसी पंथ की एक महान तपस्विनी तथा उम्र में बड़ी समझी जाने वाली थी ) ।
इसलिये यह महाजन लोग कहीं यह न समझें कि इस पंथ में रहने दूध पर वाले कोई तपस्वी नहीं हैं अत: संभावना रखने के लिये श्री नागदेव जी ने झूठ ही कह दिया कि इतने महात्मा “पयाहारी" हैं। महाजन लोगों ने दूध तथा कच्चा राशन लाकर, भगवान के सामने रख कर प्रार्थना की कि- महाराज! यह राशन भोजन करने वालों के लिये है तथा यह राशन व्रत वालों के लिये है। महाजनों के चले जाने पर भगवान ने श्री नागदेव जी को पूछा कि यहाँ पर दूग्धाहारी कौन है ? सभी तो भोजन करने वाले हैं। स्वामी ने कहा कि - "इस प्रकार का झूठ नहीं बोलना चाहिए, नम्रता पूर्वक सत्य बोलना चाहिए'। जो वस्तु और जितनी वस्तु लगे वही और उतनी ही मांगनी चाहिए, ऐसा करने से परमात्मा की ओर से सहायता होती है।
हमारी सन्त परम्परा ऊंच कोटी की है। पूराने समय में हमारे सन्तों के मार्ग- मण्डल गांव- 2 जाकर धर्म प्रचार करते थे। वहां की आवश्यकता के अनुसार प्रचार करके अगले गांव को चले जाते थे। यदि कोई कहता कि- एक दिन और ठहरो, मेरी ओर से भोजन रह गया है, तो उनका यही उत्तर होता था कि यहां का हमारा धर्म कार्य पूरा हो गया है, दूसरा कोई मार्ग - मण्डल आए, उनको पंगत कर देना।
यदि कोई नए कपड़े देना चाहता तो उसको भी यही कहा जाता था कि - हमारे कपड़े तो ठीक हैं, जिन महात्माओं के पुराने वस्त्र हों उन्हें देना। इसी सत्यता के बल पर हमारे पंथ के हजारों साधु-तपस्वी सैंकड़ों वर्षों से निस्पृह वृत्ति से धर्माचरण करते आ रहे हैं। किसी भी मठ-मन्दिर या आश्रमों में नियत आय नहीं है। वहां के पुजारी या संचालकों को संस्था की ओर से पगार नहीं दी जाती, निष्काम भाव से सेवा की जाती है। यह हमारे पंथ का सबसे ऊंचा रिकार्ड है। हमारे पंथ के साधु-संन्यासी गली-2 या बाजारों में किसी से मांगने के लिये नहीं जाते। भले ही हमारे साधु-संन्यासी निर्धन हों परन्तु संतोष रुपी धन का महान खजाना उनके पास में होता है अत: उन्हें सबसे अधिक धनवान कहना चाहिए। “साधनदाता' की कृपा से हमारे पंथ के हजारों साधुओं को वस्त्र और भोजन की कमी कभी नहीं आई। बड़े -2 दुष्काल पड़ते हैं, ऐसे समय में भी कभी खाने-पीने की कमी नहीं आई।
हमारे प.पू. प. म. श्री गुरु जी की शुरु से ही वैराग्य वृत्ति रही अतः जो कुछ भी द्रव्य धर्म हेतु से प्राप्त होता था, शीघ्र ही धर्म कार्यों में खर्च कर देते थे। अनेकों बार ऐसा समय आया कि- -रात के समय अगले दिन के भोजन का प्रबन्ध नहीं परन्तु सूर्य उदय होते - 2 ही मार्ग के भोजन का प्रबन्ध हो जाता था। कोई भी भक्त आकर कह देता कि आज का भोजन मेरी ओर से करें।
नवसारी में हमारा मार्ग था, किसी की ओर से चार महिने का खर्च था। प. म. श्री गुर्जर बाबा का मार्ग भी वहां आने से स्वभाविक ही 4 महिने का राशन दो मास में खर्च हो गया। अगले दो मास के खर्च का प्रबन्ध भगवान ने किस तरह किया कि जलका - नामक गाँव के पटेल को स्वप्न दिखा। स्वप्न में हमारे श्री गुरु जी और श्री गुर्जर बाबा दोनों दिखाई दिये। श्री गुर्जर बाबा जी ने श्री गुरु जी की ओर हाथ करते हुए कहा कि इन्हें मार्ग के खर्च - के लिये दान करो। पटेल ने कहा, क्या सेवा करुँ ? बाबा जी ने कहा, 10 बोरी ज्वारी तथा ऊपर के खर्च के लिये 200 रु. नकद दे दो। दूसरे दिन पटेल बैलगाड़ी पर 10 बोरी ज्वारी तथा 200 रु. नगद लेकर आश्रम में पहुंच गया तथा स्वप्न का सम्पूर्ण वृतान्त सुना कर ज्वारी तथा रु. श्री गुरु जी को अर्पण कर दिये।
सारांश: - जो भी "साधक" परमेश्वर पर विश्वास और अटल श्रद्धा रखते हुए सत्य वर्ताव करता है, प्रिय भाषण करता है तो उसका योग क्षेम गीता के सिद्धान्त के अनुसार परमेश्वर को चलाना पड़ता है।
लेखक :- प. पू. प. म.कै. ज्ञान के भंडार ईश्वरपरायण गुरुजश्री मुकुंदराज बाबाजी (चंडिगढ)