भगवान श्री गोविन्द प्रभु महाराज जी से सम्बन्धित - श्री क्षेत्र ऋद्धपुर, परमेश्वरपुर
महानुभाव जयकृष्णी धर्म के चतुर्थ अवतार भगवान श्री गोविन्द प्रभु महाराज जी का नाम ऋद्धपुर नगरी से जुड़ा हुआ है। ऋद्धपुर नगरी को महानुभाव से पंथ में परमेश्वरपुर भी कहा जाता । यद्यपि श्री भगवान जी का जन्म काटसुरा में हुआ परन्तु श्री गवान जी ने अपनी सम्पूर्ण, अवतार कार्य ऋद्धपुर में किया । श्री भगवान जी का इस नगरी से 125 वर्ष सम्बन्ध रहा।
श्री भगवान जी ने अपना सम्पूर्ण अवतार कार्य इसी नगरी में किया तथा इतने लम्बे समय तक इस नगरी को सम्बन्ध देकर परम पवित्र बना दिया इसलिए इस नगरी को परमेश्वरपुर अथवा महानुभाव पंथ की काशी, वाराणसी कहा जाता है। भगवान श्री चक्रधर महाराज जी भी इस नगरी को परम पवित्र मानते थे। जब दूर से इस नगरी के मन्दिरों के कलश नजर आने लगते थे तो महाराज अपने भक्तों को साष्टांग दण्डवत् प्रणाम करने का आदेश देते थे। तब स्वयं भी श्री भगवान जी दोनों हाथ जोड़कर इसको नमस्कार कर वन्दन करते थे।
यह ऋद्धपुर परमेश्वरपुर महानुभाव जयकृष्णी पंथ के प्रचार तथा प्रसार का केन्द्र भी बन गया। भगवान श्री चक्रधर महाराज जी के उत्तर की ओर प्रयाण करने पर उनके परम शिष्य, इस पंथ के प्रथम आचार्य श्री नागदेव जी इसी स्थान पर रहने लगे तथा अपने पाँच सौ शिष्यों के गुरुकुल का धार्मिक मार्गदर्शन करने लगे। बस यही महानुभाव जयकृष्णी धर्म के गत 800 वर्ष में होने वाले निरन्तर प्रचार तथा प्रसार का केन्द्र बना।
अतः महानुभाव जयकृष्णी धर्म के अनुयायी इस नगरी को परम पवित्र मानते हैं। ऐसी भी मान्यता है कि जो भी व्यक्ति श्रद्धापूर्वक इस स्थान पर जाने के बारे में विचार भी करता है वह परमेश्वरीय कृपा का पात्र बन जाता है। फिर इस नगरी को जाने के लिए जो तैयार हो जाता है। अथवा वहाँ के तीर्थ स्थानों के वन्दन, पूजन करने के लिए एक एक कदम चलता है उसकी ओर श्री भगवान जी की कृपा दृष्टि हो जाती इसमें कोई सन्देह की बात ही नहीं है।
भगवान श्री चक्रधर जी के जो भी शिष्य इस नगरी को जाने के लिए कहते थे तो श्री भगवान जी उन्हें इस नगरी का महात्म्य थे तथा वहाँ जाने की सदैव प्रेरणा देते थे। इस नगरी की ओर उठे एक-एक बताते कदम का परमेश्वर को कितना तोष होता है यह द्वारा वर्णन नहीं किया जा सकता । वास्तव में इस सम्पूर्ण विश्व में यह स्थान परम पवित्र है इसमें कोई सन्देह की बात ही नहीं है ।
ऋद्धपुर यह परम पवित्र तीर्थ स्थान जो आज एक छोटे से गाँव के रुप में दिखाई देता है, आठ वर्ष पूर्व यह एक अत्यन्त वैभव शाली महानगर था। इस महानगर में लगभग 19 बाजार पेठ (हाट) थे। इस नगर में लगभग 125 मन्दिर थे जिनके गगन चुम्बी कलश दूर से ही चमकते थे। इस नगर में अनेक देवी-देवताओं के स्थान थे।
इस नगर के चारों ओर एक पक्की पत्थर की बनी दिवार थी। चारों दिशाओं में चार महाद्वार थे जिनके रास्ते नगर के मध्य राजमठ को पहुँचते थे। इस नगर में वेदशाला भी थी जहाँ बाहर से आकर विद्यार्थी वेदाध्ययन करते थे। इस नगर में न्यायालय भी था जहाँ लोगों को न्याय भी प्राप्त होता था। ऐसा एक समय का वैभवशाली महानगर आज खंडहर मात्र शेष है तथा एक गाँव मात्र है यह देखकर बड़ा आश्चर्य होता है। इसका कारण मुसलमान बादशाह औरंगजेब है जिसने महाराष्ट्र में जगह-2 आक्रमण कर वहाँ के नगरों को कर दिया। यह बहुत खेद का विषय है।
भगवान श्री गोविन्द प्रभु महाराज के अवतार लेने से पूर्व इस नगर में लोग भिन्न-भिन्न देवी-देवताओं की भक्ति करते थे। जहाँ आज राजमठ है वहाँ एक नृसिंह का मन्दिर था। भगवान श्री गोविन्द प्रभु जी का जन्म स्थान काटसुरा था। परन्तु उनके जन्म के उपरान्त उनके पिता काणवशाखी ब्राह्मण अनन्तनायक तथा माता नेमाईसा बहुत दिन तक जीवित न रह सके तथा उन दोनों का उनके बचपन की अवस्था में ही देहान्त हो गया।
अतः उनके मामा तथा मौसी ने उनका लालन-पालन किया। आठ वर्ष की अवस्था में उनके मुंजी बन्धन (जनेऊ धारण) करने पर उनको वेद पढ़ने के लिए ऋद्धपुर में उनके मामा तिकोपाध्याय के घर में लाया गया। तब से श्री भगवान जी ने अपनी सम्पूर्ण आयु इसी नगरी में व्यतीत कर दी। श्री भगवान जी का कोई एक निश्चित निवास नहीं था। वे इस नगर में सर्वत्र जाते थे, इस नगर का कोई स्थान उनसे छूटा न था। वे यदि ब्राह्मणों की बस्ती में जाते थे तो शूद्रों की बस्ती में जाने से उन्हें कोई रोक न सका क्योंकि उस समय जातिवाद छुआ-छूत बहुत माना जाता था।
इस नगर के महाजन जो ब्राह्मण वर्ग के थे उनका शूद्रों के यहाँ जाना ठीक नहीं समझते थे तथा इस बात पर आपत्ति भी की परन्तु श्री गोविन्द प्रभु महाराज उनके अधीन नहीं थे। वे ऋद्धपुर के राजा (राउळ) थे। उनको राउळ माय, राउळ बाप कहा जाता था। वास्तव में वे इस नगरी के माता-पिता थे। उनका सम्बन्ध प्रत्येक घर से तथा प्रत्येक घर की प्रत्येक समस्या से था।
अतः श्री गोविन्द प्रभु महाराज ऋद्धपुर नगरी के सर्व सर्वा थे। कोई उनकी आज्ञा का उल्लंघन करने का तथा उनका विरोध करने का साहस नहीं करता था। वे ऋद्धपुर के प्रत्येक घर के प्यारे थे तथा सबकी समस्यायें सुलझाते थे। श्री गोविन्द प्रभु महाराज जी ने ऋद्धपुर नगरी को अपने अवतार कार्य के लिए अपनी कर्मभूमि बना लिया।
श्री भगवान जी ने इसी नगरी में निवास कर जीवोद्धार का कार्य अपने ढंग से किया। एक बार इस नगरी के लोगों का साथ के किसी गाँव के लोगों से वैमनस्य हो गया तथा वे एक-दूसरे के साथ लड़ने के लिए एक मैदान में एकत्रित हुए परन्तु तभी श्री गोविन्द प्रभु महाराज जी जाकर उन दोनों के मध्य में खड़े हो गये तथा उन दोनों को वापिस जाने को कहा।
किसी में उनकी आज्ञा का उल्लंघन करने का साहस न था। इस प्रकार श्री प्रभु महाराज इस नगर के सच्चे राजा थे वहाँ के लोगों के दिल पर राज्य करते थे। उनके उच्च कोटि ब्राह्मण कुल में उत्पन्न होने पर भी शूद्रों के यहाँ जाना तथा उनके घर में जाकर खाना तथा उनकी मदद करना कुछ उच्च वर्ग ब्राह्मण वर्ग के लोगों को अच्छा नहीं लगता था। जब ब्राह्मण लोगों ने अपने कुँए पर शूद्रों का पानी भरना भी बंद कर दिया तो श्री भगवान जी ने शूद्रों को अपने पाँव के अँगूठे से एक स्थान पर कुँआ खोदने को कहा जहाँ खोदने पर उनको बहुत शुद्ध तथा भरपूर जल प्राप्त हुआ।
अतः नगर के महाजनों ने श्री नागदेव जी तथा श्री माहिमभट्ट जी को श्री भगवान जी को ऋद्धपुर से बाहर ले जाने के लिए कहा। ऋद्धपुर के पास ही देउलवाडा के राजा दामूर्त श्री भगवान जी को बड़े सम्मान के साथ अपने नगर में ले आया। श्री भगवान जी केवल छः मास वहाँ रहे परन्तु इस छ: महीने में ऋद्धपुरी नगरी में अनिष्ट ही अनिष्ट होने लगे। वर्षा हुई ही नहीं, फसल सूख गई, भूखमरी फैल गई, बिमारी फैलने से जगह-जगह मृत्यु होने लगी, चारों ओर हाहाकार मच गया। ऋद्धपुरी नगरी की सब समृद्धि तथा खुशहाली समाप्त हो गई।
तब महाजनों को स्वयं चलकर देउल वाळा जाना पड़ा तथा श्री भगवान जी को प्रार्थना कर सम्मान पूर्वक वापिस ऋद्धपुर में लाना पड़ा। श्री भगवान जी के चरणों में सदैव सभी ऋद्धि-सिद्धियां रहती हैं। जब श्री गोविन्द प्रभु महाराज पुनः ऋद्धपुर में वापिस लाये गये तभी वहाँ पर सुख-समृद्धि, खुशहाली लौट सकी। अतः श्री गोविन्द प्रभु ऋद्धपुर की सुख समृद्धि थे।
ऋद्धपुर नगरी में भिन्न-2 देवी-देवताओं की लोग भक्ति करते थे। नगर के मध्य में नृसिंह मढ़ (राजमढ़) में नृसिंह की भक्ति होती थी। अनेक देवी-देवता नगर के लोगों को अपना सामर्थ्य दिखाते थे। एक कोल्हारी माता देवी की पूजा होती थी। वह देवी अत्यन्त तमोगुणी थी। वह देवी अपने सामर्थ्य से नगर के लोगों में रोग फैलाती थी। उसी देवी के प्रकोप से नगर के लोग रोग पीड़ित होते थे। वह देवी इतनी क्रूर थी कि अनेक लोगों के बच्चों को भी मार डालती थी।
श्री गोविन्द प्रभु महाराज जी ने उस देवी के मन्दिर में जाकर उसको छूकर तथा अपना सम्बन्ध दान देकर उसकी क्रूरता को दूर कर दिया। जिसके परिणाम स्वरूप उस नगर के लोग निरोग रहने लगे तथा वहाँ पर उत्पन्न होने वाले बालक भी सुरक्षित रहने लगे। श्री भगवान जी ने इस कोल्हारी माता को सम्बन्ध देकर उसकी भयंकर दिखाई देने वाली प्रतिमा को भी परम पवित्र बना दिया जिसको आज भी परमेश्वर भक्त वन्दन कर प्रसन्नता तथा सुखानन्द का अनुभव करते हैं।
भगवान श्री गोविन्द प्रभु महाराज जी ने इसी प्रकार अनेक देवता की प्रतिमाओं को अपना सम्बन्ध दान देकर उन्हें परम पवित्र तथा नमस्करणीय, वन्दनीय बना दिया। विनायक की प्रतिमा, केशव की प्रतिमा, हनुमान की प्रतिमा भैरव की मूर्ति, महादेव के लिंग आदि अनेक देवता प्रतिमाओं को सम्बन्ध देकर परमपवित्र तथा नमस्करणीय बना दिया। एक बार श्री भगवान जी केशव की मूर्ति के पास खड़े थे, साथ ही भगवान श्री चक्रधर महाराज जी भी थे।
श्री प्रभु महाराज कभी उस मूर्ति के अनेक अंगों को छूते और फिर भगवान श्री चक्रधर महाराज के अंगों को छूते और बोलते - हा देव नव्हे, हा देव होय म्हणे अर्थात् यह प्रतिमा भगवान नहीं है, श्री चक्रधर महाराज जी ही भगवान है। फिर एक बार नवरात्र आने पर ब्राह्मण लोगों ने घट स्थापना की तथा देवताओं की पूजा करने लगे तो श्री भगवान जी ने आकर उस घट (घड़े) को लात मारकर तोड़ दिया। अतः श्री भगवान जी ने अपने ढंग से ऋद्धपुर नगरी में देवता भक्ति का निषेध कर परमेश्वर भक्ति करने की प्रेरणा दी।
श्री प्रभु जी ने अनेक देवता स्थानों पर जाकर अपना सम्बन्ध देकर उनको परम पवित्र बना दिया। इस प्रकार ऋद्धपुर नगरी में सर्वत्र परमेश्वर भक्ति की संस्थापना की। यदि गुढ़ा एक पत्थर तो वहाँ भी प्रतिदिन बैठकर महाराज ने उस पत्थर को भी परम पवित्र बना दिया जिसका वन्दन आज हम बड़े श्रद्धाभाव से हैं। वह खेत जिसे क्षेत्रखाज बोलते हैं उसमें खेती करने वाला एक शूद्र जाति का किसान सारंगु था। वह जो कुछ उसके खेत में उत्पन्न होता था उसको भुनकर उसको डोने में डालकर तथा साथ ही एक डोने में पानी भरकर भगवान श्री गोविन्द प्रभु महाराज तथा भगवान श्री चक्रधर महाराज जी से उस अन्न को ग्रहण करने के लिए एक हिवर नामक पेड़ के पीछे छिपकर प्रार्थना करता था।
श्री गोविन्द प्रभु महाराज जी वहाँ आकर उन डोनों में परोसे अन्न को तथा पानी को ग्रहण करते थे। तो श्री चक्रधर महाराज श्री प्रभु महाराज जी का प्रसाद ग्रहण करते थे तो वह सारंगु दोनों अवतारों का प्रसाद ग्रहण कर धन्य हो जाता था। आज वह क्षेत्रखाज का स्थान परम पवित्र माना जाता है जिसे दोनों अवतारों का सम्बन्ध है तथा जिस स्थान पर वन्दन कर हम प्रभु की प्रसन्नता का अनुभव करते हैं। इसी प्रकार प्योर तळोळी नामक स्थान पर भगवान श्री गोविन्द प्रभु महाराज जी, भगवान श्री चक्रधर महाराज जी से मिलते थे, इशारों से बातें करते थे। जब भगवान श्री गोविन्द प्रभु जी ऋद्धपुर वापिस लौटते तो भगवान श्री चक्रधर जी उन्हें तब तक देखते रहते जब तक वे नजरों से ओझल न हो जाते।
अतः श्री गोविन्द प्रभु महाराज जी ने ऋद्धपुर में तथा वहाँ के पास अनेक स्थानों पर जाकर अपना सम्बन्ध दिया जिसे आज भी लोग श्रद्धापूर्वक वन्दन पूजन कर प्रभु की प्रसन्नता प्राप्त करते हैं। इस प्रकार भगवान श्री गोविन्द प्रभु महाराज जी ने देवता भक्ति की नगरी ऋद्धपुर को परमेश्वर भक्ति की नगरी बना दिया। अतः इस नगरी को भगवान श्री चक्रधर महाराज जी ने परमेश्वरपुर कहा अर्थात् परमेश्वर भक्ति की नगरी कहा।
भगवान श्री चक्रधर महाराज इस नगरी का इतना मान करते थे कि उन्होंने अपने शिष्य परिवार को उत्तर की ओर जाते समय यह आदेश दिया कि वे श्री गोविन्द प्रभु महाराज जी की सन्निधि में ऋद्धपुर में जाकर निवास करें तथा परमेश्वर धर्म का आचरण करें। भगवान श्री चक्रधर महाराज के परम शिष्य आचार्य श्री नागदेव जी महाराज के उत्तर की ओर प्रयाण करने पर ऋद्धपुर आकर श्री गोविन्द प्रभु महाराज की सेवा में रहे तथा अपने पाँच सौ शिष्यों सहित परमेश्वर धर्म का अनुसरण कर धर्माचरण किया।
जब भगवान श्री चक्रधर महाराज जी के उत्तर की ओर प्रयाण करने पर सभी परमेश्वर धर्म के अनुयायी आचार्य श्री नागदेव जी के मार्ग दर्शन में ऋद्धपुर परमेश्वरपुर में निवास कर धर्माचरण करने लगे तो आचार्य श्री नागदेव जी सदैव चिन्तन करते रहते थे। एक दिन माहिमभट्ट जी ने आचार्य श्री नागदेव जी से पूछा– ‘आचार्य जी, आप सदैव क्या चिन्तन करते रहते हैं ?’ तो आचार्य जी बोले– ‘माहिमभट्ट जी, मैं सदैव भगवान श्री चक्रधर महाराज जी की लीलाओं को श्रद्धापूर्वक स्मरण कर उनका चिन्तन करता हूँ।’ तो माहिमभट्ट जी बोले– ‘आचार्य जी, यदि आप आज्ञा देंवे तो मैं उन लीलाओं को संग्रह कर तथा लिखकर एक धर्म ग्रन्थ तैय्यार कर लूँ, जो आगे आने वाले परमेश्वर भक्तों के धर्माचरण में सहायक होगा क्योंकि भगवान श्री चक्रधर महाराज जी ने यह आज्ञा की है कि नामस्मरण करते समय महाराज की लीलाओं का चिन्तन करना है।
दूसरी बात यह है कि भगवान श्री चक्रधर जी की उन लीलाओं में परमेश्वर का ज्ञान है अत: उस ज्ञान को प्राप्तकर आगे आने वाले परमेश्वर भक्त परमेश्वर धर्म का आचरण कर अपना धर्म निभा पायेंगे।" तो आचार्य श्री नागदेव जी ने इसे एक महान धर्म कार्य जानकर भगवान श्री चक्रधर महाराज जी की लीलाओं को लिखने की अनुमति दी। श्री माहिमभट्ट जी अत्यन्त पुरुषार्थी थे। अतः उन्होंने महाराज की लीलाओं का संग्रह करने के लिए उन स्थानों पर तथा उन लोगों से सम्पर्क किया जहाँ महाराज गये थे तथा अपने परमेश्वरीय ज्ञान की बातों को लोगों को सुनाया था। बहुत प्रयत्न कर तथा परिश्रम कर उन लीलाओं का संग्रह कर लिख लिया गया फिर उन लीलाओं को पढ़कर आचार्य श्री नागदेव जी को सुनाया गया।
भगवान श्री चक्रधर महाराज जी ने आचार्य श्री नागदेव जी को यह वरदान दिया था कि तुम्हारे मुख से कभी कोई अशास्त्रीय बात न निकलेगी। अतः आचार्य श्री नागदेव जी माहिमभट्ट जी द्वारा लिखित लीलाओं का संशोधन करने लगे तथा कहते थे कि ये शब्द श्रीमुखी के हैं ये शब्द श्रीमुखी के नहीं हैं। इस प्रकार संशोधन कर माहिमभट्ट जी ने महानुभाव जयकृष्णी धर्म का मूल ग्रन्थ लीलाचरित्र आचार्य श्री नागदेव जी की सहमति से ऋद्धपुर में वाजेश्वरी नामक स्थान पर बैठकर तैयार किया। इस प्रकार यह ऋद्धपुर परमेश्वरपुर परमेश्वरीय ज्ञान तथा परमेश्वरीय धर्म का केन्द्र बना।
भगवान श्री चक्रधर जी के तत्व ज्ञान का प्रचार तथा प्रसार का मूल आधार भी यह परमेश्वरपुर ही बना। इस धर्म का अनुसरण करने वाले अधिकतर लोग विद्वान थे जिन्होंने आगे आने वाले समय में अनेक धर्म ग्रन्थ लिखे तथा इस परमेश्वर धर्म का साहित्य का भंडार भर दिया। इस धर्म के 6000 धर्म ग्रन्थ हैं जिसका संग्रहालय भी इसी परमेश्वरपुर ऋद्धपुर में है जहाँ आज भी अनेक विद्वान लोग आते हैं तथा उन ग्रन्थों का अध्ययन कर शोध ग्रन्थ लिखकर उपाधियाँ प्राप्त करते हैं। अतः परमेश्वरपुर ऋद्धपुर यह एक महानुभाव ज्ञान का भी केन्द्र बना। परमेश्वरपुर ऋद्धपुर यह वह महान स्थान है जहाँ भगवान श्री चक्रधर जी ने रांधवण हाट नामक स्थान पर श्री गोविन्द प्रभु महाराज के प्रथम बार दर्शन कर ज्ञान शक्ति स्वीकार की तथा इस प्रकार श्री गोविन्द प्रभु महाराज जी को अपना गुरु स्वीकार किया।
श्री गोविन्द प्रभु महाराज जी ने उसी समय भगवान श्री चक्रधर महाराज जी को चक्रधर नाम दिया तथा आदेश दिया-जाओ, ज्ञान चक्र, शक्ति चक्र धारणकर इस कलियुग के हीन जीवों का उद्धार करो। तभी से भगवान श्री चक्रधर महाराज जी ने जीवों के उद्धार का व्यसन स्वीकार किया तथा यही से वे परमेश्वर धर्म के अधिकारी जीवों की खोज में जन-2, झाड़ी-2, बस्ती-2 घूमने लगे तथा श्री भगवान जी ने अधिकारी जीवों को ढूंढकर उनको ज्ञान प्रदान किया तथा मोक्ष का मार्ग बताया।
भगवान श्री चक्रधर महाराज जी ने यति मुनि का वेष स्वीकार किया। इस शरीर की कोई परवाह ही नहीं थी, केवल एक ही चिन्तन था सभी जीवों का उद्धार भगवान श्री चक्रधर महाराज प्रातः काल अमृतबेला में सदैव दो बातों का चिन्तन करते थे (1) श्री भगवान जी की पीठ पर दी थाप अर्थात् आशीर्वाद (2) सभी जीवों का उद्धार कैसे हो ।
श्री गोविन्द प्रभु महाराज जी ने ऋद्धपुर में उन्हें यह आशीर्वाद दिया था कि वे जाकर इस कलियुग के जीवों का उद्धार करें। जब कभी भी भगवान श्री चक्रधर महाराज उदास हो जाते तो वे भगवान श्री गोविन्द प्रभु महाराज जी के दर्शन के लिए बड़ी श्रद्धापूर्वक ऋद्धपुर परमेश्वरपुर को आते थे तथा श्री प्रभु महाराज के दर्शन कर प्रसन्न हो जाते तथा अपने जीवोद्धार के कार्य में उत्साह पूर्वक बढ़ जाते थे। भगवान श्री चक्रधर महाराज जी ने सदैव अपने अनुयायियों को श्री प्रभु महाराज की सेवा में भेजकर गुरु सेवा का कर्त्तव्य भी पूरा किया तथा आखिर में अपने अनुयायियों को ऋद्धपुर परमेश्वरपुर में भगवान श्री गोविन्द प्रभु महाराज जी की सन्निधि में सौंप कर स्वयं अन्यत्र जीवों का उद्धार करने ऋद्धपुर से ही उत्तर की ओर प्रयाण कर गये।
इस प्रकार परमेश्वरपुर ऋद्धपुर भगवान श्री गोविन्द प्रभु महाराज जी के चमत्कार पूर्ण कार्य से परिपूर्ण परम पवित्र तीर्थ स्थल है। द्राविड़ देश के एक ब्राह्मण ने किसी ग्रन्थ में यह पढ़ा था कि ऋद्धपुर में परमेश्वरावतार हुआ वह भी श्री भगवान जी की खोज में यहाँ आया तथा महाराज से मिलकर परमेश्वर भक्त बन गया।
महाराष्ट्र के माने हुए विद्वान श्री माहिमभट्ट जी ने भी संन्यास लेकर अपना सारा जीवन श्री गोविन्द प्रभु जी की सेवा में ऋद्धपुर परमेश्वरपुर में व्यतीत कर दिया। उस समय के जाने माने भागवत कथाकार लक्ष्मीन्द्र भट्ट आचार्य श्री नागदेव जी के सम्पर्क में आये जो उन्हें श्री प्रभु महाराज के दर्शन के लिए ऋद्धपुर में लाये ।
श्री गोविन्द प्रभु महाराज जी ने लक्ष्मीन्द्र भट्ट जी की मनोकामना पूर्ण की तथा उन्हें छप्पन करोड़ यादवों के साथ भगवान श्रीकृष्ण के साक्षात् दर्शन करवाये। तभी से वे परमेश्वर धर्म के अनुयायी बनकर, देवता भक्ति छोड़कर परमेश्वर भक्ति करने लगे। इसी स्थान पर ही अनेक विद्वान लोग श्री नागदेव जी की सन्निधि में आकर परमेश्वर धर्म के अनुयायी बने। जिन्होंने पर्याप्त धर्म ग्रन्थ लिखकर इस महानुभाव जयकृष्णी धर्म के मान को बढ़ाया। इस परम पवित्र तीर्थ स्थान की महिमा शब्दों द्वारा वर्णन नहीं की जा सकती।
श्री नारायण व्यास बहाळिये कृत ऋद्धपुर वर्णन में भी इस महान स्थान की महिमा का गुणगान किया गया है। अतः सदैव इस परम पवित्र स्थान का स्मरण करना चाहिए तथा सदैव श्री गोविन्द प्रभु महाराज जी से यही प्रार्थना करनी चाहिए-प्रभु जी, अपने इस स्थान के दर्शन के लिए हमें बुलाए क्योंकि प्रभु के बुलाये बिना कोई भी प्रभु जी के तीर्थ स्थानों के दर्शन तथा पूजन नहीं कर सकता। श्री गोविन्द प्रभु महाराज जी की जय हो ।