संग बड़ों का करें तभी आगे बढोगेे - sang bado ka kare
श्रीमद्भगवद्गीता के अनुसार श्रेष्ठ पुरुष जिस-2 प्रकार का आचार करते हैं, दूसरे व्यक्ति भी उसी का अनुकरण करते हैं। क्योंकि श्रेष्ठ पुरुष के प्रति दूसरे व्यक्तियों के अन्तःकरण में श्रद्धा और विश्वास होता है अतः बड़ों के कर्तव्यों को प्रमाण मान कर सामान्य व्यक्ति भी उसी मार्ग पर चलता है।
प्रथम क्रमांक पर बड़े परमात्मा। दूसरे क्रमांक पर ज्ञानी गुरुजन। तीसरे क्रमांक पर माता-पिता। चौथे क्रमांक पर सुहृद् और पाँचवें क्रमांक पर मित्रगण होते हैं। उपरोक्त व्यक्तियों में समय - 2 पर जिनका भी योग आये, उनकी बातें सुनें, समझें और उसके अनुसार आचरण करें। बड़ों की संगती का मनुष्यों को लाभ ही लाभ है और छोटे के संग में हमेशा ही नुक्सान ही होता है।
इसलिये स्वामी ने अपने सेवकों को समझाया है। कि- “साधकों' ने हमेशा ही ज्ञानी और विरागी पुरुषों का संग करना चाहिए। यदि पूर्ण ज्ञात विरक्त का योग न आए ऐसे समय में कम से कम अपने से अधिक ज्ञानी और विरक्त का संग करना चाहिए। अपने समान व्यक्ति के साथ भूल कर भी न रहें। क्योंकि श्रेष्ठ व्यक्तियों के प्रति श्रद्धा होती है और उनका डर होता है, इसलिये मनुष्य गलत काम करने का साहस नहीं करता।
समान व्यक्ति पर न तो श्रद्धा होती है, न डर ही होता है अतः मनुष्य बुरे कर्मों का त्याग नहीं करता। समान व्यक्ति के साथ नहीं रहना चाहिए। वैसे ही "साधक " अकेला भी न रहे। इसीलिये आचार्य श्री नागदेव जी ने "साधकों" के लिये नियम बना दिया था कि- दो- -2 साधु साथ में रह कर धर्माचरण करें और तपस्विनी, माताएँ चार- 2 मिल कर रहें।
जिस तरह इत्तर की दुकान पर बैठने से बिना खर्च किये ही भरपूर सुगन्ध मुफ्त में ही मिल जाती है और बदबू के समीप बैठने से न चाहते हुए भी बदबू का सेवन करना पड़ता है। नीति ग्रन्थों में भी यही बतलाया है कि-बड़ों का संग करने से इन्सान बढ़ता ही जाता है। जिस तरह सिंह का संग करने से बकरी ने हाथी की सवारी की।
किसी गांव का गडरिया बकरियां चराने के लिये जंगल में जाता था। एक बकरी के पैर में जख्म हो गई थी, इसलिये वह ठीक ढंग से चल नहीं सकती थी। शाम का समय हो चुका था। जंगल में शेर का भी भय था। एक बकरी के पीछे दो-चार बकरियों की जान न जाए अतः गडरिया बीमार बकरी को छोड़ कर शेष बकरियों को लेकर घर चला गया।
बुढ़ी लंगड़ी बकरी धीरे-2 गांव की ओर जा रही थी, इतने में दैव योग से शेर आ ही गया। बकरी ने अपने बचाव की योजना बना कर, शेर से कहा बेटा! आ जा मैं तेरी मासी हूँ। बहुत दिनों से मेरे मन में तुझे मिलने की आशा थी, भगवान ने आज वह पूरी कर दी है अत: बड़े प्यार के साथ मैं तुझे गले मिलना चाहती हूँ। शेर भले ही भूखा था परन्तु बकरी मासी बनी हुई है, इसलिये उसका शिकार करना उसने उचित नहीं समझा।
शेर ने मासी से पूछा मासी! आप कहाँ जाना चाहती हो? मासी ने अपना गांव बतला दिया। वहीं पर एक हाथी घूम रहा था। शेर ने उसको कहा मासी को गांव तक छोड़ कर आओ। हाथी ने बकरी को अपनी पीठ पर बिठा लिया और गांव की ओर चल पड़ा। पेड़ के नीचे हाथी रुक जाता था। बकरी पत्ते और फल-फूल खाती 1-2 गांव तक पहुँच गई। शेर का संग करने से वृद्ध बकरी हाथी की सवारी करके अपने निवास स्थान पर पहुँच गई।
जिस गडरिये को जिन्दगी भर बकरी ने दूध पिलाया, संकट के समय उसने साथ छोड़ दिया। वैसे ही मनुष्य सम्पूर्ण जीवन पत्नी, पुत्र, रिश्तेदारों की सेवा में खर्च कर देता है, वे रिश्तेदार बुढ़ापे में साथ नहीं देते। जब तक इन्सान धन कमा कर लाता है, तब तक ही रिश्तेदार प्रेम करते हैं। जिस समय शरीर जर्जर हो जाता है, उस समय कोई भी प्रेम से नहीं बोलता ।
देवता तो जीवों को दु:ख भुगवाने में ही अपना पुरुषार्थ समझते हैं। इसलिये देवताओं से सुख की आशा करना व्यर्थ है तथा जीव स्वार्थी होने से जब तक अपना स्वार्थ होता है, तब तक ही प्यार करते हैं। स्वार्थ पूरा हो जाने पर भूल जाते हैं। अत: समझदारों को चाहिए कि - जीव, देवता और प्रपंच से सुख की आशा न रखते हुए समय से पहले ही जगत् पिता, जगत् माता, जगत् बन्धु परमात्मा की शरण में पहुँच कर उसकी अधीनता स्वीकार करके, उसकी आज्ञा पालन करने का विड़ा उठाएं।
फिर न तो डर खौफ रहेगा। न पाप-ताप बचेंगे। न चिन्ता रहेगी। न फिक्र होगी। जिधर देखोगे उधर आनन्द ही आनन्द होगा। न जन्म की खुशी होगी, न मौत का दुःख होगा। न अपना रहेगा, न पराया। जन्म-मृत्यु के चक्र से निकल कर हमेशा के लिये परमानन्द में मग्न रहेंगे।
॥ जय श्री चक्रधरा ।।