मनुष्य के दो रोग - आँख और पेट - manushya ke do rog - महानुभाव पंथिय ज्ञानसरिता -
इस कलियुग में हम सब दो तरह के रोगों का शिकार हो चुके हैं। जो ठीक होने के बजाए
और बढ़ता जा रहा है। इस लेख में इस विषय पर कुछ प्रकाश डालने का प्रयास यह मनुष्य धन-दौलत, ऐश- आराम, यश कीर्ति, - पत्नी-बच्चे, नाती सम्बधी आदि के लिये इतनी लगन से परिश्रम करता है कि-बस पुछो ही मत। जिसके
फल स्वरुप इन आँखों को इन सबके सिवाय कुछ और दिखता ही नहीं है। अब यह सब आँखों के आगे
से हटें तब ही तो ईश्वर दर्शन की कुछ आस जगे। अपने इस अनमोल जीवन का सच्चा लक्ष्य दिखाई
दे।
यह सदा भूखा रहने वाला
पेट थोड़ा भरे, तब ही कुछ शान्त
मन,
बुद्धि से यह सोचे। ईश्वर कौन है? यह मानव जन्म क्यों मिला? संसार क्या है ? देवी- देवताएँ
क्या हैं?
रिश्ते-नाते स्वार्थी क्यों हैं ? सुख - दुःख क्यों आते हैं? हमारा जन्म बार- 2 क्यों होता है
?
हमारा जीवन सफल कैसे होगा? आदि कई विषय हैं, जिन पर बड़ी गंभीरता
पूर्वक,
ज्ञान पूर्वक चिन्तन करना आवश्यक है और लाभदायक है। और यदि गौर नहीं किया गया तो जैसे सारी दुनियाँ खत्म हो रही
है,
पशु-पक्षी आदि खत्म हो रहे हैं, वैसे हम भी एक दिन अपनी श्वासें पूरी होने पर खत्म हो जाएंगे।
परन्तु इस अनमोल मनुष्य चोले का जो लाभ हम उठा सकते हैं और दर्दनाक नरकों से, 84 लाख 33 योनियों से, दुःखों से अपने
आपको बचा सकते हैं, वह सब कुछ नहीं
कर पाएँगे।
इन सबके लिये अपने
किमती समय को सदुपयोग में लाना चाहिए। इन सब विषयों को समझने के लिये परिश्रम करना
चाहिए। परन्तु इस किमती समय के सदुपयोग का तो पता नहीं, दुरुपयोग करना तो इस मनुष्य से बेहतर कोई नहीं जानता। यह मनुष्य
अपना सारा समय, परिश्रम, लग्न केवल धन कमाने में, खाने में और धन को जोड़ने में ही व्यर्थ कर रहा है। अपने जीवन यापन के खर्चों को
इतना बढ़ा चुका है कि उसको 24 घण्टे भी कम लगने
लगे हैं।
भगवान ही जाने कि-
इस मनुष्य का कैसा पेट है, कैसी भूख है, जो इतना कमाने के बाद भी तनिक भर भी शान्त नहीं हो रही है बल्कि
और बढ़ती ही जा रही है। कमाल का चमत्कारी पेट है और कमाल की भुक है। संतोष नाम की चीज
तो मानो स्वयं ही इस मनुष्य गहरी जगह दफन कर दी है।
हकीकत तो यह है कि-
मनुष्य ने अपने लिये स्वयं ही खड्डा खोदा है। पहले तो गले में गृहस्थी की घंटी बाँधी, फिर दिन-प्रतिदिन अपने झूठे मान-सम्मान को ऊँचा करने के लिये, अपने रहन-सहन, खान-पान, एश- आराम, सुख-साधनों को और ऊँचा करने के लिये अपने खर्चों को खुद बढ़ाया।
जिसके परिणाम स्वरुप गृहस्थी की घंटी भी एक घंटा बन गई, जिसको गले में टांगना कठिन हो गया है। यही कारण है कि - मनुष्य आज एक जानवर के रूप में बदल गया है, जैसे (बैल, गधा आदि) और परिश्रम
की चक्की में ही पिसता जा रहा है।
आज की इस भागदौड़ में
मनुष्यों के साथ - 2 महिलाएं भी परिश्रम
की चक्की में पिस रही हैं। कुछ मजबूरी में पिस रही हैं, कुछ अम के कारण पिस रही हैं जैसे ( महिलाएं पुरुषों से कम नहीं), कुछ अपने आपको व्यस्त रखने के लिये, कुछ अपने ऐशो-आराम के लिये जिन्दगी जीने की इच्छा के लिये, कुछ घर-गृहस्थी के झंझटों से अपने आपको दूर रखने के लिये आदि
कई कारण हैं, जिसके परिणाम स्वरुप महिलाओं
का जीवन भी पुरुषों की तरह जानवरों जैसा होता जा रहा है। पहले नौकरी करके आओ, फिर घर का काम करो, फिर बच्चों का लालन पालन।
एक ही घर में रहने
के बावजूद एक सदस्य को दूसरे सदस्य से बात करने की भी फुर्सत नहीं है। यहाँ तक कि कई
बार तो एक-दूसरे को देखे हुए दो-चार दिन बीत जाते हैं। उदाहरण के तौर पर आजकल की निजी नौकरियाँ जैसे काल सेन्टर आदि
में काम करने वाले पति-पत्नी। 15 दिन पति की सुबह
ड्यूटी तो 15 दिन ही पत्नी की रात की ड्यूटी
। फिर 15 दिन पत्नी की दिन में ड्यूटी तो 15 दिन पति की रात में ड्यूटी जब पिता घर आता हे तो बच्चे सो रहे
होते हैं और जब पिता सो जाता है तो बच्चे स्कूल चले जाते हैं। फिर जब बच्चे स्कूल से
आते हैं तो फिर पिता ड्यूटी पर चला जाता है। ऐसा ही माता का हाल है। अजीब सा ही चक्कर
है। बच्चों की परवरिश माता - पिता, दादा-दादी आदि की जगह नौकरानी करती है। क्योंकि बड़ा परिवार सिकुड़ के छोटे परिवार
में बदल चुका है और छोटे परिवार को पैसा कमाने से फुर्सत नहीं है। पूछो तो कहते हैं
कि- सब बच्चों के लिये ही तो कर रहे हैं, कल को इनके ही काम आएगा।
अरे! कल किसने देखा
है ? जब बच्चे बड़े हो जाते हैं, तो घर में दो की जगह चार सदस्य कमाने वाले हो जाते हैं। परन्तु
वही भगदौड़ वही हाय - 2, तब भी चेहरों पर
चिंताओं की, अ-संतोष रुपी झुर्रियाँ दिखाई
देती है। सत्य तो यह है
कि जितना मनुष्य के कर्मों में, किस्मत में, धन- पैसा, 1, सुख-दुःख
आदि लिखा हुआ है, उतना ही उसको प्राप्त
होगा। न कम, न ज्यादा। परन्तु जब इस मनुष्य
को पैसे कमाने के लिये इतनी लगन और परिश्रम करता हुआ, गधा बने हुए देखो तो हँसी भी आती है और दुःख भी होता है।
नोटः - किस्मत में, कर्मों में जो है, वह तो मिलना ही है। ऐसा सोच कर घर पर व्यर्थ बैठ जाना बिल्कुल
गलत है। सही यह है कि- अपनी तरफ से भगवान का नाम लेकर निस्वार्थ भाव से कर्म करो और
फल की इच्छा छोड़ दो। फिर जो होगा, भगवान की कृपा से अच्छा ही होगा।
दुःख इस बात का है
कि इस मनुष्य ने केवल धन- पैसे को ही सब कुछ मान लिया है। धन कमाने को, खाने-पीने को, सुख-साधन जुटाने को, ऐशो-आराम को, स्वार्थी रिश्ते-नाते निभाने को ही जीवन का लक्ष्य समझ लिया
है।
यदि धर्म-कर्म की, पूजा-पाठ की, भजन-कीर्तन की, दान-पुण्य की बात
करो तो अलग-2 जवाब मिलते हैं, जैसे:
(1) अभी कोई उम्र है, यह सब करने की?
(2) समय कहाँ मिल पाता है, यह सब करने के
लिये?
(3) शरीर स्वस्थ नहीं रहता है, उठा-बैठा ठीक से नहीं जाता है।
(4) अभी घर में बड़ी परेशानियाँ (Tension) चल रही है।
(5) ग्रहस्थी निभाना भी बहुत बड़ा धर्म होता है।
(6) अभी तो काम-काज जमाने की या अच्छी नौकरी पाने की थोड़ी चिन्ता
है,
थोड़ा सब सही हो जाये, तो पूजा-पाठ का कुछ सोचें।
(7) अरे! हम पापियों के बस की कहाँ, पूजा-पाठ, कभी किस्मत में
होगा तो कर लेंगे।
(8) दान-पुण्य का मन तो बहुत करता है परन्तु इतना खुला पैसा है ही
नहीं,
खर्चे इतने हैं।
(9) बड़ों का मान-सम्मान, आदर सत्कार, अहिंसा ही भगवान की पूजा-पाठ
है।
(10) जब भी पूजा-पाठ करनी शुरु करता हूँ, तो कोई न कोई नुक्सान हो जाता है, इसलिये वहम के
मारे मन घबराता है, जैसी भगवान की
मर्जी ।
ऐसे कई भिन्न - 2, विचित्र, अज्ञानता पूर्ण
जवाब सुनने को मिलते हैं। सबसे झूठी और मजे की बात तो तब लगती है, जब कोई यह कहता है कि- मुझे भगवान धन-पैसा दें, तो मैं खूब दान धर्म करूँ। बोलते तो ऐसे हैं, जैसे भगवान ने इनको छप्पर फाड़ के दे दिया तो यह भगवान के नाम
का "ताज महल" बनवा देंगे। 100रु. में 5रु. दान करने का दिल नहीं है और
बातें करवा लो बड़ी - 21 जितना मिला है, पहले उसमें से तो दान-पुण्य करो, तब ज्यादा करने की सोचना। इस संसार में सबसे छोटा, घटिया, नीच, पापी अगर कोई है, तो वह मनुष्य है और कोई सच्चा है और अच्छा है तो, वह भी मनुष्य ही है, परन्तु सच्चे और अच्छे मनुष्य
की गणना बहुत कम है।
आज के समय में पैसा
धन बहुत कुछ हो सकता है परन्तु सब कुछ कभी नहीं हो सकता। धन-पैसे से हम ईश्वर को नहीं
पा सकते, हम भक्ति नहीं पा सकते, हम गुरु प्रसन्नता नहीं पा सकते, हम अपनी उम्र नहीं बढ़ा सकते आदि कई अनमोल दौलत हैं जो कि -
पैसे से अथवा द्रव्यं से प्राप्त नहीं किये जा सकते। धन के दुरुपयोग से इस मनुष्य को बहुत कुछ प्राप्त होता है, जैसे:- अहंकार, लोभ,
भेद-भाव, लड़ाई, चिन्ताएँ, रोग, भय, असंतोष आदि।
और यदि धन का सदुपयोग
किया जाए तो, धर्म-कर्म करते
हुए यह जीवन यात्रा सार्थक होती है और अगले जन्म में भी धर्म कर्म के संयोग जुड़ते
हैं। यह सब कुछ देख कर ऐसा प्रतीत होता है, जैसे इस मनुष्य को दो प्रकार के रोगों ने अपनी चपेट में ले लिया हैं, जैसे: - (आँखों का रोग और पेट का रोग )। ये दोनों रोग ठीक होने
की बजाय और बढ़ते जा रहे हैं।
आँख का रोगः - मनुष्य की ज्ञान रुपी आँखों के आगे धन-पैसे रुपी अंधकार छा गया है। जिससे अब यह
आँखें अपने इस जीवन का सच्चा मार्ग नहीं देख पा रहीं हैं। ईश्वर कौन है? मैं कौन हूँ? इस जीवन का लक्ष्य क्या है ? पाप-पुण्य क्या
है?
यह सब कुछ मनुष्य की आँखों के रोग को कारण नहीं दिख रहा है।
पेट का रोगः - इस मन रुपी पेट में असन्तोष रुपी भूख की अग्नि शान्त ही नहीं हो रही है। इतना
धन कमाने के बाद, खाने-पीने के बाद, धन जोड़ने के बाद भी यह पेट नहीं भर रहा, न भूख ही खत्म हो रही है, जिसके परिणाम स्वरुप पेट का रोग हो गया है।
उदाहराणार्थ :- एक बार एक वैद्य के पास दो व्यक्ति आए और दोनों ने आँख और पेट में रोग की शिकायत
बताई। वैद्य ने दोनों को दो पुड़िया दी और बताया कि - इस एक पुड़िया को पानी में मिला
कर आँखों में डालना है और एक पुड़िया को ज्यादा पानी में डाल कर काड़ा बना कर पीना
है। दोनों व्यक्ति दवा लेकर चले गये। कुछ दिनों बाद उनमें से एक व्यक्ति आया और वैद्य
के ऊपर चिल्लाने लगा और गुस्से में बोलने लगा कि - कैसी दवा दे दी ? मेरी तो पीड़ा और ज्यादा हो गई है। इतनें में दूसरा व्यक्ति
भी आ गया तो वैद्य ने उससे पूछा कि- तुम्हारी भी पीड़ा और बड़ गई है क्या? तो उसने उत्तर दिया कि - नहीं, मुझे तो बहुत आराम आ गया है आपकी दवा से। मैं तो और दवा लेने
आया हूँ। पहले वाला व्यक्ति वैद्य से बोला कि - इसको तो तुमने सही दवा और मुझे गलत
दवा दे दी। तो वैद्य ने कहा कि- पहले ये बताओ कि तुमने दवा कैसे ली? तो उसने एक बची हुई पुड़िया दिखा कर कहा कि इसको मैंने पानी
में मिला कर आँखों में डाला था। यह थोड़ी ज्यादा थी इसलिये बच गई और दूसरी पुड़िया
का मैंने काड़ा बना कर पी लिया।
फिर वैद्य उस पर गुस्सा करने लगा कि - गलत तरिके से दवा लेते
हो और यहाँ आकर मुझ पर इलजाम लगाते हो। तुमने पेट वाली पुड़िया आँखों में डाल ली और
आँखों वाली दवाई पेट में डाल ली तो पीड़ा तो और बढ़नी ही थी और यहाँ आकर तमाशा कर रहे
हो,
निकलो यहाँ से बाहर।
निष्कर्ष: - इस कहानी का निष्कर्ष यहहै कि-ठीक इसी तरह मनुष्य के पास आँख और पेट के रोग की
दवा तो है परन्तु वह भी दोनों दवा गलत ले रहा है। इसलिये मनुष्य की भी पीड़ा दिन-प्रतिदिन
बढ़ती जा रही है। वह दवा कौन - 2 सी है आँखों के
रोग के लिये: -
“परिश्रम": - ईश्वर की निष्काम भक्ति करना, भजन-कीर्तन करना, सत्संग में जाना, साधु-सन्तों के दुर्लभ दर्शन करना, ज्ञान- प्रवचन श्रवण करना, मनन- चिन्तन करना, दान- धर्म करना, गुरु- सेवा करना आदि कई कर्म हैं जो कि - "परिश्रम"
से ही हो सकते हैं। जिसके फल स्वरुप हमें सब कुछ साफ दिखाई देने लगेगा। इस दवा से धन, रिश्ते-नाते, ऐशो-आराम, पाप-दोष, अविधि, अज्ञानता रुपी
अंधकार नष्ट हो जाता है और इस जीवन का लक्ष्य साफ दिखाई देने लगता है। ईश्वर का स्वरुप
दिखने लगता है। जिसके परिणाम स्वरुप आँखों का रोग समाप्त हो जाता है।
पेट के रोग की दवा "प्रारब्ध": - कर्म करके फल की इच्छा मत करो। सब किस्मत पर छोड़ दो। मन में
सन्तोष रुपी विराम लगाओ। जो किस्मत से मिलना है और जितना मिलना है, उतना मिलेगा ही। उसके लिये व्यर्थ चिन्ता और हाय -2 क्यों करना? इन सबसे मन में मची हलचल, चिन्ताएँ, परेशानियाँ, भय,
लोभ, असंतोष, अहंकार, हाय -2 नष्ट हो जाते हैं। जिसके फल स्वरुप इस पेट की भूख शान्त हो
जाती है और पेट के रोग समाप्त हो जाते हैं।
"समस्या": - समस्या यह है कि मनुष्य भी दोनों दवा गलत ले रहा है। आँखों की दवा पेट के लिये
और पेट की दवा आँखों के लिये। जो पैसा, धन-दौलत, सुख-साधन किस्मत से मिलते हैं, उनके लिये जानवर की तरह परिश्रम कर रहा है। जो ईश्वर परिश्रम
और लगन से मिलते हैं, उनकी भक्ति को
किस्मत पर छोड़ रहा है।
"परिणाम": - रोग समाप्त होने की बजाय और बढ़ता जा रहा है। जितना परिश्रम, जितनी लगन मनुष्य धन कमाने में, खाने में या धन जोड़ने में लगाता है, यदि इसका चौथा हिस्सा परिश्रम, लगन ईश्वर की भक्ति करने में लगाये तो शर्तिया मनुष्य का हो
जायेगा।
निर्णयः - हम सबको निर्णय करना है कि- इन दोनों रोगों को सही दवा लेकर समाप्त करना है? या उल्टी दवा लेकर इन रोगों को और बढ़ाना है? हम सबको कुछ हद तक धार्मिक ज्ञान तो है किं - हमारे लिये क्या
सही है,
क्या गलत। परन्तु हम जानबूझ कर, अनजान बन कर, अपना यह अनमोल जीवन हर जन्म में इसी तरह नष्ट कर बैठते हैं। अब इसमें ईश्वर भी
क्या करे?
वह तो फिर भी हम पापियों के लिये सृष्टि- - रचना करवायेंगे और
निराकार से साकार रुप में आकर हमें ज्ञान देंगे ताकि शायद इस बार यह मनुष्य कुछ समझ
जाएगा। परन्तु केवल ईश्वर ही जानता है कि यह जन्म-मरण का सिलसिला यूँ ही कब तक चलता
रहेगा।
"प्रार्थना": - ईश्वर से यही प्रार्थना है कि हम सब पर अपनी दया बनाए रखें। हमें ज्ञान, सद्बुद्धि दें और हमें इन दोनों रोगों को समाप्त करने की शक्ति
प्रदान करें। “भक्ति धर्म" की विजय हो, अधर्म का नाश हो।
।। भगवान श्री दत्तात्रेय महाराज जी की जय हो ॥
लेखक :- सदीप कु. सब्बरवाल, फरिदाबाद