कै. महंत श्रीकोठीबाबा संक्षिप्त चरित्र
आज मैं आपको हमारे श्रीगुरुजी की जानकारी दूंगा, जो बहुत पुरानी है।
आज से लगभग १०० वर्ष पहले गुरुजी के पिताश्री गोपीचंदजी साहनी का विवाह श्रीमती
द्रौपदादेवी से, ग्राम
ढेरमोंड तहसील तलागंग में हुआ था। विवाहोपरांत व्यवसाय के कारण भगत गोपीचंदजी उस वक्त
की मशहूर मंडी सरगोधा चले गये। नेकी, सच्चाई और मृदुभाषी स्वभाव के कारण व्यवसाय खूब चलने लगा और
वे थोड़े ही दिनों में उनकी गणना मंडी के बड़े, गिने-चुने व्यापारियों में होने लगी। भगतजी को वित्तीय रत्न-मणियों
के साथ-साथ असली रत्न भी प्राप्त होने लगे। ज्येष्ठ चिरंजीव हरिश्चन्द्र जी (दुःखी
साहब),
श्री ईश्वरदास जी, पिशोरी लाल जी,
मनोहरलाल जी और एक कन्यारत्न श्रीमती कृष्णा देवी जी उस वक्त तक जन्म ले चुके थे।
कोई स्कूल में और कोई हाइस्कूल में जाया करते थे। भगतजी का परिवार बड़ा ही सुखी सम्पन्न
और हंसता खेलता था। दिन भर के व्यवसायी कामकाज से थककर जब भगतजी घर आते तो बाल जगत
का प्रेम-स्नेह देखकर सारा कष्ट भूल जाते। उस समय श्री हरिश्चन्द्र जी लगभग १७-१८ वर्ष
के थे। ऐसा सुखी समृद्ध परिवार काल से देखा न गया और उसे ग्रहण लग गया। समय ने पलटा
खाया और व्यापार में लगातार नुकसान होने लगा। मंडी में लालाजी सभी के देनदार हो गये।
भगतजी का परिवार चौराहे पर आ गया। ऐसी अवस्था में भगतजी को वहां रहना अच्छा न लगा।
अपने परिवार के साथ अपने चाचा, जो बेलापुर में संन्यासी हो कर अपना जीवन बिता रहे थे,
उनके पास भगतजी आ गये। वहां पर प. म. श्री दिवाकर बाबा जी और
प. म. श्री शाहापुरकर बाबाजी भी थे। उनके सान्निध्य में भगतजी की चचेरी बहन त. गंगाबाई
और उनकी लडकी त. हीराबाई जी भी वहीं रहती थीं ।
भगतजीने चाचाजी के साथ रहकर दो-चार दिनों में अपनी सारी कर्म-कथा सुनाई । व्यवसाय
में हुए नुकसान से लाला जी बहुत दुःखी थे । चाचाजी के उपदेशों ने उनमें एक नया जोश
और उत्साह का संचार किया। बीती बातें भूलकर नया व्यापार-धंदा ढूंढ़ने के लिए वे अहमदनगर,
कोपरगांव, औरंगाबाद गये, लेकिन उन्हें वह स्थान पसंद नहीं आया। फिर वे जालना गयें। व्यवसाय
के लिए यह स्थल उन्हें उपयुक्त लगा। पैसा न होने के कारण पिता,
पुत्र, सारा परिवार मिस्त्री के हाथ के नीचे मिट्टी-गारा देने का काम
करते थे। उस वक्त भी प. पू. बाबाजी (ब्रजलाल जी) बहुत छोटे थे। भगवान पर अटूट श्रद्धा
होने के कारण दिन भर के काम के बाद शाम में पैसे दो पैसे के फूल ले जाकर मंदिर में
आरती करते और भजन-कीर्तन के पश्चात भोजन ग्रहण करते । थोड़े दिनों
के बाद भगतजी घास-कड़वी बेचने लगे। सुबह जल्दी उठकर पकौडे बनाकर पुत्रों को थाल में
देकर बेचने भेज देते और साथ ही हलवाई का काम भी सिखाते । फिर हलवाई की दुकान लगाई ।
साथ में भूसार किराने की आमदनी ठीक थी। इसलिए अपने दो पुत्रों,
रॉय हरिश्चंद्र जी और श्री ईश्वरदास जी का ब्याह भी कर दिया
।
समय फिर पलटने लगा। राजनीति के चक्कर में बड़े भाई पर १४ मुकदमे चालू हो गये ।
कमाया हुआ धन सब जाने लगा । फिर भी किसी ने हिम्मत न हारी ।
उस वक्त प. पू. बाबाजी (बालक ब्रजलाल) बेलापुर में विद्याध्ययन के लिए गये हुए
थे। आश्रम के धार्मिक वातावरण का उन पर बड़ा प्रभाव पड़ा। वहां गुरुमाता जो उनकी बहन
भी लगती थी, को निमित्त
मानकर संन्यास लेने का निश्चय किया । संन्यास की बात सुनकर सभी भाइयों ने उसका कड़ा
विरोध किया। लेकिन बाबाजी ने अपना विचार नहीं बदला। वे अपनी दृढ़ता पर अटल रहे ।
आखिर सन् १९३८ में उन्होंने संन्यास ले लिया। पिता-पुत्रों की श्रद्धा भक्ति ने
चमत्कार दिखाया । बड़े भाई पर चलने वाले मुकदमे एक-एक करके समाप्त गये। सब कुछ बरबाद
होने के बाद भी बड़े भाई ने छोटी-सी टपरी में एक होटल और सायकल की दुकान लगाई। ईश्वरदास
जी और मनोहरलाल जी सिकंदर थियेटर में कैन्टीन चलाने लगे। बाद में सन् १९४२ में खुद
की होटल खोल ली । भगवान की कृपा से दुकान चल निकली। दिन दूनी रात चौगुनी कमाई होने
लगी। तब तक सभी के विवाह हो चुके थे ।
बालक संन्यासी बनकर अध्ययन
करने लगा। उसी समय कै. प. म. श्री नागराज बाबा जी (पुराने ) का मार्ग श्रीक्षेत्र डोमोग्राम
में आया हुआ था। उनके सान्निध्य में अध्ययन हेतु गुरुजी सन् १९३९ में उनके पास चले
गये। सन् १९४० में बाबाजी का मार्ग उरलीकांचन (पूना) चला गया। मार्ग के साथ गुरुजी
भी उरलीकांचन में रहने लगे। १९४६ तक मार्ग उरलीकांचन में रहा। सन् १९४६ में महावाक्य
प्रवचन हेतु मार्ग हिवरखेडा आया। वहां ही म. श्री नागराजबाबा (औरंगाबाद) को संन्यास
दिया। उस समय जालना निज़ाम के राज्य में होने के कारण रजाकारी उत्पात होने लगे। गुरुजी
जालना चले गये। १९४८ में पोलिस एक्शन होने के बाद सब गड़बड़ स्थिर हो गई। बाद में गुरुजा
धर्मप्रचार के लिए मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, हिमांचल प्रदेश, पंजाब, कश्मीर आदि के दौरे करने लगे ।
सन् १९५३ में गुरुजी को उदरव्यथा की तकलीफ शुरु हुई । बहुत इलाज कराने के बाद भी
जब आराम न मिला तो गुरुजी ने उसे भगवान के भरोसे छोड़ दिया। उस रात को स्वप्न में यह
सूचना मिली कि 'भगवान
की सेवा कर, सब ठीक
हो जाएगा। कुछ दिनों बाद सारी पीड़ा दूर हो गई और गुरुजी फिर से मंदिर के कार्य में
जुट गय । मंदिर की आर्थिक स्थिति ठीक न होने के कारण बाबाजी भिक्षा से मिलने वाले अनाज
के लिए दो साल पैदल घूमे। बाद में बैल-तांगा कर लिया। भिक्षा में मिले अनाज से मंदिर
में आने वाले साधु-संत, अन्नदान, सप्ताह,
श्रीचक्रधर जयंती उत्सव तथा बांधकाम सब चलता रहा। दिसंबर १९६३
में पंथ की तेरह प्रमुख गद्दियों में से एक कुमरमुनी व्यास उर्फ कोठी बाबा महंती पर
गुरूजी की नियुक्ती कर दी गई । जनवरी १९६५ में पिता का कैवल्यवास हो गया। १९६७ में
बाबाजी ने खुद के धन से विजिलवैन खरीद कर प्रचार कार्य में उपयोग किया। १९६६ में बड़े
भ्राता,
श्री हरिश्चंद्रजी नगराध्यक्ष बन गये। उन्होंने मंदिर की
बहुत सहायता की। उनकी भी उन्नति होने लगी । सन् १९७३ में मंदिर
पब्लिक ट्रस्ट कर दिया गया। १९७६ में मुख्य देवालय का कार्य शुरू किया। जिसमें उनका
योगदान रहा। वह आधार भी सन् १९७७ को छूट गया। उससे पहले माता द्रौपदीदेवी का देहावसान
हो गया था। यात्रियों के लिए दूसरी धर्मशाला का निर्माण किया गया। इस दौरान गुरुमाता
हीराबाई का देहान्त १९८१ में हो गया। निर्माण कार्य चलता रहा। गुरुजी को मिली दान-दक्षिणा-भेंट
का रुपया का वे ट्रस्ट बनाना चाहते थे। इसलिए १९९१ में उन्होंने ब्रजलाल पंजाबी उर्फ
कोठीबाबा महानुभाव चॅरिटेबल ट्रस्ट का गठन किया ।
अब उनकी इच्छा थी,
कलशारोहण महोत्सव निमित्त अन्नदान-वस्त्रदान करने की। दोनों
ट्रस्टों का लगभग एक लाख रुपय कम्बल तथा २५ बोरी चीनी की बूंदी का महाप्रसाद वितरण,
दान-दक्षिणा ता. ४ व ५ नवंबर १९९२ को कर दिया गया ।
मुझे मेरी हाई स्कूल की पढ़ाई
के लिए तथा धार्मिक पढ़ाई के लिए सातारा में रखा गया था। वहां से में पिछले वर्ष कार्य
के लिए यहां आ गया। मैंने स्वेच्छा से ता. ५ नवंबर को संन्यास दीक्षा ली। इस महाकार्यक्रम
में निम्नलिखित महतों ने बड़ी सहायता की, जिसके लिए पुनः पुनः धन्यवाद प. म. श्री दर्यापुरकरबाबाजी,
प. म. श्री गुर्जरबाबाजी, प. म.
श्रीआराध्यबाबाजी, प. म. श्री अंजनगावकरबाबाजी, प. म. श्री दुतोंडेबाबाजी, पू. श्री गोविन्दराज दादाजी कारंजेकर,
प. म. श्रीदत्तराजबाबाजी जुने व नवे,
प. म. श्री कान्हेराजबाबाजी जुने व नवे तथा डॉ. यशराजजी संवत्सर
इत्यादि के नाम उल्लेखनीय हैं।