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पू. महंत श्री कोठी बाबा महानुभाव- एक सशक्त व्यक्तिमत्व
अखंड भारत के उत्तर-पश्चिम दिशा में (अब पाकिस्तान) ढेरमोंड नामक एक गांव है।
इस गांव में श्री गोपीचंद जी साहनी और उनकी धर्मपत्नी श्रीमती द्रौपदी देवी,
आनंद से अपना जीवन बिता रहे थे। ईश्वर ने धर्मात्मा को धन संपदा
तो दी ही,
साथ में पांच सुपुत्र और एक सुकन्या को देकर उनके घर को गोकुल
बना दिया था। सद्भक्त हरीश चंद्र
साहनी (शायर - दुःखी साहब) सद्भक्त पिशोरीदास,
सद्भक्त ईश्वर दास,
सद्भक्त मनोहरलाल,
सद्भक्त ब्रजलाल (महंत श्री प. पू. प. म. श्री
कोठी बाबा महानुभाव) इनके पुत्र और सुपुत्र श्रीमती कृष्णादेवी जी से इस घर का कोना-कोना
वैभव से भरा हुआ था । सन् १९२१ में जन्मे सद्भक्त ब्रजलालजी तो
सबकी आत्मा थे ।
इस पंजाबी परिवार का गांव में अत्यंत सम्मान था। लगातार भ्रमण में व्यस्त रहनेवाले
श्री गोपीचंदजी जब घर आते, तो अपने बच्चों को खेलता कूदता देखकर तो उनकी थकान दूर हो जाती
। गृहस्थ आदमी को कभी कभी तवे पर जली चटकी रोटी भी खानी पड़ती है। इससे साहनी परिवार
भी नहीं बच सका । सद्भक्त गोपीचंदजी को व्यापार में बड़ा घाटा आया । इस आर्थिक तंगी के कारण वैभवपूर्ण
साहनी परिवार पूरा का पूरा खुले में आ गया ।
अपना गांव छोड़कर यह परिवार सरगोदा घाटा गांव चले आए। लेकिन
यहाँ भी ये जम नहीं पाये। इस परिवार को यह प्रश्न लगातार सताता रहा कि अब आगे क्या
किया जाए।
महाराष्ट्र में उनके चाचा प. म. श्री दिवाकर बाबाजी तथा बहन
त. गंगाबाईजी, और भांजी
त हीराबाई पंजाबी बेलापुर यहां रहते थे। इनसे सोच-विचार करके पूरा निर्णय लेकर दृढनिश्चय
करके साहनी परिवार १९३८ में महाराष्ट्र आ गया। उस समय श्री ब्रजलालजी केवल छः माह के
थे ।
यहाँ के धार्मिक वातावरण से श्री गोपीचंदजी अत्यंत प्रभावित
हुए। उन्होंने ब्रजलाल को म. श्री दिवाकर बाबाजी के आधीन कर त. हीराताईजी के हाथ पर
श्रीकृष्णार्पण कहकर संकल्प
छोड़ दिया। वहां से निकलकर श्रीगोपीचंदजी जालना आकर सहकुटुंब स्थिर हो गये ।
ब्रजलालजी बेलापुर आश्रम में रम गये। स्कूल में उन्हें प्रवेश दिलाया गया।
इस अत्यंत बुद्धिमान बालक ने स्कूल में हमेशा उत्तम रहकर अपना नाम कमाया। वे कभी-कभी
अपने परिवार से मिलने जालना भी जाते थे। उनका कुटुंब अभी तक पूरी तरह से आर्थिक रूप
से जम नहीं पाया था जिसका दुःख उन्हें हमेशा होता रहता था।
सद्भक्त गोपीचंदजी की कठिन परीक्षा अभी तक खत्म
हुई थी। वे घास-कड़वी बेचकर अपने परिवार का पेट पालते थे। कुछ दिन उन्होंने पकौडे बेचे
। वे किसी तरह काम कर अपने परिवार को पालने की जिम्मेदारी पूरी करते थे ।
इस धक्का-मुक्की के जीवन में सदा पिसते रहनेवाले गोपीचंद उसी
प्रकार मृदु-भाषी थे जिस प्रकार गन्ने को मशीन में पीस देने पर भी उसका रस मीठा ही
होता है। उनके अंतःकरण में भक्ति और धर्मनिष्ठा कूट-कूट कर भरी थी ।
जालना में परमेश्वर अवतार श्रीचक्रधर स्वामी जी का स्थान
था। वहां पर लालाजी (श्री गोपीचंद जी) हमेशा जाया करते थे। भगवान
परमेश्वर अवतार श्रीचक्रधर महाराज ने यहाँ पर दीपावली मनायी थी। यह स्थान श्रीदत्त मंदिर नाम से जाना जाता है।
मंदिर की मूर्ति के सामने हाथ जोड़कर गोपीचंद कहते- ‘‘जालना में
दीपावली मनानेवाले श्रीचक्रधरजी ! मेरे संसारी जीवन में दीपावली का उत्सव है या नहीं
?
कभी तो अपनी कृपादृष्टि मुझ पर रख ।’’
इधर बेलापूर में ब्रजलालजी १२ वर्ष के हो गये थे। योग्य
मुहूर्त देखकर उनकी संन्यास-दीक्षा का कार्यक्रम आनंद से सम्पन्न हो गया। इसके बाद
आगे की शिक्षा प्राप्त करने के लिए डोमेग्राम के प. पू. म. श्री भास्कर नागराज बाबा
के आश्रम में उन्हें भेजा गया। ब्रह्मविद्या के लिए यह आश्रम उस समय बहुत प्रसिद्ध
था । सन् १९३९ में ब्रह्मविद्या का ज्ञान प्राप्त करना शुरू किया । म. श्री अनंतराज
बाबा पातुरकर, म. श्री खामनीकर बाबा (बालकृष्ण) म. श्री कान्हेराज बाबा,
म. विद्वांस बाबा आदि स्नेही लोगों के साथ सात साल बड़े आनंद
से अभ्यास किया। उरुलीकांचन में १९३९ से १९४६ तक रहे म. श्री नागराज बाबा की प्रसन्नता
प्राप्त कर, श्री
ब्रजलाल दादा ने १९४६ में आश्रम छोड़ा। आश्रम से निकलकर तीर्थ यात्रा और पंथ-प्रचार
के लिए उन्होंने महाराष्ट्र का भ्रमण शुरू किया।
इधर जालना में श्रीलालाजी की आधिक स्थिति सुधरने लगी। ऐसा लगता,
मानो स्वामीजी ने उनकी प्रार्थना सुनकर दीपावली की लक्ष्मी ही
उनके घर भेजी हो । लालाजी के बड़े सुपुत्र श्री हरिश्चंद्र जी अत्यंत होशियार,
कर्तव्यदक्ष निकले। अपने अथक परीश्रम,
व्यवसायी निष्ठा और लगन से जालना बस स्टैण्ड के पास शाम लॉज
और विजय विलास का निर्माण किया। लोग उन्हें आदर से ‘भाई साहब’ कहा करते थे । सामाजिक कार्यों में रूचि होने के कारण जालना
निवासियों ने उन्हें सात वर्षों तक ‘नगराध्यक्ष’ का सम्मान दिया। वे साहित्य के ज्ञाता और कवि भी थे। उनके शेरशायरी
की दो पुस्तकें भी प्रकाशित हुई, जिन्हें पुरस्कृत भी किया गया ।
अपने ज्येष्ठ पुत्र की कार्यदक्षता देखकर श्री लालाजी ने परिवार की सारी जिम्मेदारी
उन्हें सौंप दी और स्वयं सन् १९४३ में श्रीदत्त मंदिर में भगवान की सेवा करने लगे।
अब भी सभी लोग उन्हें ‘लालाजी’ नाम से ही जानते थे ।
व्यापारी वृत्ति के लालाजी अब भगवान के एकनिष्ठ पुजारी बन गये थे,
लेकिन अनन्य भक्ति में उन्होंने,
श्री भगवान से कभी सौदा नहीं किया। वे जब भजन-आरती करते उस वक्त
संत मीराबाई जैसे अपना देहमान भूल जाते थे। इन्हें फूलों का बहुत शौक था। नाना प्रकार
के बहुरंगी फूल वे भगवान को अर्पित करते थे। फूलों से एकरूप होकर अपने हृदय की भावगंध
को स्वामी को चढ़ाते। उनकी भक्ति भावना से मुग्ध होकर जालना के प्रसिद्ध व्यापारी श्री
बाकीलाल जी ने मंदिर में भक्तजणों के लिए अठ कमरे बनवा दिये। लालाजी को मंदिर में आये
तीन वर्ष बीत गये थे। एक दिन सोच विचार कर, कै. महंत श्री भास्कर नागराज बाबा को निमित्त मानकर संन्यास
ले लिया ।
१९४७ में भारत स्वतंत्र हुआ। स्वतंत्रता के आनंद में लालाजी ने मंदिर में वार्षिक
सप्ताह शुरू किया। लोगों का सहयोग मिलने पर १९४८ में जालना में प्रतिवर्ष श्रीचक्रधर
जयंती के उपलक्ष्य में दिव्य शोभायात्रा निकालना शुरू की,
आज भी वह लगातार निकाली जा रही है ।
लालाजी शारीरिक रूप से थक चुके थे । भागदौड़ करना अब नहीं हो रहा था। ऐसे समय श्री
ब्रजलाल जी महाराष्ट्र में प्रचार कार्य में व्यस्त थे। एक दिन उन्हें बुलाकर लाला
जी ने मंदिर की पूरी जिम्मेदारी उन्हें सौंप दी। एक को घर-संसार और एक को मंदिर सौंप
कर,
लालाजी केवल नमस्कार किया करते ।
नया उत्साह और नये खून के जोश में, श्री ब्रजलाल दादाजी मंदिर के संचालक बन गये। मंदिर का कायापलट
होने लगा। हर
साल मंदिर की उन्नति देखकर भक्तगण खुष हुआ करते। जालना और अंबड तालुका से अन्नधान्य
के रूप में मंदिर को बहुत सहायता मिली ।
श्री दादाजी की लगन और कर्तव्य दक्षता देखकर म. श्री कोठी बाबा ने उन्हें १९६३
में कोठी अम्नाय की गद्दी प्रदान की। पंथ के उच्चतम पद पर अपने सुपुत्र को देखकर लाला
जी बहुत प्रसन्न होते। इसी आनंद को मन में रखकर लालाजी ने १५ जनवरी १९६५ को अपना देह
त्याग दिया।
लालाजी के निधन से श्री बाबाजी अत्यंत दुःखी हुए। ऐसे समय में भाईसाब जी ने
उन्हें बहुत हिम्मत दिलायी। साथ ही मंदिर के विकास में उनसे कंधे से कंधा मिलाकर कार्य
किया । मंदिर निर्माण के लिए बाबाजी के श्रम कार्य को देखकर आज भी आदमी आश्चर्यचकित
होता है। खुद की परवाह न कर, धूप में गांवों का भ्रमण करते। उस समय उनके साथी थक जाते,
लेकिन बाबाजी का उत्साह थोड़ा भी कम न होता था। मंदिर प्रतिवर्ष
तरक्की कर रहा था। इस समय भी बाबाजी को एक आघात और लगा। मंदिर निर्माण के बीड़े को
हाथ लगाने वाले बाबाजी (शायर-दुःखी साहब) का निधन १९७७ में हो गया। इससे पहले १९७४
में माता,
श्री द्रौपदी देवी जी ने अपना नश्वर देह त्याग दिया । नाना प्रकार
की मुश्किलें, कठिनाइयां
आती रहीं,
लेकिन इन सभी दुःखों पर विजय प्राप्त करने की शक्ति देने वाली,
बाबाजी की गुरुमाताजी, त. हीराबाई पंजाबी इस कर्तव्यनिष्ठ पुरुष के पीछे सामर्थ्य से
खडी थी। अपने शिष्य की कर्तव्यपारायणता देखकर मन ही मन प्रसन्न होती। इसके बाद प्रतिकूल
परिस्थिति में त. शांताबाई जी कोठी ने इस श्रेष्ठ कार्य को संभाला आज भी वे मंदिर की
व्यवस्था से संभाले नजर आती हैं। १९८१ में बाबाजी की गुरुमाताजी त. हीराबाई जी ने इस
जग का त्याग कर दिया ।
परमार्थ और संसार के बहुत से लोग और रिश्तेदार छोड़कर चले जाने
पर भी मंदिर अत्यंत तेज प्रगति से एक एक कदम आगे बढ़ाता रहा था ।
‘जियो और जीने दो’ विचार पर मंदिर तो अपनी प्रगति कर ही रहा था,
साथ ही अन्य जीर्ण मंदिरों के पुनरुद्धार का भी कार्य चलता रहा।
सामसगांव तीर्थ स्थल को ५००१ रुपये और आहेरमल स्थान को ५००१ रुपये तथा कई अन्य स्थानों
को भी यथा योग्य दान दिया गया। इस भौतिक प्रगति के साथ-साथ साहित्य निर्माण के सुप्तगुण
अंकुरित होने लगे। बाबाजी का कविमन उन्हें चैन नहीं लेने दे रहा था। उनकी भावनाएं शब्द
रूप में आकर पुस्तक रूप में प्रकाशित हुए । साहित्य की रूचि के कारण मंदिर में एक सुसज्जित
ग्रंथालय का निर्माण किया गया ।
बाबाजी की धर्मनिष्ठता देखकर विश्व हिंदू परिषद ने उन्हें जालना जिले के विश्व
हिंदू परिषद का उपाध्यक्ष पद दिया। मंदिर का कार्य पूरा होने के बाद श्री ब्रजलाल उर्फ
कोठीबाबा महानुभाव चैरिटेबल ट्रस्ट की स्थापना की और ट्रस्ट के लिए उनके द्वारा अजित ५ लाख रुपये
भी दिए गये। अन्नदान, वस्त्रदान और गरीबों के लिए औषधोपचार करने के लिए इस धनराशि का उपयोग किया जाने
लगा। इसके अलावा मासिक पत्रिका, पंथीय साहित्य शोध व पंथीय उत्कृष्ट लेखन करने वालों को पुरस्कार
के रूप में प्रतिवर्ष १००१/- रु. भी इसी ट्रस्ट द्वारा दिये जाते हैं।
आज यह श्रीदत्त मंदिर मस्तगढ़ (भगवान श्रीचक्रधर स्वामी मार्ग) पर स्थितप्रज्ञ
जैसा दैवी वैभव से सुसज्जित व ऐश्वर्य से चमक रहा है। दस गुंठे जगह पर खड़ा भव्य,
दिव्य, तेजोमय यह मंदिर, जालना शहर का एक अनमोल भूषण है।
भगवान श्रीचक्रधर स्वामीजी के चरणों से पुनीत हुई इस जगह पर दीपावली का मांगल्य
हमेशा नजर आता है। मंदिर ने भव्यता - दिव्यता का परिधान तो पहना ही है,
इसके साथ प्रसन्नता का भी तेज है । कै. म. आराध्य शास्त्री जी
व मुंबई के श्री गोविंदराज दादा जैसे दिग्गजों द्वारा प्रदान की गई गौरवशाली वास्तु
महानुभाव पंथ में अद्वितीय है। हजारों गणिक श्रद्धालु भक्तों का श्रद्धास्थल और पीड़ितों
के मायके जैसा श्रीदत्त मंदिर हमेशा अध्यात्म की अनुभूति देता रहा है और आगे भी देता
रहेगा।
इसका निर्माणकार्य पूरा होने के उपलक्ष्य में इसका कलशा रोहण कार्य ५-११-९२
को आयोजित किया गया। इस कार्य से मंदिर का रोम-रोम पुलकित हो उठा और भक्तों व सामान्य
जनता को बहुत बड़ी प्रेरणा मिली ।