चिन्ताका तात्त्विक विश्लेषण
मनोवैज्ञानिक के मतके अनुसार सोचने और जानने की प्रवृत्ति मानवको सांस्कृतिक विरासत के रूपमें मिली है। बालकमें इसी हेतु जिज्ञासाकी अभिवृत्ति तीव्र होती है। क्योंकि उसे ऊपरकी अन्तरिक्षसीमा और पदतलस्थ धरतीकी विशालताका अस्फुट ज्ञान प्राप्त होता रहता है। इसी क्रमसे जीवनकी विविध सामाजिक भूमिकाओं में वह अपने परिवेश बदलता हुआ इनके प्रतिमानों के प्रति तथ्यात्मकचिन्तन आरम्भ करता है। क्रमशः भावी अथवा वर्तमान की आवश्यकताओं व विवशताओं के पूर्त्यर्थ उसकी संवेदनशील चेष्टाएँ ही उसे चिन्ताके व्यूहमें ले जाते हैं। जहाँ अपराजेय रहना आस्थावान के लिये कठिन प्रतीत होता है। फलतः अभ्यासद्वारा यह विवर्तरूप में परिणत होकर जीवनवृक्षके लिये धुनवत् सिद्ध हो जाती है। धीरताकी परीक्षा और निश्चयात्मिकबुद्धिका वैशद्य यही देखते बनता है ।
चिन्ता प्राय: अभीष्ट वस्तुकी प्राप्ति में आगत या आगामी बाधा के सम्बन्ध में व्यवस्थित होती है, जो स्वयं में दुर्भेद्य होकर भी अपने लक्ष्यके हल करनेके सर्वविधि माध्यमोंसे अन्योन्यरूपसे किसी एकका वरीयताक्रमेण चुनाव करती है। यह प्राय: निराशाके साथ उदित होती है और असफलता के साथ पनपती है। फलस्वरूप व्यक्तिके मनोवैज्ञानिक क्षेममें तनाव उत्पन्न होता है, जिसके विभिन्न परिणाम न्यूनाधिक गत्यात्मक रूपमें देखे जाते हैं।
चिन्ताधाराके स्रोतसे निकले तनावके चेतन व अचेतन परिणाम बहुत कुछ इस प्रकार प्राप्त होते हैं। व्यक्तिको यह अनुभव होता है कि, उनमें किसी प्रकार की कमी है, पर यह अस्पष्ट ही रहती है। इच्छाओं और आवश्यकताओंकी स्पष्ट किन्तु अक्रमवद्ध अनुभूति होती है।
व्यक्तिका सारा व्यवहार एक उलझनविशेषसे प्रभावित होता रहता है; जिसमें आरम्भ में अस्पष्टता रहती है, पर यह परिस्थिति और बाह्य प्रेरणात्मक उदीरणाओंके परिवर्तन के फल स्वरूप आवश्यकताओं का सामना करने हेतु स्पष्टता आती रहती है।
प्राय: निराशाके पर्यावरणसे ही चिन्ताधारामे वेग या स्थैर्यका विनिगमन होता है। जोकि असफलता के समीप व्यक्तिकी स्थितिका उसे भान कराता है।
उभयसम्भव तर्कोंके विश्लेषण से यह निष्कर्ष निकलता है कि, निराशा और तज्जन्य चिन्ता अपने भविष्य और वर्तमानके सम्बन्ध में न तो घोर नास्तिकको ही व्यापती है और न दृढ आस्तिकको ही; क्योंकि पहला भाग्यवादी न होकर अपने कियेपर विश्वासी होता है। और दूसरा ईश्वर के 'मोक्षविष्यामि मा शुच' श्रीवचनपर आशावादी रहता है। खतरा है बीचकी स्थिति में पड़े जीवोंको । इनके भी दो वर्ग होते हैं। एक तो निरे भाग्यवादी बनकर कुछ अतात्पर्यान्त विश्लेषित तर्कके आधारपर अपनेको भ्रमवश यथाशक्ति कर्मयोगी मानते हैं और दूसरे अकर्मण्य और परम्परागत अन्धविश्वासी प्रतीत होता है। चिन्ता प्रायः भावीके प्रति दुखद कल्पना कर आनेवाला आपत्तिका पूर्वरूप मनमें धारण कर अवसरसे बहुत पूर्व ही आत्मग्लानि और अन्य सीमित साधनोंको देखकर प्रपीड़ित होने की स्थिति है।
यह आवश्यक नहीं है कि चिन्ताका कारण सदा वास्तविक ही हो । काल्पनिक कारण भी होना असम्भव नहीं । बल्कि कभीकभी तो चिन्ता प्रायः निर्मूल और अपक्व प्रतीत होती है।
चिन्ताका लक्ष्य कभी भी स्थिरसा नहीं भासता। भावनात्मक अभिव्यक्ति होने के कारण यह कभीकभी आश्रय और आलम्बन दोनोंको समानरूपसे प्रभावित करती है। जो त्रियत्वाप्रियत्वका परिचायक सिद्ध होती है। चिन्ता कभीकभी प्रतिभाकी भी प्रेरक होती है। उदाहरणतया अभी भी कुछ लोग कुछ कार्यों में दक्षता इसलिये प्राप्त करते हैं कि उनकी आवश्यकता पूर्तिकी चिन्ता ही उन्हें शान्ति से बैठने नहीं देती । फलतः वे कार्य में दत्तचित्त होकर कालान्तरमें अपने अपने क्षेत्र में महान और विशेषज्ञ होते देखे जाते हैं। किसी पाश्चात्य मनीषीने ठीक ही कहा है- 'आवश्यकता ही प्रायः प्रतिभाकी प्रेरक होती है।' इतिहास साक्षी है कि, कई प्राचीन विद्वान् कविता, कला आदिकी साधना में अपनी अर्थचिन्तामुक्ति हेतु ही प्रवृत्त हुये, जो आज भी अपनी विद्वत्ता के कारण महान् प्रतिभासम्पन्न सिद्ध हो रहे हैं। आधुनिक शोध भी विविध प्रतिभाओं को प्रकट करने में व्यस्त हैं, जोकि अर्थशास्त्रकी दृष्टि से मानवकी आवश्यकता, पूर्ति के सक्रिय संघर्षात्मक अभियानों और कार्यविधियों में निरन्तर परिशोधनके ही परिणाम हैं।
चिन्ता प्रायः उद्वेगका रूप धरती जाती हैं। जिसकी वह चिन्ता करता है, कभीकभी वह स्वयं में तद्वत् स्थिति पाता है। यह भी विचित्र अद्वैतवाद है। विरही अपने प्रियको सर्वत्र ढूंढता है, उसे जड़चेतनाका भी ज्ञान ह्रासशील स्थिति में होता है। यथा- गोपियाँ वृक्षों, लताओं व यमुनापुलिनसे भी कृष्णके गमनदिशाको पूछती हैं, किंबहुना, आज भी लोग थाली खोनेपर हण्डीतकमें उसे ढूँढते हैं । अतः यह अज्ञानावृत स्थिति है। चिन्तामें प्रायः निस्वार्थ रूपसे परार्थलाभ की जब चेतना आती है, वह चिन्तनका रूप कर लेती है। यदि वह चिन्तन स्वस्थ रहा और सत्यमूलक अध्यवसायपर गतिशील रहा, तो इससे अनवरत और विशेष प्रयाससे मानवजातिको भी न्यूनाधिक रूपसे भलाईका मार्ग निकल आता है। यह चिन्तन आध्यत्मिक क्षेत्र में अनुभवी सिद्ध के माध्यम से साधकको मिला और वह अविकल रूपसे उसमें तत्पर रहा, तो आत्मसाक्षातत्कार भी सम्भव है। धन्य है इत्यंभूत चिन्तन ।
चिकित्सकीय दृष्टि है - चिन्ता मानसिक स्नायुओंपर दबाव डालती है, जिससे धमनियोंके शिराओंमें रक्तकी ऊर्ध्वगति मस्तिष्क की ओर अधिक रहती है, क्योंकि मस्तकको समस्यासमाधानार्थ विविध प्रयत्नोंको सोचने में कभी मुस्तैदी से लक्ष्यतक साधनकी सीमाओंसे ऊपर उठकर प्राणपणसे चेष्टाकी विजिगीषा करनी पड़ती है; अतः आवश्यकताओंकी जिजीविषा व्यक्तिको तदितर कल्पनासे सम्पृक्त नहीं होने देती । फलतः चिन्तनशील प्राणीका अतः और फुफ्फुस, आमाशय तथा वायुनालिकाएँ अपना यथोचित कार्य सम्पन्न नहीं कर पाते। दुर्बलता, श्रीहीनता और उदरामय के शिकार होना तथा 'सुश्रुत के अनुसार क्षयग्रस्त होना भी प्रायः इसी चिन्ताका प्रसाद है। पाचनरेचन आदि क्रियाओं में भी शैथिल्य इसीकी अनुकम्पा समझें !
मनीषियोंने चिन्ताको सर्पिणी के सदृश माना है। जोकि एक प्रकार डसनेपर धीरेधीरे मानसिक विकासका अन्त करके ही दम लेती है। चिन्ता एवं चितामें केवल बिन्दुका ही असाम्य है और यह बिन्दु ही प्राणी के लिये सिन्धुसा होकर उसे डुबा कर ही प्रसन्न रहता है। यह अनुभवसिद्ध और शास्त्रसम्मत सिद्धान्त है। यदि चिन्ता किसी ऐसी वस्तुके लिये हो, जिसका स्वामित्व परिवर्तनशील हो और समाजद्वारा प्रशस्त न माना जाता हो, तो दोनों स्थितियों में यह हृदयमें कुम्हारके अवअनलवत् अन्तर्धूम होती रहती है, जिसमें प्राणीकी जीवन्त शक्तियोंका लगातार होम होता जाता है । इस प्रकार चिन्ताके विविध भेदोपभेद हैं, तो आधार और लक्ष्यभेदसे अनेक रूपोंमें प्रतिबिम्बित होते हैं। यह ऐसा मानसिक
विकार है, जो षड्मत्सरसे परे होकर मृदुघातक है। जहरकी मीठी गोली ही इसे मानिये ! यह घर आयी किसी भी देवीसम्पत्ति - सद्वृत्तियोंमें तालमेल नहीं बैठने देती। रातमें जागेगी दिनमें भी जगायेगी, कभीकभी अनचाही कल्पना भी करायेगी। प्रियके प्रति भी अशिव धारणा बनाने में भी सहयोग देगी।
चिन्ताका क्षेत्र व्यापक है। किसी-न-किसी रूपमें यह हर में अपना दुनिवार्य प्रभाव रखती है। सभी भावभूमियाँ और विचारलहरियाँ इसीका चरण घूमती हैं। यही हमारेआपके बीचको खाई बनाती है। अनुकरण और पूर्वग्रह इसीके उदात्तीकरण हैं। युगानुसार यह अपनी शक्तिद्वारा आकुञ्चनप्रसारणरूप विषमता बिखेरती रहती है। यही एक ऐसी विडम्बना है, जो इस भरे संसार में प्राणी की अकेलापन जताती है। बहुत कुछ होते हुये भी प्राणीको स्वत्वहीनता और विकुण्ठित जीवनकी असंगत अधिरूढ़ियोंसे तन्मयतासे संश्लिष्टाबबोधन कराती है। पुरातनयुगीन खंडहरों और खण्डित स्थापत्य संग्रहालयों में तत्तद्देशीय सामयिक चिन्ताधाराके मूर्तरूप अपने स्वस्थ रूप में अब भी सुरक्षित हैं और दर्शनीय भी हैं।
चिन्तन और चिन्ता दोनों स्वःपरसे अपना सन्दर्भ ग्रहण करते हैं। इनमें संशोधन और अधिकतर अनुकूलन यथास्थिति करनेकी काफी क्षमता देखी जाती है। मनके समान इनकी भी अबाध चपलता द्रष्टव्य है। चित्तशुद्ध के लिये इनसे ऊपर उठना अनिवार्य इसलिये है कि इसे अपने साथ दूसरी भावात्मक शक्तियोंकी ऊर्जस्विता और सक्रियता सह्य नहीं। यही एक ऐसी चैतन्य और चिरजीवी भावना है, जो प्राणीका जन्मजन्मान्तरोंमें भी साथ नहीं छोड़ती। इस प्रकार यह अपने लपेटमें प्राणीको त्रस्तव्यस्त कर देती है और जीवनको असन्तोषोन्मुख करती जाती है।
स्वस्थ, प्रसन्न, दीर्घायु और वर्चस्वी रहने के लिये जीवनको इससे सर्वथासवंदा असंश्लिष्ट रखना चाहिये । हमें प्रज्ञावादी स्थिर बुद्धिवाला बनना चाहिये। अपने विवेक और निरालस्य सत्प्रयाससे सद्ग्रन्थों और सत्पुरुषोंके संग व निर्देशद्वारा पथिकृत् अविश्रांत निर्भीत कर्म करने चाहियें। सर्वत्र अपने कर्त्तव्योंमें अधिकारकी इतिश्रीका अन्तर्भा परमार्थपक्षके साधकके लिये श्रेयस्कर है। चिन्ता आनेपर उसके निराश और पुनरावृत्तिसे बचने के लिये अपनी साधनाकी कमियोंका यथावत् निराकरण प्रगल्भ धीरता से करना ही राजपथ है। दृष्टिकोणके वैषम्यसे भावात्मक आशंकाओंका मनसा निरोध करना और यावत् भय उपस्थित न हो, उससे सामना करने की क्षमताका अर्जन करना, अपने पूर्वज व महान् विभूतियोंसे प्रेरणा लेना, असंग और अनासक्त रहना चिन्तासे विमुक्तिका प्रसिद्ध और सरल सोपान है ।