अहंकार-विनाश का बीज
मानव प्राणी को जन्म से ही कुछ दोष लगे रहते हैं, उनमें अहंकार (अहं) का दोष सर्वप्रधान है, उसी के कारण जीव में अनेक दोषों का निर्माण होता है-अहंकार, अभिमान और गर्व ये शब्द लगभग एक ही अर्थ के हैं। अहंकार दूसरों की तुलना में खुद को ऊँचा समझने की भावना होती है। अहंकार व्यक्ति के अहं भावना का विकृत आविष्कार है, अभिमान या गर्व अपने साथ-साथ अपनों पर भी होता है।
सामान्यतः धन, यौवन, सुन्दरता, विद्वता, सत्ता आदि का अहंकार हो जाता है। वास्तव में किसी भी बात का अहंकार या अभिमान व्यर्थ होता है, क्योंकि, ये सब चीजें क्षणभंगुर होती हैं, जो आज है और कल नष्ट होनी हैं, जब मनुष्य का शरीर और जीवन ही नाशवान है तो और चीजों का कहना ही क्या ? दूसरी बात, संसार में एक से बढ़कर एक व्यक्ति होते हैं, "बहुरत्ना वसुंधरा" फिर भी मनुष्य अभिमान क्यों करता है ? इसका कारण मनुष्य का अज्ञान है, उसकी सोच कुएँ में रहने वाले मेंढक की तरह होती है।
पृथ्वीपर यूनान नाम का एक अत्यन्त छोटा देश है उसका एक शहर एथेन्स है, उस एथेन्स का सुकरात नाम का तत्ववेत्ता सर्वपरिचित उसके एक दोस्त का एथेन्स शहर में एक भव्य और सुन्दर महल था, उस दोस्त को अपने महल पर बहुत गर्व था। एक दिन सुकरात ने उसको पृथ्वी का नक्शा लाने को कहा और पूछा - "बताओ इसमें यूनान देश कहाँ है, उसने युनान दिखाया । “अब बताओ एथेन्स कहाँ है” और “अब इसमें अपना महल दिखाओ” पृथ्वी के नक्शे पर यूनान एक छोटे से बिन्दु की तरह है, और फिर उसमें उसका महल कहाँ दिखेगा? सुकरात के दोस्त की तरह हमें अपनी छोटी-छोटी चीजों का भी अभिमान हो जाता है।
मनुष्य की महानता उसके नम्र और विनयशील स्वभाव से आंकी जाती है। अपने पूर्व राष्ट्रपति डॉ० ऐ.पी.जे. अब्दुल कलाम उसका जीता जागता उदाहरण है। उथला पानी ही ज्यादा शोर करता है, आधे-अधूरे लोग ही अहंकार के कारण हवा में चलते हैं, महात्मा तो फलों से लदे हुए पेड़ की तरह हमेशा नम्रता से झुके हुए होते हैं, महान विद्वान आदि शंकराचार्य को कौन नहीं जानता ? एक बार वे समुद्र किनारे पर अपने एक शिष्य के साथ बैठे हुए थे, उनके शिष्य ने उनको कहा, "आपका ज्ञान इस सागर की तरह अपार है" उन्होंने तुरन्त अपनी छड़ी सागर के जल में डुबोकर निकाली और कहा, "मेरा ज्ञान इस छड़ी पर लगे हुए पानी जितना ही है" श्रीमान शंकराचार्य का यह हाल है तो आज के तथाकथित विद्वानों को ज्ञान कितना होगा? संस्कृत में कहा जाता है, "विद्या विनयेन शोभते" अर्थात् विद्या (ज्ञान) विनम्रता से शोभा देती है, अहंकार से नहीं।
अभिमान अज्ञान अवस्था में ही होता है, जब मनुष्य को सत्य का ज्ञान हो जाता है, तब उसका सब अभिमान मिट जाता महानुभाव पंथ (जयकृष्णी) के इतिहास में म्हाईंभट्ट नाम के एक महान विद्वान ब्राह्मण थे, उनके पास धन, यौवन और विद्या ये तीनों गुण विपुल मात्रा में थे, अतः सहज ही उन्हे इतना अभिमान हो गया कि वह अपने सम्मुख दूसरों को तिनका समझते थे। तथा अपने आप को ज्ञान का सूर्य समझते थे।
जब वह भगवान श्रीचक्रधर प्रभु जी के सम्पर्क में आये तो उन्हे अपने अज्ञान का अहसास हुआ। परमेश्वर का सत्य ज्ञान हो जाने पर उनका समस्त अभिमान दूर हो गया और वह श्री भगवान जी का परमभक्त बनकर संन्यासी का जीवन व्यतीत करने लगे। जयकृष्णी पंथ के साहित्य का आधारभूत ग्रन्थ (लीलाचरित्र) उन्ही के प्रयत्नों का फल है। मनुष्य में अहंकार जन्मजात होता है, वह तमोगुण का कार्य है। सांसारिक जीवन में प्रत्येक व्यक्ति थोड़ा बहुत अहंकार में डूबा होता है। भगवान श्रीकृष्ण ने गीता के सोलहवें अध्याय में अहंकार को "आसुरी सम्पत्ति" कहा है, आसुरी सम्पदा के लोग क्रोधी और अहंकारी होते हैं, पुराण में सब राक्षस अहंकारी थे, अहंकार ही उनके नाश का कारण हुआ।
अहंकार का सर्वोत्तम उदाहरण रावण है, रावण के पास क्या नहीं था ? उसके पास विद्वता, सत्ता, साम्राज्य, शौर्य, धन-दौलत, पतिव्रता पत्नी, शूर व आज्ञाकारी पुत्र, इतना सब कुछ था फिर भी अहंकार के कारण उसका नाश हुआ। महाभारत में दुर्योधन का नाश भी अहंकार से ही हुआ था। अहंकार मनुष्य का विवेक नष्ट कर देता है।
अहंकार कलह, क्रोध और अधोगति का बीज होता है, वह अन्त में दुःख और अशान्ति का कारण बनता है, नम्रता शत्रु का नाश करती है लेकिन अहंकार खुद का नाश करता है और शत्रु निर्माण करता है, अहंकार का सर हमेशा नीचा रहता है "तरने को नम्रता तथा डूबने को अभिमान" यह कहावत सही है। इस प्रकार अहंकार भयंकर दोष है, जो मनुष्य के पतन का कारण बनता है, अहंकारी व्यक्ति का सर्वनाश सुनिश्चित है।
आज के जमाने में पारिवारिक झगड़े, पति-पत्नी की अनबन, पड़ोसियों के झगड़े, धार्मिक और राजकीय तनाव ये सब अहंकार के कारण ही होते हैं। सांसारिक जीवन में ही नहीं पारमार्थिक जीवन में भी अहंकार, रोड़ा बनता है। अभिमानी व्यक्ति को कभी परमेश्वर की प्राप्ति नहीं हो सकती। परमेश्वर समर्पण भाव से किया हुआ दान ही स्वीकारते हैं। दुर्योधन के द्वारा (उसके अहंकार के कारण) अनेक प्रकार के मिष्ठान भगवान श्रीकृष्ण ने स्वीकार नहीं किए, लेकिन विदुर के घर मांग कर कच्चा दलिया खा लिया, क्योंकि समर्पण की भावना थी, सुदामा के चावल भी बड़े आनन्द से खाये थे। इस तरह धर्म के क्षेत्र में अहंकार बिल्कुल वर्जित है। निराभिमानी और निष्काम होना सच्चा परम धर्म है।
सन्त कबीर ने कहा है -"जब मैं था तब हरि नहीं, अब हरि हैं मैं नहीं" । अर्थात् "मैं" (अहं) और "हरि" (परमात्मा) दोनों एक साथ नहीं रह सकते। भगवान श्री चक्रधर प्रभु जी ने कहा है (आचरण प्रकरण 33) जहाँ परमेश्वर (अनन्त) रहता है वहाँ कोई अन्य नहीं रहता, जहाँ अन्य रहता है वहाँ अनन्त नहीं रहता। अहंकार के दुष्परिणाम ध्यान में रखते हुए सब सन्तों ने अहंकार छोड़ने का उपदेश दिया है। महाराष्ट्र के सन्त रामदास ने कहा है-हमेशा नम्रता से बोलना चाहिए, संत तुकाराम ने कहा है भगवान मुझे छोटापन दे, संत मुक्ताबाई ने कहा है लोभ और अहं छोड़कर दया और क्षमा अपनानी चाहिए, अगर विश्व क्रोध से अग्नि हुआ तो हमें पानी होना चाहिए, गुजरात के सन्त नरसी मेहता ने अपने भजन में कहा है दूसरों के दुःखों में उपकार करने पर भी मन में अभिमान नहीं होना चाहिए,
सन्त कबीर का कहना है- धन, यौवन का गर्व न कीजै, भगवान श्रीकृष्ण ने भगवद्गीता में ममता एवं अहंकार से रहित होकर सुख-दुःख की प्राप्ति में सम और क्षमावान रहने को कहा है। (अ.12 श्लोक 13) भगवान श्रीचक्रधर प्रभु जी ने कहा कि (आचार प्रकरण 179) अहंकार को अपने अन्दर से जड़ से उखाड़ देना चाहिए, नहीं तो और भी अंकुर निकलेंगे। तत्पश्चात् शान्ति का पौधा लगाना चाहिए। इसका भावार्थ है कि अहंकार का पूर्ण त्याग किए बिना मन में शान्ति नहीं आ सकती, दूसरे एक वचन में श्रीचक्रधर प्रभु जी ने कहा है (आ 51) रजतम दूर करके जो सत्वगुण में स्थिर होता है उसको ही धर्म का अधिकार प्राप्त होता है, तमोगुण और रजोगुण ये दोनों धर्म के आचरण में विघ्नकारक हैं।
संसारी लोग ही नहीं साधु-सन्यासी भी कभी-कभी अहंकार का शिकार हो जाते हैं, इसलिए श्रीचक्रधर प्रभु जी ने कहा है (आचार 74)" जिंदा होते हुए भी एक महात्मा एवं साधक को मरे व्यक्ति समान होना चाहिए, यानि मान-अपमान, ममता, अहंकार, रज-तम ये सब त्यागकर निर्विकार, निरहंकार रहकर जीवन बिताना चाहिए। अहंकार कैंसर के समान दुर्धर है, संतों और स्वयं परमेश्वर अवतारों के उपदेशों के बावजूद भी वह नहीं हटता। रस्सी जल जाती है, किन्तु उसका बल कायम रहता है, कोई विरला ही उससे पूर्णतया छुटकारा पाता है इसलिए कहते हैं “दूध जलता है पानी जलने के बाद, इन्सान सुधरता है बरबाद होने के बाद।”