आधुनिक त्याग एक खिलवाड़
जय कृष्णी साम्प्रदाय भक्ति प्रधान है। भक्ति के 9 अंग माने गए हैं।
(1) भगवान को लोलाओं का श्रवण करना उसका ज्ञान सुनना समझना मनन करना।
(2) भगवान के गुणों का वर्णन करना, कीर्तन करना ।
(3) नाम लोला, मूर्ति-चेष्टा, पूर्वक भगवान का नाम स्मरण करना।
(4) भगवान के श्री चरणों की सेवा करना, या श्री चरणांकित वस्तुओं की (विशेषों की) सेवा करना।
(5) चन्दन अक्षत पत्र-पुष्प आदि से भगवान का पूजन करना भगवान के वियोग में भगवान के चरणांकित स्थान प्रसादों का पूजन करना ।
(6) त्रिकाल भगवान को नमस्कार करना दण्डवतें डालना असन्निधान में स्थान त्य प्रसादों को नमस्कार करना दण्डवत डालना।
(7) भगवान का सेवा दास्य करना, भिक्षु-महात्माओं का सेवा-दास्य करना।
(8) सखाभाव पूर्वक भगवान से प्यार करना और
(9) अपना आप (तन ज मन धन) प्रभु चरणों में समर्पित कर देना। अर्थात् देश ग्राम परिवार धन दौलत मान सन्मान का परित्याग करके परमात्मा का अनुसरण लेना यानि से संन्यास धारण करना ।
पुराने समय में सच्चा सुच्चा त्याग व संन्यास होता था। जैसे श्रीनिलभट्ट भांडारेकारबास जी ने किया । जिस तरह मल मूत्र का त्याग करने पर मनुष्य फिर कर नहीं देखता। उसी तरह ज्ञान प्राप्ति के उपरान्त ज्ञानी को निश्चय हो जाता है कि एक परमात्मा ही मेरे माता पिता सखा सुहृद् धन दौलत सब कुछ है। संसार सम्पत्ति वास्तविक सम्पत्ति नहीं। जीव की सच्ची सम्पत्ति परमेश्वर ही है। रिश्तेदार सम्बन्धि दुश्मन जैसा ही काम करते हैं। क्योंकि इन्हीं की ममता-मोह वश जीव परमात्मा से दूर रहता आया । ज्ञान होने पर सब कुछ छोड़कर अपना तन मन, धन प्रभु चरणों में अर्पित करके अपना आत्मकल्याण का, मुक्ति का मार्ग प्रशस्त कर लेता है। जिस प्यार से पुराने समय में मनुष्य त्याग करता था उस प्यार का आजकल अभाव होता जा रहा है।
संसारो लोगों को सन्तान सबसे अधिक प्रिय होती है। पुराने लोग भगवान के प्रेम वश होकर अति प्रिय सन्तान को प्रभु चरणों में भेंट कर देते थे। वे ही बच्चे पढ़-लिख कर महान अधिकरण होकर धर्म की धूरा खींचते थे। धर्म का प्रचार व प्रसार करते थे। आजकल मनुष्यों में परमेश्वर के प्रति प्यार कम और संसार की ममता मोह अधिक होने से न तो बालक दान करते हैं। न स्वयं को प्रभु चरणों में अर्पित कर पाते हैं। संसार की सारी जिम्मेदारी समाप्त हो जाने पर भी संसार के धक्के खाते हुए शर्म नहीं करते। संसार से दुखी होकर तंग आकर या भगवान के प्रेमवश जर्जर शरीर हो जाने पर त्याग भी करते हैं परन्तु त्याग के भी नियमों का पालन करते हुए नहीं दिखाई देते ।
परमेश्वर श्रीचक्रधर स्वामी जी ने श्रीनागदेवभट जी को सर्वप्रथम देश, ग्राम, और रिश्तेदारों का त्याग करने के लिए कहा है। आजकल के अधिकतर साधु, बाईयां अपने हो देश, ग्राम और गलियों में घूमते हुए नजर आते हैं। अपने ही घरों में आते जाते हैं। उनके दुःख-सुख सुनते हैं। हर्ष और गमी मनाते हैं। भगवान त्याग करने को कहते हैं परन्तु मनुष्य त्याग से डरता है। यह संन्यास और त्याग से खिलवाड़ नहीं तो क्या है ? भगवान द्रव्य का त्याग करने को कहते हैं और भक्त द्रव्य को साथ में रख कर भगवे कपड़े पहनता है। दुनियां को दिखाने के लिए भले ही साधु का वेष धारण कर लें परन्तु वह त्यागी संन्यासी कहलाने का हक्कदार नहीं है।
संसार की प्रमुख दो ही वस्तु त्याग करने योग्य होती हैं एक द्रव्य और दूसरा परिवार। द्रव्य का भी त्याग न हो और रिश्तेदारों की ममता-मोह भी न छूटे तो संन्यास किस बात का? साधु हो या तपस्वीनी बाईयां अगर कर्मरहाटी के द्रव्य से लिम्पित रहते हैं। ममता मोहवश कम से कम साल में एक दो बार परिवारों में जाते रहते हैं। ऐसा करने से न तो सच्चे वासनिको को अच्छा लगता है। ना ही दुनिया को अच्छा लगता है। न परिवार के मनुष्य संतुष्ठ होते हैं। इससे दुसरे नये नये संन्यास धारण करनेवालो पर गहरा दुष्प्रभाव पडता हैं। वे भी उन्ही का अनुकरण करते हैं।
जिस व्यवहार-वर्ताव से लोक दुनियाँ खुश नहीं रहे तो उस व्यवहार से परमात्मा कैसे खुश हो सकत है? जो लोग द्रव्य का त्याग नहीं कर सकते और परिवार की ममता-मोह भी नहीं छोड़ते ऐसे लोगों को क्या कहना चाहिए? गृहस्थो कहें तो साधु का वेष है और साधु कहें तो साधु के लक्षण नहीं दिखाई देते ? ऐसे लोगों को धर्म विरोधक या के दुश्मन कहें तो अनुचित नहीं होगा क्योंकि स्वयं नहीं करना पाप है और दूसरों के धर्म कार्यों में रुकावट पैदा करना महा पाप है।
परमेश्वर जीवों के कल्याण के लिए इतनी बड़ी सृष्टि की रचना करवाते हैं। स्वयं अवतार धारण करके अयोग्य जीवों को योग्य बना कर ज्ञान का दान करके अनुसरण के लिए प्रेरित करते हैं। भगवान जीव उद्धार के लिए असतीपरी बतलाते हैं। भगवान स्वयं कष्ट उठाते हैं। मुमुक्षार्थी मोक्ष मार्ग पर चलने का प्रयत्न करता है। परन्तु नकली त्यागियों को देख कर वह भी वैसा ही आचार करता है। जिसको देख कर मनुष्य सत्य मार्ग का अनुसरण नहीं कर पाता उसका भी निमित्त दोष तो लगता है। निमित्त दोष सबसे बड़ा दोष है। निमित्त इष्ट भी सब से बड़ा इष्ट है वैसे ही निमित्त अनिष्ट भी बड़ा अनिष्ट है।
परमेश्वर के बतलाए हुए नियमों का पालन नहीं करना, मन मर्जी का वर्ताव करना यही भगवान के साथ, धर्म के साथ, विरोध है। गीता में भगवान कहते हैं कि जो व्यक्ति शास्त्र विधि का त्याग करके मन मर्जी का वर्ताव करता है उसको धर्म की सिद्धि प्राप्त नहीं होती। न उसे सुख ही होता है न श्रेष्ठ गति ही प्राप्त होती है ।
सारांश :- भविष्य में त्याग करने वाले संन्यास धारण करने वालों को चाहिए कि वे स्वामी के बतलाए हुए धर्म के पवित्र नियमों का पालन करने का व्रत धारण करें। द्रव्य तथा रिश्तेदारों का त्याग किए बिना मुक्ति की आशा करना व्यर्थ है। अपनी आत्मा के साथ विश्वास घात है। धर्म के साथ व परमेश्वर जी के साथ विरोध है। क्यों कि परमेश्वर हो के भी उन्होने पहले अपने घर का त्याग किया था। गुजरात राज्य का त्याग कर कें महाराष्ट्र आये । परमेश्वर ने खुद आचरण करकें हमे बताया हैं कि स्वदेष का त्याग कितना आवश्यक हैं। जो स्वदेश का ही त्याग नहीं कर सकता वह आगे का आचरण कैसे कर पायेगा? उसें भगवत्प्राप्ती का आचरण करना असंभव हैं ।