संन्यास के बिना सद्गति नहीं
किसी भी राष्ट्र संस्था या धर्म को सुचारु ढंग से चलाने के लिए कुछ न कुछ नियम बनाए जाते हैं। जिस तरह किसी पहाड़ी से झरना निकलता है तो उसका पानी बिलकुल साफ सुथरा और निर्मल होता है। आगे चलकर उसमें अनेक प्रकार के गन्धे नालों का सम्मिश्रण हो जाने और उसमें गन्धगी बढ़ने से न तो पहला स्वाद उसमें रहता है और न ही वह आरोग्य ही कायम रख सकता है।
वैसे ही राष्ट्र संस्था अथवा धर्म में स्वार्थी, लोभी, दम्भी, विचार-विवेक हीन लोगों का प्रवेश हो जाने पर वे विनाश के लिए कारण बनते हैं। या बालक जन्मते समय पूर्ण तन्दुरुस्त रहता है आगे चलकर एक तो माता-पिता की लापरवाही या उसके अपने गलत आचरण से नाना विध रोग, आधि-व्याधि निर्माण हो जाती है वैसे ही राष्ट्र संस्था और धर्म में आचार भ्रष्ट लोगों के मिल जाने से उसका जल्दी से जल्दी विनाश हो जाता है। ऐसे पथ भ्रष्ट लोग आप तो डूबते ही है परन्तु औरों को भी डूबाते हैं। संसार का नियम है कि विशेष व्यक्ति का अनुकरण सामान्य व्यक्ति करता है। किसी राष्ट्र का नेता, संस्था का संचालक या धर्म का गुरु गलत राह पर चलना शुरु कर देता है तो दूसरे लोग भी वैसा ही करना शुरु कर देते हैं।
उपरोक्त उदाहरणों के अनुसार परमात्मा ने इतनी बड़ी सृष्टि की रचना की, किस लिए? जीवों को मुक्ति देने के लिए। जिसके लिए स्वयं ईश्वर को भी मनुष्य रूप धारण करके आना पड़ता है। वे इन अज्ञान जीवों को ब्रह्मविद्या का ज्ञान देते हैं, इष्ट-अनिष्ट, पाप-पुण्य, अपना पराया, लोक-परलोक का ज्ञान देकर चुप रह जाते हैं। ज्ञान देना परमेश्वर का कर्तव्य होता है फिर परमात्मा की आज्ञा का पालन करना अनुसरण करना जीवों का कार्य है। अनुसरण लेने पर जीवों को मुक्ति देना यह परमात्मा का दूसरा विशेष कर्तव्य है।
आजतक के इतिहास में सतयुग से लेकर कलयुग तक जितने भी ज्ञान दाते ईश्वर अवतार हुए हैं उन्होंने घर बैठे किसी को भी मुक्ति नहीं दी। चाहे वह राजा हो अथवा रंक। सतयुग में हंस अवतार ने सनकादिक ऋषियों को ज्ञान दिया वे संन्यासी हुए। त्रेता युग में श्री दत्तात्रेय प्रभु राजा यदु को ज्ञान दिया वह सारा राज-पाट छोड़कर सन्यासी बना। मदालसा रानी और उसके अर्लक राजा सहित 7 पुत्रों को श्री दत्तात्रेय प्रभु ने संन्यास दिया। द्वापर युग में श्री कृष्णचन्द्र भगवान ने अपने परम प्रिय भक्त विदुर और उद्भव तथा ज्ञानियों में राजा मुचकुन्द और पांचों पाण्डवों को, घर-बार, राज-पाट, देश-ग्राम छोड़कर हिमालय में तपश्चर्या करने की आज्ञा दी। कलयुग में हमारे साधन दाता सर्वज्ञ श्री चक्रधर स्वामी ने तो स्वयं संन्यास वेष धारण करके भक्तों को संन्यास लेने के लिए प्रेरित किया। प्रथम निल भट्ट (भाण्डारे कार) के घर जाकर उसे ज्ञान दिया और साथ में ही ले गये, आचार्य श्री नागदेव जी के ८ लिए ऐसी परिस्थिति निर्माण की जिससे तुरन्त ही मजबूर हो कर उन्हें संन्यास लेना पड़ा।
८४ नरकों का उपदेश देकर महदाइसा को संन्यास लेने के लिये प्रेरित किया। दायंबा को जड़त्व योनि के नरकों का डर दिखाकर कहा 'दायंबा!' यदि तुमने हमारा अनुसरण नहीं किया तो देखले इस पीपल के पेड़ की न्याई (जिसकी डालियां नीचे और मूली ऊपर है) पेड़ों की योनियों में जाना पड़ेगा जहां सीमा रहित समय तक दुःख भोगते रहोगे। सारंग पंडित को खाने-पीने का लालच देकर संन्यास लेने को कहा।
गणपति आपयों जिन्हें कुष्ट रोग हो गया था उनकी पत्नी ने स्वामी के सन्मुख प्रार्थना की प्रभो! पंडित जी का कुष्ट रोग दूर करने की कृपा करें। तब भगवान ने कहा पंडित जी संन्यास लें तो रोग दूर कर देंगे। पंडतानी ने कहा बिना संन्यास के क्यों नहीं ठीक कर देते ? तब स्वामी ने कहा यह हमारी इच्छा है। सारांश यही कि जिन्होंने जीवोंद्वार का व्यसन धारण किया है, उनके आचार धर्म के पहले ही वचन में अपने देश, ग्राम का त्याग करो और सम्बन्धियों का सम्पर्क तो विशेष प्रकार से छोड़ो यानि दूर से भी उनकी याद मत करो।
परमेश्वर सर्वज्ञ, अन्तर्यामि, जीवों का परम उपकारक एवं जगत् पिता है। स्वार्थमय रिश्ते से पिता कभी अपने बच्चों का बुरा नहीं चाहता फिर निःस्वार्थ उपकार कर्ता जगत् पिता कभी अपने बालकों (जीवों) के विषय में बुरा सोच सकता है? नहीं, कभी नहीं (जीवों के) मनुष्यों के संन्यास लेने से परमात्मा को कोई लाभ नहीं है। फायदा है तो जीवों का ही है।
कुछ लोग कहते हैं कि सबके सब संन्यास ले लें तो दुनियां किस प्रकार चलेगी? क्या दुनियां चलाने का हमने ठेका ले रखा है? जब हमने ठेका नहीं उठाया फिर उसकी चिन्ता करने की हमें क्या जरूरत है? सृष्टि रचना करते समय क्या परमात्मा ने हमारी सलाह ली थी ? इत्यादि अनेक प्रश्न उत्पन्न होते हैं। आप लोग देखते हैं कि संसार में नाना प्रकार के खेलों का आयोजन किया जाता है। उसका समय निश्चित करके जीतने वालों को इनाम दिये जाते हैं। होनहारों को दुबारा खेलने का मौका देते हैं और नालायकों को दूर कर देते है। जितने भी खिलाड़ी बुलाए जाते हैं एक बार खेलने के लिए सब को मौका दिया जाता है। अन्त में खिलाड़ी और खेल के संयोजक सभी अपनी-2 राह पकड़कर चले जाते हैं। क्या किसी खिलाड़ी ने सोचा कि जिस जगह हम खेल रहे थे उसका अब क्या होगा? कोई नहीं सोचता।
वैसे ही परमात्मा ने सभी जीवों को मुक्ति देने का बीड़ा उठाया है। सृष्टि रचना करवाकर जीवों को ज्ञान देते हैं। अनुसरण (संन्यास) के अखाड़े में खेलने के लिए प्रेरित करते हैं। जो अन्त तक अनुसरण निभाता है उसे मुक्ति दे देते हैं। जो गिर जाता है वह जन्म-मृत्यु के चक्र में पड़ा रहता है। सभी जीवों को एक बार ज्ञान दान दे दिया जाता है फिर संहार करवा देते है। इस प्रकार असंख्य बार सृष्टि रचना और संहार हुए हैं जब तक सभी जीव मुक्तिधाम में नहीं पहुंचते तब तक सृष्टि रचना होती रहेगी। सृष्टि की चिन्ता हमें करने की जरूरत नहीं। हम तो परमेश्वर के अखाड़े के खिलाड़ी हैं।
संसार में परमात्मा को भक्त से अधिक प्रिय दूसरा कोई नहीं है। जिस तरह शरीर सम्बन्धित माता बहिनें हमेशां अपने पुत्र और भाई की उन्नति के बारे में कामना करती हैं। वैसे ही परमात्मा अपने प्यारे सुपुत्र (जीवों) भक्तों के विषय में सोचते हैं कि ये जीव संसार के भोग विलासों का त्याग करके भिक्षा का पवित्र तथा युक्त आहार लेकर शरीर को दुबला-पतला बनाकर गिरी-कन्दराओं में एकान्त बैठकर कब- 2 मेरे ध्यान, चिंतन में निमग्न होगा ? और कब-2 मैं इसकी अविद्या का नाश करके इन्हें अपना परमानन्द दूंगा? सर्व समर्थ परमात्मा को अपने प्रिय भक्तों का हित यदि भोगों में ही दिखाई देता तो उन्होंने त्याग करने के लिए भूलकर भी नहीं कहा होता। गीता कहती है कि-'त्याग के बाद ही शान्ति प्राप्त हो सकती है'।
एक दिन किसी मन्दिर में विजन के लिए गए। गर्मी के दिन थे, भगवान के पैरों पर धूल लगी थी, अतः महदाइसा ने महादेव के लिंग पर रखी गलती (घड़े) से पानी लेकर स्वामी के पैर धोकर चरणामृत लिया। अपने स्थान पर स्वामी गए, विश्राम कर रहे थे, तब रामदेव महदाइसा को कहने लगे 'महदाइसा' तू बिटल गई। उसने कहा क्यों ? रामदेव ने कहा पुजारी के हाथ का तूने पानी पी लिया, उसने कहा मैंने तो भगवान का चरणामृत लिया है।
रामदेव ने कहा चाहे चरणामृत हो परन्तु पानी तो पुजारी के हाथों का था। रामदेव ने कहा तू भी बड़ी भोली है, परमात्मा को क्या जरूरत जो कहे 'ये जीव स्वर्ग में जाय अथवा नरकों में, उन्हें क्या चिन्ता है तूमने पढ़ा नहीं सबके सब यादव आपस में लड़ झगड़ कर मर गये। उन्हें भगवान श्रीकृष्णचन्द्रजी ने कब रोका ? इस प्रश्न का उत्तर महदाहसा नहीं दे सकी। स्वामी से इस प्रश्न का उत्तर लेकर रामदेव को उत्तर देने की धुन में स्वामी के पास महदाइसा पहुँची। स्वामी अपने आसन पर विराजमान थे। महदाइसा ने रोते हुए सारा
वृतान्त कह सुनाया और कहा भगवन्! क्या आपको जीवों की भलाई की चिन्ता नहीं? महदाइसा के शब्द सुनकर शान्ति के सागर, दयालु मूर्तिमंत परमेश्वर को क्रोध आ जाता है। आवेश में पैर कम्प रहा था स्वामी ने कहा ५६ करोड़ यादवों में अर्जुन और उद्भव को छोड़कर भगवान श्रीकृष्णचन्द्रजी का कौन था? कोई इन्द्र का, कोई सूर्य का, नानाविध देवता भक्ति में सभी लगे हुए थे। भक्तों की चिन्ता भगवान को क्यों नहीं? यदि उद्भव अर्जुन के केस को किसी ने धक्का दिया होता तो 'एरी वाही चे डोळ, ऐरी वाही न करिति' यानि मटके की न्याई इस ब्रह्माण्ड को उल्टा किया होता। उत्तर सुनकर महदाइसा खुश हुई। रामदेव के पास जाकर उसे समझाया। मुक्ति के लिए त्याग आवश्यक है ही। सिवाय पारमार्थिक कोई भी साधना की जाए त्याग के सिवाय साधनों की सिद्धि प्राप्त नहीं होती। इतिहास से पता चलता है कि गोपी चन्द्र, भर्तृहरि, गौतम बुद्ध आदि ने राज-पाट का त्याग किया था।
सर्वज्ञ श्रीचक्रधर स्वामी ने एक घटना बतलाई, 'लुई पाई नामक एक सिद्ध पुरूष शराब की भट्टी के पास बैठे हुए कीड़े उठा-2 कर मुंह में डाल रहे थे। राजा-प्रधान सेना सहित सामने से गुजरे। राजा ने देखकर हंसते हुए कहा, देखिए ! प्रधान के गुरू का हाल।
(लुईपाई नाथ पंथ का सिद्ध था और प्रधान को नाथ पंथ का उपदेश था) सिद्ध ने कहा राजा तू हंसा तो तू हंसा, यदि मैं हंसू तो तेरा सारा परिवार हंसेगा। राजा ने कहा 'हंस हंस बापेया' यानि हंस कर दिखा। लुईपाई ने थोड़ा सा हंसने का अनुकार करते हुए इतनी हास्य शक्ति प्रकट कर दी कि हाथी, घोड़े और सेना इतने जोरों से हंसने लगे कि-प्राण निकलने की बारी आ गई। राजा और प्रधान दोनों को छोड़ दिया था। प्रधान ने कहा राजन्! क्षमा याचना कीजिये वरना कोई भी बचने वाला नहीं है। राजा के माफी मांगने पर सब शान्त हो गए। राजा प्रधान को कहता है कि हमारे पास इतना राज्य होते हुए भी हमारे अन्दर इस प्रकार की शक्ति नहीं। हो न हो यह सिद्धि प्राप्त करनी चाहिए।
कुम्हार लुईपाई से प्रार्थना की कि आपके पास जो यह सिद्धि है हमें प्रदान करने की कृपा करें। सिद्ध ने राजा और प्रधान को कहा कि दोप्रहर को के घर से टूटे बर्तन का खप्पर लेकर उसमें गांव में से पांच घर भिक्षा लेकर आओ सिद्धि दे देंगे। गांव में जाकर राजा ने कहा 'मैं राजा और तू प्रधान, दिन में भिक्षा लेना बड़ी शरम की बात है'। अन्धेरा पड़ने पर भिक्षा लेकर चलेंगे। वैसा ही किया अन्धेरा पड़ने पर भिक्षा लेकर गए तो 'लुईपाई' ने कहा बेटा! सिद्धि गई बारह वर्ष। तुम शरम करके समय पर नहीं आए अब बारह वर्ष में सिद्धि मिलेगी। राजा और प्रधान ने अपने पुत्रों के सुपुर्द राज्य कर दिया और आप लुईपाई के साथ चले गए। समय आने पर राजा और प्रधान को सिद्धि प्राप्त हो गई'।
पूर्व काल में हमारे पूर्वजों ने नियम बना कर अपनी आयु के चार हिस्से कर दिये थे। प्रथम 25 वर्ष की आयु तक विद्या अभ्यास और ब्रह्मचारी रहना 25 से 50 तक गृहस्थाश्रम में बच्चों का लालन-पालन शिक्षा-दिक्षा। 50 से 75 वानप्रस्थाश्रम जिसमें अलग रहकर तपश्चर्या करना और 75 से 100 वर्ष की आयु का समय संन्यासाश्रम में सभी ने प्रवेश करना चाहिए। इस नियम के अन्तर्गत सभी लोग संन्यास ग्रहण करते थे। परन्तु अपवाद रूप में किसी को किसी भी अवस्था में वैराग्य उत्पन्न हो जाता तो वह संन्यास ले लेता था।
आचार्य श्रीनागदेवजी के शिष्यों में से एक विद्वान् तथा भक्तिवान् शिष्य पंडित बास थे। उनकी धर्म पत्नी हिराइसा भी 'वासनीक' थी। संसार से निवृत्त हो चुके थे सिर्फ एक लड़के की शादी करना शेष कार्य था। हिराइसा ने पंडित बास को कहा एक लड़के की शादी के लिए दो व्यक्ति अपनी आयु का अमूल्य समय बर्बाद न करें। एक तों आप पहले जाकर संन्यास ग्रहण करें, मैं बच्चे की शादी करके आ जाऊंगी। नहीं तो मुझे पहले जाने दें। आप लड़के की शादी करके आ जाना। हिराइसा को भेज दिया और आप लड़के की शादी के लिए रूक गए। लड़के की शादी हो जाने पर भी अपने वायदे के अनुसार पंडित बास घर से नहीं निकले। हिराइसा को पता चलने पर उन्हें पत्र लिखा कि जिस चूल्हे की खीर खाई है क्या उसकी राख भी खानी है ? पंडित बास ने तुरन्त ही घर छोड़कर आचार्य जी के सन्निधान में आकर संन्यास ग्रहण कर लिया। उपसंहार :
परमेश्वर का सृष्टि रचना का उद्देश्य प्रत्येक जीव को मुक्ति देना और वह भी संन्यास लेने पर ही। जब तक जीवों को मुक्ति प्राप्त न हो सृष्टि चक्र चलता ही रहेगा। संन्यास के सिवाय हमारी सद्गति नहीं। पीछे हम अनन्त सृष्टियां व्यर्थ गवा बैठे हैं। भविष्य में भी चाहे अनन्त सृष्टियां बीत जाएं परन्तु हमें संन्यास ग्रहण करना ही पड़ेगा।
फिर आज हमें सुन्दर मनुष्य देह प्राप्त हुई है। जीव उद्धरण व्यसनी - परब्रह्म अवतार सर्वज्ञ श्रीचक्रधर स्वामी ने हमारी सुविधा के लिए बोलकर सुनाया और करके दिखाया इस प्रकार की स्वर्ण सन्धि प्राप्त होना अत्यन्त दुर्लभ है। अतः अविलम्ब मोह-ममता का परित्याग करके स्वामी का अनुसरण करके अपनी परम-प्रिय आत्मा को परम पद के योग्य बनाकर परम शान्ति दिलाने का अपना कर्तव्य पूर्ण करें।
नोट. :- आजकल कुछ लोग बोलते हुए दिखाई देते हैं। वे कहा हैं कि आप घर पर ही रहकर धर्म कर्म करें। आश्रमों में रहना आपके वश का रोग नहीं है। आजकल शास्त्र के अनुसार आचरण करने वाला कोई नहीं है। पोथी का ज्ञान पोथी में ही है। इत्यादि गलत प्रचार के चक्रव्युह से बचें। उपरोक्त बातें करते दूसरों को भी अनुसरण धर्म से पीछे हटाने का मूर्खता पूर्ण प्रयास करते हैं।
आचार्य श्रीनागदेवजी के परम प्रिय शिष्य केसराज बास को भी किसी के द्वारा कहा गया था कि घर में रहकर भी परमात्मा की भक्ति की जा सकती है। संन्यास लेना जरूरी नहीं। उन्होंने कहा था कि एक लड़की शरीर सम्बन्धि प्रापंचिक सुख के लिए सगे सम्बन्धियों का त्याग करती है तब उसे नश्वर सुख पति के द्वारा प्राप्त होता है। आत्मा का पति परमात्मा है उसके अक्षय आनन्द को प्राप्त करने के लिए प्रापंचिक सुख भोगों का त्याग करना तो बहुत जरूरी है।
यथार्थ ज्ञान,अप्रतिम, दंडवत 🙏
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