चार पुरुषार्थ
मानव जन्म के धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष चार पुरुषार्थ माने हैं। जिस व्यक्ति में ये चार पुरुषार्थ नहीं होते उसे शास्त्रों ने पशु समान माना है।
पूर्व जन्मों के संस्कारों के अनुसार मनुष्य में दया, क्षमा, शान्ति, सत्य, अहिंसा, परोपकार आदि ‘धर्म’ के लक्षण होते हैं। या मनुष्य प्रयत्नों के द्वारा उपरोक्त गुणों को अपनाता है। श्री गीता जी में ऐसे व्यक्ति को दंदी सम्पत्ति वाला कहा है। ‘धर्म’ को बढ़ाने के लिए तथा उनकी सुरक्षा के वास्ते द्रव्य की जरूरत होती है। परिश्रम और सत्यता पूर्वक द्रव्य प्राप्त करना यह दूसरा पुरुषार्थ कहलाता है। द्रव्य के द्वारा परिवार तथा स्वजनों को सेवा करना और आवश्यकता पड़ने पर गरीब व अनाथों की सहायता करना ।
स्वयं द्रव्य का सदुपयोग करना दान धर्म करके भविष्य को उज्जल बनाना तीसरा (काम) पुरुषार्थ कहलाता है। धर्म, अर्थ और काम तीनों पुरुषार्थ प्राप्त कर लेने के उपरान्त सर्व श्रेष्ठ और अन्तिम पुरुषार्थ ‘मोक्ष’ प्राप्त करना सबसे अधिक महत्व रखता है।
मोक्ष प्राप्ति के लिए सर्वाधिक प्रयास करना पड़ता है। मुक्ति, परम पद, परम गति, परम शान्ति ऐसे ‘मोक्ष’ के अनेक नाम हैं। ‘मोक्ष’ प्राप्ति के लिए त्याग की जरूरत होती है। जब तक मनष्य सर्व संग परि त्याग नहीं करता तब तक ‘मोक्ष’ का मिलना कठिन ही नहीं असंभव है। त्याग को ‘संन्यास’ या 'अनुसरण' कहा जाता है।
किसी की अमानत को वापस करना इसे त्याग कहा जाता है। वैसे ही परमेश्वर की कृपा से मानव देह प्राप्त हुआ ऐसा समझ कर अपना नश्वर तन का शेष भाग प्रभु चरणों में अर्पित कर देना यानि प्रभु के द्वारा दी हुई वस्तु को उसे वापस कर देना इसका नाम है 'संन्यास' । शास्त्रों में कहा गया है कि दुर्लभ मानव देह प्राप्त होने पर जो व्यक्ति चौथा पुरुषार्थ 'मोक्ष' प्राप्त नहीं करता यानि 'संन्यास' धारण करके अपनी आत्मा को संसार बन्धनों से छड़ा कर परमा नन्द प्राप्त नहीं करता उससे अधम संसार में दूसरा कोई नहीं है।
'संन्यास' शब्द की व्याख्या स्वामी ने श्रीमुख से की है।
राग :- संसार के भोग विलासों की प्रीति
द्वेष :- किसी से घृणा करना
काम :- किसी प्रकार की भी इच्छा रखना
मद :- घमण्ड
मत्सर :- किसी के गुणों को देखकर जलना
क्रोध :- क्रोध मे आकर किसी का अनिष्ट करना, भला बुरा कहना
इन छः क्षेत्रों का त्याग करना हो 'संन्यास' है। यदि इन छ: दोषों का त्याग नहीं तो लाल वस्त्र धारण करके भी वह 'संन्यास' नहीं है । यदि 'संन्यास' ही सिद्ध नहीं होता फिर 'मुक्ति' कैसे संभव है अर्थात, 'मोक्ष' नहीं मिल सकता। इसी 'संन्यास' को दूसरे शब्दों में स्वामी ने 'अनुसरण' कहा है।
परमेश्वर के अधीन होकर उसकी आज्ञा का पालन करना इसे 'अनुसरण' कहते हैं परमेश्वर के अधीन तो हो जाए परन्तु उनकी आना का पालन न नरे। या आज्ञा का पालन तो करता है परन्तु अधीन नहीं होता उसे 'अनुसरण' नहीं कहते ।
'संन्यास' या अनुसरग श्रुति, स्तुति, बुद्धाचार और मार्ग रुढ़ि के अनुकूल होना चाहिए। पुराने समय में भक्त जनता गृहस्थाश्रम में रहते हुए ही ब्रह्मविद्या का अध्शुरू कर देती थी। संसार की जिम्मेदारी समाप्त होने पर तुरन्त 'संन्यास' धारण करके चर्चा करना शुरू कद देती थी ।
अतः उनके त्याग तथा तपस्या के प्रभाव से जनता सहज हों आकर्षित होकर धर्म से प्रवेश करती थी उनके सदुपदेश ने प्रभावित होती थी। वेब, बोध और अनुसरण के योग्य बनती थी ।
आजकल के समय में चौथे पुरुषार्थ 'मोक्ष' प्राप्ति के लिए सहसा मनुष्य प्रवकृत्त ही नहीं होता। जिस तरह गन्दगी में रहने वाला कोड़ा गन्दगी में हो मस्त रहता है वह सोचता है कि इस गन्दगी से अलग हो जाने पर मेरी मृत्यु हो जाएगी। वैसा ही आजकल का इन्सान समझता है कि मैं तो घर में ही अच्छा हू' । 'संन्यास' के नियमों का पालन मेरे से नही होगा। जैसे तैसे गरुजनों के उपदेश से 'संन्यास' लेने के लिए प्रवृत्त हो भी जाता है तो पहले सोचता है कि जिस आश्रम में सुख सुविधा हों उस आश्रम में रहना चाहिए। 'संन्यास' लेते से पूर्व कमरा होना चाहिए। कमरे में सभी प्रकार की सुख सुविधा भी होनी चाहिए।
कमरे के साथ-2 बैंक में पैसे भी होने चाहिए। पेंशन भी लगी हो ताकि मन मर्जी का खान-पान, रहन-सहन किया जा सके। अधिकतर लोग यही समझ बैठे हैं कि बिना द्रव्य के संन्यास लेना व्यर्थ है। बिना द्रव्य के कोई नहीं पूछता।
परमेश्वर प्राप्ति 'मोक्ष का पुरुषार्थ करने वाले व्यक्ति बहुत कम होते हैं। सत्रय का प्रभाव है। आज के समय में परमेश्वर हेतु का त्याग कम लिया जाता है। इसी लिए स्वामी ने कहा है कि विषयों के लिए इन्सान परमेश्वर घर्म को छोड़ देता है परन्तु परमेश्वर प्राप्ति के लिए विषयों का त्याग नहीं होता। विषयों का त्याग करने वाले हजारों में एकाध ही होते.
शास्त्र के अन सार दो ही वस्तु का प्रमुख त्याग होता है। एक तो स्त्री, पुत्र, परिवार या स्त्री के लिए पुरुष। और दुसरा त्याग द्रव्य का कहा गया है। यदि स्त्री का त्याग तो कर दे परन्तु द्रव्य साथ में ही लेकर चले तो शास्त्र के अनुसार उसे 'संन्यासी नहीं कहा जाता। यदि द्रव्य का त्याग भी कर दे परन्तु रिश्तेदारों की ममता का त्याग नहीं करता रिश्तेदारों के सुख-दुख में सुख दुःख मानता है तो भी परमात्मा की प्रसन्नता नहीं मिल सकती ।
संसार का कोई भी कार्य लगन पूर्वक किए बिना सफलता नहीं मिलती क्या 'मोक्ष' उससे भी सस्ता है ? नहीं, 'संन्यास' सफल बनाने के लिए अपने आपको मिटाना पड़ता है।
संन्यास के उपरान्त का जीवन मनुष्य का नया जीवन कहलाता है। जिस तरह दूसरा जन्म प्राप्त होने पर इन्सान को पूर्व जन्म की कुछ भी बातें याद नहीं रहती। उसी तरह मनुष्य अपने गृहस्थाश्रम की सभी कथा-कहानी को भूला कर देश, प्रांत और रिश्तेदारों को भूला देता है।
मान सम्मान की इच्छा नहीं रखता। शरीर पोषण की ओर ध्यान नहीं देता। काम-क्रोध और लोभ के मार्ग को छोड़ कर मन, वाचा और शरीर पर नियन्त्रण करते हुए। संसार में मेरा कोई भी नहीं है और मेरे ऊपर भी किसी का अधिकार नहीं है। मेरा तो सिर्फ एक 'सर्वज्ञ श्री चक्रधर महाराज है' और में उन सर्वज्ञ श्री स्वामी का हूं, के रिश्ते नाते सिर्फ दिखावा मात्र है। मुझे संसार सागर से पार करने के लिए स्वामी के द्वारा बतलाए हुए 'स्थान प्रसाद, भिक्षुक और वासनीक' साधन समर्थ है। स्वामी के समीप पहुंचाने की शक्ति इन साधनों में है। मेरे पापों का नाश करने में 'साधन' समर्थ है। जिस तरह पानी मच्छली का जीवन है, पानी के बिना मछली जीवित नहीं रह सकती। उसी तरह 'साधन' ही 'साधकों का जीवन है अत: 'साधनों के साथ परन प्रीति का वर्ताव करता हुआ 'साधक' विकार विकल्प और हिंसा का परित्याग करके अपना पवित्र जीवन प्रभु चरणों में समर्पित कर देता है। उसे 'साधन' दात पुनः सम्बन्ध देकर उसकी रक्षा करते है। और संसार सागर ने उसका उद्धार करते है ।
सारांश:- मनुष्य को चाहिए कि संसार में रहकर चारों ही 'पुरुषार्थ' प्राप्त करें। अन्त में 'मोक्ष' पुरुषार्थ को जीवन साथी बनाकर अपनी आत्मा का उद्धार स्वयं करें। गत सृष्टियों में हमने अनन्त मनुष्य जन्म व्यर्थ गवां दिए वैस। मौका इस बार नहीं आना चाहिए उसके लिए जी जान से प्रयत्न करें