धन्य है ऐसे पुरुषार्थ का जीवन
कई लोगों की यह धारणा है कि परमेश्वर की भक्ति करना केवल बेकार लोगों का काम है। काम करने वाले पुरुषार्थी व्यक्ति तो मेहनत कर धन कमाते हैं संसार की वस्तुएं एकत्रित करते हैं यश कमाते हैं। जो काम नहीं कर सकता उसे मन्दिर में जाकर भगवान की पूजा करने को कहा जाता है।
परन्तु भगवान की भक्ति के लिए तो भक्ति प्रेममय मन की जरूरत होती है। यदि मन में प्रेम ही नहीं तो, भगवान की भक्ति हो ही नहीं सकती। इसके लिए पूर्व जन्म के भक्ति के संस्कार होना परम आवश्यक है। मीरा बाई ने कहा कि यदि उसमें भक्ति भावना है और वह श्रीकृष्ण की भक्ति में रंग कर श्रीकृष्ण के गीत गाती है तो यह सब ‘पूर्व जनम के बोल’ हैं।
अतः परमेश्वर की भक्ति करना फूलों की सेज नहीं, बच्चों का खेल नहीं। गुणी लोगों ने कहा है ‘भक्ति करे कोई सूरमा जात वरण कुल खोय’ और भी कहा है ‘सीस दिये यदि प्रभु मिले तो भी सस्ता जान’ और भगवान श्रीचक्रधर प्रभुजी कहते हैं समर्थ (बलवान) ही धर्म का आचरण कर सकता है। वास्तविकता यह है कि जीवन में सब सुख समृद्धि भाग्य से मिल सकती है परन्तु परमेश्वर को भाग्य से प्राप्त नहीं किया जा सकता क्योंकि परमेश्वर को प्राप्त करना कर्मफल नहीं है। परमेश्वर को पाना सबसे बड़ा पुरुषार्थ है।
परमेश्वर को प्राप्त करने के लिए किस प्रकार पुरुषार्थ किया जा सकता है। क्या परमेश्वर को पाने के लिए धन की आवश्यकता है, क्या सांसारिक विद्या से परमेश्वर मिल सकता है महाराष्ट्र में आठ सौ वर्ष पूर्व एक बहुत उच्चकोटि के विद्वान म्हाईंभट थे। घर के सम्पन्न थे, धन की कमी नहीं, सम्पत्ति की कमी नहीं उसके साथ 108 उपनिषद, चारों वेद, छः दर्शन, 18 पुराण सबका अध्ययन कर लिया। एक प्रभाकर नामक दर्शन तेलंग में विद्या नगरी में पढ़ाया जाता है, वह भी पढ़ लिया।
अब तो विद्या का अभिमान हो गया। चारों ओर घूम-घूम कर अन्य विद्वान लोगों से शास्त्रार्थ कर चर्चा कर उनको परास्त करने लगे। विद्या का अभिमान इतना हो गया कि दिन में एक मशाल लेकर चलते थे कि मैं इस संसार में ज्ञान का सूर्य हूं। पांव में तिनके बांधते थे कि अन्य विद्वान मेरे सामने तिनके के समान हैं। अतः एक धन का अभिमान, एक शास्त्रों का अभिमान। पर जहां अभिमान वहां भगवान कहां।
परमेश्वर तो तभी नजर आते हैं जब अहंकार का परदा हटता है। ऐसे अहंकार से परिपूर्ण म्हाइम्भट्ट भगवान श्रीचक्रधर जी के सम्पर्क में आये। दो शब्द परमेश्वर के सर्वगुह्यतम ज्ञान के सुनने को मिले। समझने में देरी न लगी कि विद्याओं के पढ़ने से मनुष्य विद्वान तो बन सकता है पर परमेश्वर का भक्त नहीं। धन को प्राप्त कर धनवान तो बन सकता है परमेश्वर का भक्त नहीं।
परमेश्वर को पाने के लिए परमेश्वर का ज्ञान, गीता ज्ञान, ब्रह्म विद्या ज्ञान होना जरूरी है। ज्ञान की आंखों से ही परमेश्वर नजर आता है। अर्जुन को ये आंखें भगवान श्रीकृष्ण से मिलीं म्हाइंम्भट्ट को ये नज़रें भगवान श्रीचक्रधर जी से मिलीं। जब ज्ञान हुआ तो अहसास हुआ कि अभी तक जो धन कमाया, वैभव, कमाया, विद्या पढ़ी उसने तो अभिमान दिया परन्तु परमेश्वर के ज्ञान के दो शब्द सुनने से तो सारा अभिमान ही दूर हो गया। धन कमाने की रुचि ही समाप्त हो गई, सम्बन्धियों से प्रेम ही नहीं रहा, और अपने सारे दोष नजर आने लगे। यह समझ में आ गया कि परमेश्वर के लिए तो सब कुछ छोड़ना पड़ेगा। यदि बहुत बड़ी वस्तु प्राप्त करनी है तो कुछ न कुछ त्याग तो करना ही पड़ेगा। परमेश्वर को पाने के लिए काम क्रोध लोभ तो छोड़ने ही पड़ेंगे। छोड़ना कठिन है परन्तु असंभव नहीं। फिर परमेश्वर के ज्ञान की ज्योति को देखते हुए मनुष्य आगे बढ़ता जाये तो असंभव भी संभव हो सकता है।
अतः अभिमान से परिपूर्ण म्हाईम्भट्ट का अभिमान दूर होते देर न लगी। परमेश्वर के ज्ञान से अहंकार दूर हुआ और वह रेशमी वस्त्र पहनने वाला म्हाइम्भट्ट मैले कुचैले वस्त्र पहनने लगा। हाथों में, गले में सोने के आभूषण पहनने वाला म्हाइम्भट्ट अब हाथ में भीख मांगने के लिए झोली उठा बैठा और वह सोने चांदी के बर्तनों में छत्तीस पदार्थ खाने वाला म्हाइम्भट्ट अब दर-दर भीख मांग कर सूखे टुकड़े खाने लगा। यह सब परिश्रम किसके लिए? तो उन्होंने स्वयं अपने मुख से कहा, ‘मज देव होईल कि नाहीं’ मुझे परमेश्वर मिलेंगे अथवा नहीं। अर्थात् ये सब पुरुषार्थ परमेश्वर को पाने के लिए है।
भगवान श्रीचक्रधर जी के चरणों में बैठकर ज्ञान सुना और ज्ञान सुनने पर आचरण शुरू हुआ। धर्म के मार्ग पर वही चल सकता है जो आचरण कर सकता है। जो इन्द्रिय सुखों के पीछे भागता है वह परमेश्वर को नहीं पा सकता। अतः सुखों को छोड़ने पर ही परमेश्वर मिलते हैं। खाना जरूर खाया जाता है परन्तु स्वाद के लिए नहीं केवल जीने के लिए। ऐसा लगने लगता है कि रास्ता बहुत दूर है, सफर बहुत लम्बा है, समय बहुत कम है। वे शास्त्र की गहराइयों में उतर गये और ज्ञान के उस अमृत का स्वाद लेने लगे जहां आनन्द ही आनन्द है। कोई तनाव नहीं, कोई डर नहीं, कोई इच्छा ही नहीं, हां, केवल एक चाह, एक आशा, एक लगन यह जीवन परमेश्वर के चरणों में एक फूल की तरह समर्पित हो जाये।
यह जीवन परमेश्वर के कामों में ही, ज्ञान के अध्ययन में, उसकी भक्ति में ही बीत जाये। पर यदि इस जीवन को प्राप्त कर परमेश्वर न मिले तो इस संसार में आना जाना व्यर्थ है। परमेश्वर को ढूंढ़ लेना है उसे प्राप्त भी कर लेना है। फिर वे चल पड़े परमेश्वर को पाने के लिए इन कांटों के मार्ग पर भिक्षा के सूखे टुकड़े खाकर उलटियां भी आई परन्तु घबराये नहीं। फिर प्रयत्न किया और रूखे टुकड़े पचा लिये तो अपने आप को धन्यवाद किया कि मैंने अपनी इन्द्रियों को जीत लिया है परन्तु भगवान श्रीचक्रधर जी ने उसे वहीं रोका कि कभी अपने पर यह भी अभिमान न करना कि मन इन्द्रियों को जीता है। यह सब परमेश्वर की जीत है।
जब तक परमेश्वर की कृपा न हो भक्त अपनी इन्द्रियों पर विजय प्राप्त नहीं कर सकता है। फिर दुनिया को ठोकरें मारने वाले ज्ञानसूर्य श्रीम्हाइंभट एक दिन कहीं जाते हुए चोर समझ कर पकड़ा गया। साथ में एक बहुत बड़े विद्वान श्रीलक्ष्मीन्द्रभट्ट भी थे। लोगो ने उनपर आरोप लगाया की ये बोल नहीं नहें इसका मतलब ये चोर हैं । इनको सुलीपर चढाया जाए। फिर श्रीलक्ष्मीन्द्रभट चुप न रह सके और बोले “म्हाइभटो किं पर्यन्तमौन्यम्" यह चुप रहना कब तक है? श्रीम्हाइंभट बोले, ‘ज्वरो वा शस्त्रो वा’ सिपाहियों के सरदार ने सुना कि ये मैले कुचैले कपड़ों में सिर मुडवाये संस्कृत के विद्वान हैं तो उसने पैरों पर गिरकर क्षमा याचना की पश्चाताप किया।
प्रभु के पाने के मार्ग पर तो मार भी खानी पड़ती है। यह कैसा मार्ग है, यह तो कंकर पत्थर का मार्ग है; यह तो कांटों झाड़ियों का मार्ग है, इसमें शारीरिक कष्ट तो कष्ट नहीं लगते तथा मन में एक तड़फ होती है। हे परमेश्वर आपको पाना है आप कब मिलोगे बस आप ही मेरी मंजिल हैं। सारा जीवन ज्ञान में, भक्ति में, वैराग्य में व्यतीत कर दिया-यही तो सच्चा जीवन है।
विषय भोगों में जीवन बिताना तो कीड़े मकोड़ों का जीवन है। जीवन का सच्चा पुरुषार्थ तो यही है कि परमेश्वर के लिए सब सुखों का त्याग कर यह जीवन जो परमेश्वर की एक देन है उसी को समर्पित हो जाये उसकी सेवा में लग जाये। ऐसे त्याग के जीवन के कारण ही उन्होंने “लीला चरित्र" एक महान ग्रंथ लिखा ।
अतः परमेश्वर के मार्ग पर चलना जीवन का उजाला है बाकी तो सब अंधेरा ही अंधेरा है। कमाना है किसके लिए जिन के लिए कमाया वही अपने न बने। जो सम्पत्ति इकट्ठी की मरने पर यहीं रह गई। यश कीर्ति आज है कल नहीं। संसार के लोग याद करने को भी तैयार नहीं।
अतः झूठी शान के पीछे भागना मूर्खता अज्ञानता है। जीवन में परमेश्वर की ज्योति यदि नजर आ गई तो संसार का सब अंधेरा दूर हो गया। फिर तो इस संसार का परम लक्ष्म, परमधाम, परमपद मोक्ष पद नजर आ जाता है और मनुष्य के कदम उस मोक्ष मार्ग पर बढ़ते चले जाते हैं, जहां कांटे भी फूल लगते हैं। कंकर पत्थर की चुभन भी उस परमानन्द का एक अनुभव दिलाती है। धन्य है ऐसे पुरुषार्थ का जीवन ।