परमेश्वर एकही है
इस संसार में प्रत्येक मनुष्य परमेश्वर को मानता है, परमेश्वर के मूल स्वरूप को यथार्थ रूप से ज्ञानपूर्वक जानता नहीं, परन्तु ज्ञानपूर्वक उस परमेश्वर की उपासना करता नहीं, परिणामस्वरूप जीवात्माओं का आत्म उद्धार नहीं हो पाता। इसलिए हमें चाहिए कि हम यथार्थ रूप से अनन्त शक्तियुक्त परमेश्वर को जाने।
परमेश्वर से बढ़कर कोई और तत्व न तो इस सृष्टि में है और न ही अनन्त ब्रह्मांडों में है तथा न तो अभी है और न ही भविष्य में होगा। परमेश्वर को किसी प्रकार की उपमा दी ही नहीं जा सकती क्योंकि उनकी तुलना और उपमा के योग्य इस संसार में तथा ब्रह्मांडों में कोई भी नहीं है। परमेश्वर अवतार की कामधेनु (पशु), चिन्तामणि (पाषाण) और कल्पवृक्ष (लकड़ी) के साथ तुलना करना महामूर्खता ही नहीं बल्कि अनर्थ है, महादोष है और नरक में जाने का सीधा रास्ता है।
परमेश्वर एक है अनेक नहीं। लोग अज्ञानता के कारण, बुद्धिहीनता के कारण जीव और देवताओं को भी ईश्वर समझकर अनेक रूपों में उनकी उपासना करते हैं। ऐसा करने से वे परमेश्वर के नजदीक आने की बजाय उससे दूर होते चले जाते हैं।
ईश्वर तो अनन्त है अर्थात् उनके स्वरूप तथा शक्तियों आदि का विस्तार अनन्त है। उनके सामर्थ्य की कोई सीमा नहीं है। सभी देवताओं में श्रेष्ठ माया जो ईश्वर की आद्य शक्ति है, जो अनन्त ब्रह्मांडों में व्यापक है वह भी ईश्वर की तुलना में बहुत छोटी है। देवताओं के सामर्थ्य सब नपे तुले हैं, सीमित हैं, आदि-अन्त वाले हैं और ईश्वर का सब कुछ असीमित है, नित्य है।
जब तक मनुष्य को ईश्वरीय ज्ञान प्राप्त नहीं होता तब तक वह अज्ञानी है, अज्ञानी होने के कारण वह संशययुक्त है। ऐसी अवस्था में मिलते-जुलते पदार्थों में जैसे जीव, देवता और ईश्वर में अन्तर नहीं देख पाता। देवता और ईश्वर दोनों में पांच सामर्थ्य हैं, परन्तु देवता में पांच सामर्थ्य सीमित होते हुए भी जीव अज्ञानतावश देवता को ईश्वर कहने लगता है।
सभी देवता सुखफल पतनशील हैं, एक परमेश्वर का कैवल्यपद ही अच्युतपद है, जहाँ से जीव का कभी पतन नहीं होता। ईश्वरीय ज्ञान के और अन्यथा ज्ञान के कारण जीव यथार्थता को न जानने से सच्चाई से कोसों दूर हो जाता है।
परमेश्वर पत्थर, लकड़ी, चित्र आदि का नहीं है, क्योंकि ये सब तो टूटने-फूटने वाली वस्तुएं हैं। परमेश्वर तो अनन्त है, अछेद्य है, अभेद्य है, केवल मूर्ति धारण करने वाले अवतार अपनी इच्छा से छेद-भेद की क्रिया को स्वीकार कर सकते हैं अन्यथा नहीं।
भगवान श्रीचक्रधर जी का निवास छिन्नपापी के सिंह नारायण मठ में था। एक बार आउसा सराला गांव में गई, वहां उसकी भेंट गणपत आपयो से हुई। वे एक राजमान्य पुरुष थे। उन्होंने आउसा को कहा कि मुझे भगवान श्री चक्रधर के दर्शनार्थ ले चलो। आउसा उन्हें अपने साथ छिन्नपापी ले आयी। वहाँ पहुँचने के बाद आउसा को स्थिति हो आई। स्थित्यानन्द के प्रभाव से वह बबूल के पेड़ पर चढ़ गई और ऊँचे-ऊँचे शब्दों में बोलने लगी, भगवान कामधेनु हैं, कल्पतरु हैं, चिंतामणि हैं। गणपत आपयो आनन्द व्यक्त करके उसकी बातों की पुष्टि करने लगे। गणपत आपयो विद्वान थे, उनकी ये हरकत देखकर भगवान बोले, यह क्या भटो? तुम तो विद्वान हो, शास्त्र जानते हो, आउसा तो एक साधारण स्त्री है, यह क्या स्तुति कर रही है ? और तुम कितने आनन्दित हो रहे हो? क्या यह परमेश्वर की स्तुति है, क्या परमेश्वर एक पाषाण है, पशु है, वृक्ष है? तब परमेश्वर की यथार्थता को प्रकट करते हुए भगवान श्रीचक्रधर जी ने कहा अगम्य, अगोचर, अनन्त शक्तियुक्त परमेश्वर की बराबरी चिन्तामणि जो पाषाण है और कामधेनु जो पशु ये भला कैसे कर सकते हैं ? परमेश्वर की तुलना किसी कामधेनु, चिंतामणि या कल्पवृक्ष से नहीं करनी चाहिए, परमेश्वर की तुलना तो इस ब्रह्मांड या किसी भी स्थान की वस्तु, पदार्थ आदि से कभी भी नहीं करनी चाहिए। परमेश्वर अवतार की कामधेनु पशु, चिंतामणि पाषाण, कल्पवृक्ष लकड़ी के साथ तुलना करना महामूर्खता रूप अज्ञानता है। परमेश्वर की इस प्रकार तुलना करना अनर्थ है, महादोष है और नरकों में जाने का सीधा रास्ता है।
इसी तरह, मन्दिरों और आश्रमों में भक्तजन, गुरुजनों या महात्माओं को 'महाराज' कह कर पुकारते हैं और कहते हैं कि हमारे लिए तो तुम साक्षात् परमेश्वर हो। गुरुजनों के लिए अपने को महाराज कहलवाना या साक्षात् परमेश्वर कहलवाना घोर नरकों की ओर ले जाने वाला कार्य है और भक्तजनों द्वारा ऐसा कहना उनके लिए आगे दोष प्रदान करने वाला है।
परमेश्वर सर्वशक्तिमान् है, सर्व सामर्थ्यवान् है, उसके कार्यों को कोई नहीं कर सकता, उसके ज्ञान का कोई मुकाबला नहीं, उस जैसा प्रेम किसी के पास है ही नहीं और वह नित्य है, शाश्वत है, सनातन है तथा अखण्ड परमानन्द का एकमात्र आश्रय हैं, ऐसे परमेश्वर से किसी की भी तुलना करना असम्भव है। यह जानते हुए यदि कोई परमेश्वर की तुलना किसी भी वस्तु, पदार्थ या व्यक्ति से करता है, भावुकता में या कठोरता में, निःसन्देह वह परमेश्वर का घोर अपमान करता है, उनकी खंती को प्राप्त होता है, फलस्वरूप नरकों में पड़ा रहता है। जीव को अपने धर्म आचरण में सदा सावधान होकर, सदैव चौकन्ना रहकर आचरण करना चाहिए, तभी सफलता को प्राप्त हो सकता है।
भगवान श्रीचक्रधर जी का निवास वेरूल (एलापुर) में था। एक दिन जानों उपाध्याय भगवान के दर्शनार्थ आये। भगवान ने जानो से पूछा-जानो! तुम्हारे गांव में एक महात्मा दादोस हैं क्या ? जानो ने कहा, जी भगवन् हैं। भगवान बोले- जानो ! तुम्हारी हम पर तथा महात्मा दादोस पर कैंसी बुद्धि है ? जानों को कुछ न बोलता देखकर भगवान ने दोबारा पूछा- जानो ! क्या महात्मा दादोस और हम पर तुम्हारी एक जैसी बुद्धि है? जानो के हाँ कहने पर भगवान ने उसे समझाते हुए कहा- जानो ! महात्मा दादोस जो अन्य जीवों की भाँति एक जीव हैं।
प्रिय भक्तगण ! परमेश्वर अनेक नहीं अपितु एक ही है, लेकिन लोग अपनी-अपनी भाव, श्रद्धा से उसके अनेक रूपों की उपासना करते हैं, जिससे उसके अनेक होने का भ्रम हो जाता है। परमेश्वर जब जीव को बोध शक्ति प्रदान करते हैं। उस समय जीव को यह पता लग जाता है कि परमेश्वर एक है। बोध शक्ति के कारण साधक का यह दृढ़ निश्चय हो जाता है कि निर्गुण निराकार ईश्वर स्वरूप ही श्रीमूर्ति धारण करके भक्तों के उद्धार के लिए प्रकट हुआ है। जीव के प्रति अपनी परा मिश्रित वैखरी वाणी द्वारा परमेश्वर अवतार अपनी विद्यमानता सिद्ध करते हैं।
परमेश्वर तो एक ही है लेकिन उसके अवतार अनेक होते हैं। एक ही काल में परमेश्वर के अनेक अवतार होते हैं। परमेश्वर के ऐसे अनेक अवतार पहले हो चुके हैं, अब हैं और आगे भविष्य में भी होंगे।
परमेश्वर तो एक है, उनके अवतार कई होते हैं। कई अवतार देखकर कई उन्हें भिन्न-भिन्न परमेश्वर समझ बैठते हैं और कहते हैं परमेश्वर कई हैं। जीव को परमेश्वर का यथातथ्य ज्ञान न होने के कारण वह परमेश्वर की यथार्थता को नहीं जान पाता, जीव और ईश्वर तथा देवता और ईश्वर की भिन्नता को यथार्थ रूप से नहीं समझ पाता।
जब तक मनुष्य को ईश्वरीय ज्ञान नहीं प्राप्त होता। तब तक वह अज्ञानी है, अज्ञानी होने के कारण वह संशययुक्त है। ऐसी अवस्था में मिलती-जुलती वस्तुओं, पदार्थों जैसे देवता और ईश्वर, जीव और ईश्वर, जीव और देवता इन सब में वह अन्तर नहीं देख पाता। देवता में पाचं सामर्थ्य हैं, ईश्वर में भी पांच सामर्थ्य हैं और वह देवता को ईश्वर कहने लगता है। जबकि देवता के पांच सामर्थ्य सीमित हैं और ईश्वर के असीमित हैं, परन्तु वह यह देख व समझ नहीं पाता। दूसरे जीवों की देखादेखी वह भी किसी जीव को या देवता को ईश्वर मान लेता है। जीव जल्दी प्रभावित हो जाता है, परन्तु अन्यथा ज्ञान के कारण यथार्थता को न जान पाने से सच्चाई से कोसों दूर हो जाता है। जीव दूसरे जीवों की नकल करता है, संगत का उस पर बहुत प्रभाव होता है और वह सच्चाई को नहीं देख पातां जब तक जीव परमेश्वर के ब्रह्मविद्या शास्त्र के ज्ञान को प्राप्त नहीं कर लेता, जीव इसी तरह अपना सारा जीवन बरबाद करता रहेगा, व्यर्थ में गंवाता रहेगा।
एक बार भगवान श्रीचक्रधर जी का निवास बीड में था। एक दिन आबाइसा ने अनंत चतुर्दशी के दिन सूत का बना हुआ अनंत भगवान को अर्पण किया। भगवान ने पूछा- बाई! यह क्या है? आबाइसा बोली, भगवन्! यह अनंत है। भगवान ने कहा-बाई! क्या अनंत सूत का बना होता है ? अनंत क्या ऐसा होता है, जिसका कभी अंत नहीं होता, वह अनंत है।
परमेश्वर के स्वरूप का कभी अंत नहीं होता। परमेश्वर का ज्ञान, सुख, सामर्थ्य, प्रकाश तथा ऐश्वर्य भी अनंत है, इन सबका कभी अन्त नहीं होता, इसलिए अनंत, अमूर्त है। परमेश्वर की जीव उद्धरण की क्रिया भी अनंत है। अपरोक्ष ज्ञानी को जब चारों पदार्थों का प्रत्यक्ष दर्शन होता है तब भी उसे ईश्वर स्वरूप का आदि, मध्य और अन्त नहीं पता होता। विशेष ज्ञानी तक को ईश्वर के अव्यक्त, अनन्त स्वरूप की पूरी जानकारी नहीं होती। ईश्वर स्वरूप का न तो किसी को आदि, न मध्य और न ही अंत का पता है इसलिए ईश्वर अनंत है, ऐसा अनंत परमेश्वर जहां समाता है यहां अन्य कोई और समा नहीं सकता और जहां अन्य देवी-देवता आदि समाये हुए हों वहां परमेश्वर का वास नहीं होता, क्योंकि परमेश्वर सभी देवताओं, जीवों तथा अन्य प्रापंचिक पदार्थों से श्रेष्ठ है।
जैसे एक के निवास स्थान पर दूसरा निवास नहीं कर सकता, वैसे ही एक साधन सामग्री होने पर दूसरे साधन का संचार नहीं हो सकता। ईश्वर के साधन को अपनाने के लिए अन्य साधन सामग्री का त्याग करना पड़ता है। अनंत परमेश्वर की अनन् शरणागति स्वीकार करके, उनकी आज्ञाओं का परिपालन करके जीवन परमेश्वर के अनंत आनन्द की प्राप्ति कर सकता है।
एक बार घुइनायक भगवान श्रीचक्रधर जी के दर्शनार्थ आये। विनम्र होकर भगवान के श्री चरणों पर प्रणाम करके बोले-भगवन् ! पुराणिक कहते हैं कि जैसे जीव का छेद-भेद होता है वैसे ही ईश्वर का भी छेद-भेद होता है? क्या यह सत्य है, भगवन! घुइनायक की शंका का समाधान करते हुए भगवान ने कहा- पूजा में रखी हुई अवतारों की प्रतिमाएं ईश्वर नहीं हैं क्योंकि दे तो टूट-फूट सकती हैं। ईश्वर स्वरूप तो अच्छेद्य तथा अभेद्य है। ये विशेष तथा प्रसाद तो केवल उनके पवित्र स्मारक हैं, परमेश्वर पत्थर का नहीं है. लकड़ी का नहीं है, मिट्टी का नहीं है, चित्र का नहीं है तथा धातु आदि का नहीं है, क्योंकि ये सब तो टूटने-फूटने वाली वस्तुएं हैं, ईश्वर तो अछेद्य तथा अभेद्य है। यदि मूर्ति धारण करने वाले परमेश्वर अवतार ने अपनी इच्छा से छेद-भेद की क्रिया स्वीकार की हो तभी उनकी इच्छा के अनुरूप छेद-भेद हो सकता है, अन्यथा नहीं हो सकता।
परमेश्वर अवतार श्रीमूर्ति का कोई छेद तथा भेद नहीं कर सकता। शस्त्र और किसी भी साधन से श्रीमूर्ति का छेद-भेद नहीं हो सकता। महासंहार में भी उनकी मूर्ति का नाश नहीं होता और परमेश्वर का अव्यक्त स्वरूप छेद-भेद से रहित होता है। अष्ट महासिद्धि प्राप्त सिद्ध पुरुष के शरीर पर से शस्त्र निकल जाते हैं जैसे पानी में शस्त्र चलाया हो, क्योंकि उसका शरीर छेद-भेद रहित होता है, फिर परमेश्वर अवतार की श्रीमूर्ति का छेद-भेद उनकी इच्छा के बिना किसी प्रकार कैसे हो सकता है? परमेश्वर अवतार का हनन होने से उन्हें खेद नहीं होता। परन्तु जीव और देवता को खेद-आल्हाद होता है, जो प्रपंच के सम्बन्ध से होता है। ब्रह्माण्डस्था देवता प्रपंच सम्बन्ध से या उसकी पिंडस्था और फलिये के संयोग से मानसिक सुख-दुख मानती है। लेकिन परमेश्वर में खेद-आल्हाद नहीं होता, क्योंकि वह तो सदा-सर्वदा आनन्दमय होता है। ऐसे अनन्त शक्तियुक्त परमेश्वर को जानना ही मनुष्य जीवन का उद्देश्य है। यदि हम इस उद्देश्य में सफल होते हैं तो परमेश्वर को बड़ी खुशी होती है।