कर्म की गति है न्यारी, बुद्धि क्या करे बिचारी
एक बहुत बड़ा धनवान सेठ अपनी विपुल सम्पत्ति छोड़कर इस से दुनिया से चला गया। उसका एकमात्र पुत्र उस सम्पत्ति का मालिक था। धनी लोगों के पुत्र प्रायः दुराचारी हुआ करते हैं। इसी दोष के कारण के सुमेरूपरिमित सम्पत्ति सेठ के पुत्र ने थोड़े दिनों में ही नष्ट कर दी। सम्पत्ति का नाश होने से उसे अत्यन्त कष्ट होने लगा। जिन धूर्त, चापलूसों के कुसंग में पड़कर उसे धन गंवाया था, अब वे मीठी-मीठी बातों की जगह उसके साथ कठोर शब्दों का प्रयोग करने लगे।
जब खाना मिलने में भी तंगी आने लगी तब उसकी स्त्री ने कहा पतिराज ! कुछ मेहनत आप करो, कुछ मेहनत मैं करती हूँ अपना निर्वाह हो सकता है। धर्मपत्नी ने सूत कातने, आटा पीसने तथा धान कूटने आदि की मेहनत मजदूरी शुरु कर दी और पतिराज जंगल में घास तथा लकड़ी काटने जाने लगा। घटनाचक्र में पड़कर इस दम्पत्ति को ऐसा मोटा काम करने पर बाध्य होना पड़ा जो कभी किया नहीं था।
जिन कोमल हाथों में फूलों की पंखुड़ी चुभा करती थीं तथा सेमल की रुई के गद्दे कड़े मालुम पड़ते थे, उन हाथों से ऐसा कठिन काम करने के कारण सेठ के लड़के के हाथ-पांव में कांटे चुभ जाते और छाले पड़ जाया करते थे। इस कष्ट से एक दिन वह एकान्त स्थान पाकर विलाप करने लगा।
वह नदी के किनारे बैठा हुआ था, उसी समय कर्मदेवता (कर्माभिमानिनी) और धन लक्ष्मी (भोगाभिमानिनी) दोनों विचर रहे थे। सेठ के लड़के का रोना सुनकर धनलक्ष्मी बोली- देखो ! मेरे बिना जीव का ऐसा हाल होता है जैसे
तानीअर्थात्न्द्रियाण्यविकलानि तदेव नाम, सा बुद्धिरप्रतिहता वचनं तदेव ।
अर्थोष्मणा विरहितः पुरुषः स एव अन्यः क्षणेन भवतीति विचित्रमेतत् ।। (भर्तुहरी नीतिशतक 40)
अर्थात् - मेरा साथ आश्रय पाकर पहले क्या था और अब मेरे बिना इसकी क्या दशा है ? हाथ-पांव आदि इन्द्रियां, नाम, बुद्धि, बोलचाल पहले जैसे ही है, केवल धन की कमी के बिना इसकी यह हालत हो गयी। धनलक्ष्मी की यह बात सुनकर कर्म ने कहा - मेरे बिना इसकी यह गति हुई है।
सारा संसार कर्म का वशवती हो दारूयोषित की तरह नाच रहा है, इत्यादि बहुत कथनोपकथन से दोनों में विवाद उपस्थित हो गया। कर्म ने कहा- हे धनलक्ष्मी ! तुम इसको धन देकर धनी करो। यदि तुम्हारे दिये धन से यह धनी हो गया तो तुम्हारा कथन सत्य है और जो धन पाकर भी यह ऐसे का ऐसा कोरा ही रहा तो फिर अधिकता मेरी होगी, यानि मैं जीतूंगा।
यह निर्णय हो जाने पर लक्ष्मी ने उसके सामने रास्ते में एक सच्चे मोतियों का हार रख दिया। मोतियों का हार उठाकर वह बड़े हर्ष से घर को चला। वह हार उसने अपनी पगड़ी में रख दिया। रास्ते में आने वाली नदी में स्नान करने के वास्ते वह ठहरा। हार सहित पगड़ी किनारे पर रख दी। उसी समय चील नामक पक्षी ने खाने की वस्तु समझकर हार को पगड़ी सहित लेकर उड़ गयी। वह सेठ जी का लड़का खाली हाथों घर जाकर पत्नी के साथ शोक करने लगा।
दूसरे दिन सेठपुत्र फिर रोज की तरह घासफूस काटने जंगल में पहुँचा तो धनलक्ष्मी ने रास्ते में अशरफियों की थैली फैंक दी। उसे सेठ के पुत्र ने उठा ली। आज सेठ सीधा घर की तरफ चला। रास्ते में दो दिन धोखा खा जाने के कारण बीच में कहीं नहीं ठहरा। घर पहुँचने पर देखा तो धर्मपत्नी घर पर नहीं थी। किसी पड़ोसी के यहां गयी थी। उसने घर के प्रधान दरवाजे के पास थैली रख दी और किवाड़ बन्द करके अपनी स्त्री को पास के घर से बुलाने गया। उसने समझा कि अभी लौट आता हूँ, पर वहाँ कुछ देर लग गयी। इतने में उसी स्त्री से मिलने एक पड़ोसिन आयी. उसने दरवाजा खोला तो थैली देखी, धीरे से थैली उठाकर पड़ोसिन अपने घर ले गयी। बाद में सेठ पुत्र और उसकी स्त्री ने घर आकर थैली न देख बड़ा अफसोस किया।
तीसरे दिन फिर सेठ का पुत्र जंगल में आकर घास काटने लगा। सेठ की यह दशा देख धनलक्ष्मी ने कर्म से कहा कि मैं तो सब कुछ दे चुकी। बार-बार दिया फिर भी यह कोरा ही रहा। अब आप कुछ देकर देखिये। यह सुनकर कर्म ने सेठ के पुत्र को तांबे के दो टके दिये यानि में फैंक दिये। सेठ ने टका उठाया और कहा कि आज भगवान ने हमको टका दिया, टका ही सही। इससे पहले बहुत कुछ तो दिया पर कर्म ने मेरी सहायता नहीं कि, तो मैं किसको दोषी मानूं? फिर वह सेठ पुत्र यहीं से लकड़ी चुनने लगा, वही एक वृक्ष पर सूखी डाली थी, उसे तोडने वृक्ष पर चढ़ा तो वहाँ चील का घोंसला नजर पड़ा। उसमें हार सहित अपनी पगड़ी पड़ी देखी। उठाकर बड़ी खुशी से घर में आया। स्त्री से प्रेम से बोला- सुलक्षिणी ! जो चीज खो गयी थी, वह मिल गयी है।
यह आवाज उस पड़ोसिन ने सुनी, जिसने थैली झटक थी। उसने सोचा इसको थैली का हाल मालुम हो गया। चोरी की दाढ़ी में तिनका वाली कहावत के अनुसार वह विचार करने लगी कि कहीं यह राजपुरुषों से हमारे घर की तलाशी न करा दे। इससे अप्रतिष्ठा तो होगी ही साथ जेल भी जाना होगा। शायद जुर्माना भी हो जाये? इत्यादि पूर्वापार विचार करके उसने वह थैली धीरे से सेठ के घर में डाल दी। इसके बाद ज्यों ही सेठ घर में गया, देखा कि थैली भी पड़ी है। उसे बहुत खुशी हुई।
सारांश यह है कि मनुष्य के कर्म ही सुख-दुख को देने वाले हैं। कर्मानुसार सब कुछ प्राप्त होता है। यदि कर्म अच्छे न हों तो मिली हुई सामग्री भी नष्ट हो जाती है। यदि रह भी गयी तो अपने किसी काम नहीं आती। घर में अपने अधीन घृत, दुग्ध, अन्न, वस्त्र तथा वाहनप्रभृति सभी वस्तुएँ प्रस्तुत है, परन्तु मन्दभाग्य होने के कारण ये सामग्रियां काम नहीं आतीं। कुछ भी
सुख सब चाहते हैं किन्तु वह मिलता है सत्कर्मों से ! परन्तु मनुष्य सत्कर्म नहीं करता तो सुख कैसे मिले ? श्रीकृष्ण महाराज कहते हैं
मच्चित्तः सर्वदुर्गाणि मत्प्रसादात्तरिष्यसि । (गीता 18 / 58)
! मुझमें चित्त लगा लो, फिर मेरी कृपा से (भगवान की) तुम सारी कठिनाइयों को पार कर जाओगे। भगवान सब कुछ कर सकते हैं और वे स्वाभाविक ही आपके परम सुहृद हैं। इसलिए परमेश्वर से दुखपूर्वक प्रार्थना करें तो अनायास ही सब प्रकार के कर्मों का नाश होता है। मनुष्य कर्मयोनि है। कर्म करना उसका स्वभाव है। अतः वह बिना कर्म किये रह नहीं सकता। सुव्यवस्थित शुभ कर्म नहीं करेगा तो अव्यवस्थित अशुभ कर्म करेगा, आलस्य तथा प्रमादयुक्त निकम्मे कर्म करेगा। जिनका परिणाम उसके लिए अत्यन्त हानिप्रद एवं दुःखजनक होगा। इसलिए उसे सदा-सर्वदा शुभ कर्म में लगे रहना चाहिए। विद्वान कहते हैं कर्म मिटता नहीं कभी, भोग को भोगे बिना।
फिर भी मानव रहता नहीं, ईश को ही दोष दिये बिना।। एक गाँव के मन्दिर में एक उच्चकोटि के महात्मा आये। उनके ज्ञान, भक्ति तथा वैराग्य आचरण से गांव के सज्जनों को बड़ी ठण्डक पहुँचती थी। एक दिन महात्मा जंगल में ध्यान करने के लिए वृक्ष के नीचे गये। रास्ते में उन्हें एक कुब्जा देह प्राप्त बूढ़ी माता मिली, वह बूढ़ी माता बड़ी दुःखी थी और अपनी वाणी से अपशब्दों का प्रयोग कर रही थी।
महात्माजी ने उसके अपशब्द सुने और कहा-माताजी ! आप ऐसे शापयुक्त अपशब्द का प्रयोग क्यों कर रही हो? आपको क्या दुःख है ? ऐसा कहने पर वह बूढ़ी माता बोली- मैं शापयुक्त अपशब्द नहीं बोलूँ तो क्या करूँ ? ये गांव के लोग मुझसे सदा तिरस्कारयुक्त वर्तन करते हैं और मुझे पत्थर मारते हैं।
महात्माजी बोले - माता ! आप क्यों पाप बढ़ा रही हैं ? गांव के लोग आपके साथ ऐसा दुर्वतन क्यों करते हैं? तो बूढ़ी माता बोली इसका - कारण है यह मेरा कुब्जाप्राप्त शरीर ! महात्मा जी बोले- माताजी ! आप मुझे यह कुब्जा प्राप्त शरीर का अंग दे दो, इसके बदले में मैं आपको उसके बराबर सोना (सुवर्ण) देता हूँ, इससे आपका दुःख भी समाप्त हो जायेगा और जनलोक आपका सम्मान करेंगे। इस प्रस्ताव पर बूढ़ी माता बोली अरे महात्मा ! आप मुझे कुब्जा के बराबर सोना दे सकता है संन्यासी तू क्यों बना ? और गांव-गांव क्यों भ्रमण करता है ? इसका उत्तर महात्माजी ने बड़े शान्ति से दिया माताजी ! यह मेरा दुर्देव समझ, परन्तु इतना सत्य है मैं तेरी दुख निवृत्ति कर सकता हूँ।
यह सुनकर वह बूढ़ी माता आक्रोश करके बोली- हे महात्मा ! तू दुःख दूर कर सकता है, तू मेरी अन्तिम इच्छा पूर्ण कर, जिन लोगों ने मेरा तिरस्कार किया है और मुझे दुःख दिया उन लोगों को मेरे जैसा कूबड़युक्त देह प्राप्त हो ऐसी परमेश्वर से प्रार्थना कर। मेरे जीवन के अब थोड़े ही दिन बाकी हैं, मेरे सामने दुःख देने वाले को दुःख प्राप्त हुआ तो मैं शान्ति से देह त्याग कर सकूँगी।
बूढ़ी माता की अन्तिम इच्छा सुनकर महात्मा जी ने बड़े अफसोस पूर्वक कहा- इस जीवात्मा ने पिछले कर्म में दोष प्राप्त किये यानि पापकर्म किये। अब इस जन्म में भी पापमय चिन्तन करके देह त्याग करना चाहती है तो इसका भविष्य अन्धकारमय है तो परमेश्वर भी कुछ नहीं कर सकते। महात्मा जी ने कहा- मेरा कार्य दूसरे का दुःख दूर करना है, दूसरे को दुःख देना नहीं इससे यह स्पष्ट होता है कि- बूढ़ी माता का पिछला कर्म पापमय था उसका फल इस जन्म में कुब्जायुक्त देह प्राप्त हुआ परन्तु इस में जन्म में भी दूसरे को दुख देने का ही मानसिक चिन्तन, वाणी से उच्चारण और शरीर से क्रिया है तो निश्चित ही उसका अगला जन्म दुःखमय है।
इसलिए कहते हैं - दैव देता है, परन्तु अपना कर्म उसे ग्रहण नहीं करता। जो पाप कर्म करता है वह मनुष्य ! उस पापकर्म के बारे में जो दुःख करता है वह सज्जन और जो दुखपूर्वक अनुताप करता है वह सन्त और जो पाप करके भी बड़े आवेश के साथ उस पाप का समर्थन करता है वह साक्षात् शैतान। सज्जनों !
सत्कर्मानुष्ठान करके अनुतापपूर्वक धर्म की राह पर चलने पर निश्चित शान्ति प्राप्त हो सकती है। इसलिए कहते हैं - कर्म की गति न्यारी, बुद्धि क्या करे बिचारी ।।
जिसके मन में सरलता व मृदुता है, वचनों में, प्रामाणिकता तथा स्वाभाविक मधुरता है और आत्मा में अहिंसा, मैत्री, करुणा, दया की क्षमता है वही तो महान अहिंसक है। अहिंसा धर्म अपनाओ, दया, मैत्री, करुणा से आत्मा को सजाओ।
पश्चाताप के कड़वे फल हर मनुष्य को अपने जीवन में कभी न कभी चखने पड़ते हैं।