क्रिया में अहंकार रहितता
धर्माचरण करने में मनुष्य का अधिकार केवल प्रयत्न करना है क्योंकि फल प्राप्त करना उसका अधिकार नहीं है। मनुष्य के प्रयन्त करने पर परमेश्वर अवश्यमेव सहायता करते हैं। अतः यदि कोई मनुष्य प्रयत्न किये बिना परमेश्वर से सहायता की आशा रखता है तो वह उसका भ्रम मात्र है। किसी भी धर्म की विधि पालन में मनुष्य का प्रयत्न इतना महत्वपूर्ण नहीं जितना परमेश्वर का साह्य ।
वास्तव में मनुष्य के प्रयत्न करने पर परमेश्वर की सहायता से ही हम किसी धर्म कार्य में सफलता प्राप्त कर हैं। अतः मनुष्य को कभी अपने प्रयत्न पर अहंकार नहीं करना चाहिए। यदि किसी परमेश्वर भक्त को किसी धर्मकार्य में सफलता प्राप्त होती है तो उसे सदैव उसका श्रेय परमेश्वर को देना चाहिए। परमेश्वर की कृपा से सब धर्म कार्य सफल हो जाते हैं।
अतः कभी भी अपने प्रयत्नों पर अहंकार नहीं करना चाहिए, क्योंकि कोई भी अहंकार पूर्ण क्रिया परमेश्वर स्वीकार नहीं करते। भगवान श्रीचक्रधर महाराज जी के उत्तर की ओर प्रयाण करने के बाद श्रीनागदेव भट्ट, श्री माहिमभट्ट आदि भगवान श्री गोविन्द प्रभु महाराज जी की सन्निधि में श्रीऋद्धपुर में निवास करने लगे।
एक बार श्री माहिमभट्ट जी ने एक वस्त्र श्री गोविन्द प्रभु महाराज जी को भेंट कीया जिसको ओढ़कर महाराज प्रसन्न होकर बड़े आंगन में घूमने लगे। महाराज के ऊपर वह वस्त्र शोभायमान होता देखकर श्री माहिमभट्ट जी ने मन में ऐसा विचार किया कि ऐसा वस्त्र मैं ही श्रीभगवान जी को भेंट कर सकता हूँ तथा श्रीभगवान मेरी ही को वस्तु स्वीकार करते हैं।
मन के विचारों को जान लेने वाले सर्वज्ञ श्रीगोविन्द प्रभु महाराज श्री माहिमभट्ट के ऐसे अहंकार विचार को तुरन्त जानकर उदास हो गये तथा क्रोधित होकर उन्होंने वस्त्र उतार दीया और आंगन में डालकर उसको पाँव से रौंदने लगे। सभी भक्तजन उदास होकर इसको देखने लगे परन्तु किसी में महाराज को कुछ कहने का साहस ही नहीं था । तब नागदेव भट्ट जी को स्फूर्ति हुई कि माहिमभट्ट जी से अवश्य कोई गलती हुई होगी तो उन्होंने माहिमभट्ट जी से पूछा कि क्या आपके मन में कुछ अहंकार का विचार आया जिससे श्रीभगवान जी उदास हो गये।
माहिमभट्ट बोले- हाँ, मेरे मन में यह संतुष्टि आ गयी कि मेरा वस्त्र महाराज ने स्वीकार कर लीया और उसे ओढ़ ली, तो श्रीनागदेव भट्ट जी ने श्री माहिमभट्ट जी से कहा- माहिमभट्ट यह सब ईश्वर का ही है तुम परमेश्वर को क्या दे सकते हो। अब जाओ जाकर श्रीप्रभु जी से क्षमा मांगो।
तब माहिमभट्ट जी श्रीप्रभु महाराज जी के पास गये तथा दुःखपवूक पश्चाताप करते हुए कहने लगे प्रभु जी, मैं अपराधी हूँ कि मेरे मन में अहंकार आ गया कि मैंने यह वस्त्र आपको भेंट कीया है, आपके लिए वस्त्र क्या है ? आप तो सच्चे दाता हैं। आप मेरे अपराध को क्षमा करो। तब श्रीप्रभु महाराज जी प्रसन्न होकर बोले - आवो मेला आतां होए म्हणे : आरे उठि उठि म्हणे : मग म्हाइंभट उठीले । अर्थात् तुम्हारे अन्दर अहंकार के विचार नहीं होने चाहिए, अब उठ जाओ। अतः परमेश्वर अवतार किसी की भी कोई अहंकार पूर्ण क्रिया स्वीकार नहीं करते।
प्रस्तुत प्रसंग को ध्यान में रखकर हम सभी को अहंकार रहित होकर प्रभु जी की, समाज की सेवा करनी चाहिए। तभी हम अपने जीवन का परम लक्ष्य परमेश्वर को प्राप्त कर सकते हैं। परन्तु यह हमारा दुर्देव है कि हम जानते हुए भी अहंकार रहित क्रिया, भक्ति, सेवा नहीं कर पाते अहंकार हमारे विनाश का कारण है। अतः अहंकार से दूर ही रहें, जिससे आपको सुख-समाधान प्राप्त होगा।