क्रोध मनुष्य का महान शत्रु

क्रोध मनुष्य का महान शत्रु

 क्रोध मनुष्य का महान शत्रु


ज्ञानरूपी गंगा में स्नान करने से तन-मन पवित्र होता है तथा काम, क्रोध आदि विकार भी दूर हो जाते हैं।

क्रोध मनुष्य का सबसे बड़ा दुश्मन है। क्रोध पैदा कैसे होता है? गीता में कहा है ‘कामत्क्रोधोऽभिजायते’ अर्थात् काम से क्रोध उत्पन्न होता है। क्रोधात्‌ भवति सम्मोहः । अर्थात क्रोध से मन मोहग्रस्त होता है। और सम्मोहात्‌ स्मृतिविभ्रमः । और मोह से मन बुद्धि भ्रमित होती हैं ।

जब कोई काम मन के विपरीत होता है अर्थात् इच्छानुसार नहीं होता तो क्रोध आ जाता है। आप अगर किसी से इच्छा करते हैं कि वह वैसा ही करे जैसा आप चाहते हैं तो यह नामुमकिन है। हरेक किसी के मन में इच्छाएं होती हैं, वह उसी के अनुसार करेगा। 

अतः यदि वह इच्छानुसार न करे तो क्रोध मत करो। उसे प्यार से समझाने की कोशिश करो और उसकी भावना को जानें। यदि यह सोच आ जाये कि इसे मेरी इच्छानुसार ही कार्य करना पड़ेगा तो यह बड़प्पन का अभिमान ही खास कारण है और इच्छानुसार काम न होने पर अभिमान ही क्रोध रूप में जागृत हो जाता है। यदि आप शान्ति चाहते हो तो अभिमान को मिटाओ। 

यह अभिमान ही क्रोध, लोभ, मोह, मद, ईर्ष्या, दम्भ और पाखण्ड को जन्म देता । आप अभिमान त्यागकर क्रोध को छोड़ सकते हैं। क्रोध आने से पहले विचार करो कि मैं जो क्रोध कर रहा हूँ, क्या वह ठीक है? या कभी क्रोध आ जाये तो बाद में सोचो कि क्या यह क्रोध ठीक किया है? यदि आपने यह क्रोध ठीक नहीं किया तो उसका पश्चाताप यही है कि आप उस बात पर क्रोध न करें। अगर मनुष्य ने क्रोध पर काबू पा लिया तो वह शान्ति प्राप्त कर सकता है।

एक गृहस्थ को परिवार के सदस्यों के बीच में रहना पड़ता है और एक महात्मा को अनेक सन्तों और भक्तों के साथ रहना पड़ता है तो सब एक दूसरे की इच्छानुसार कार्य नहीं कर सकते तो क्रोध अवश्य आता है। तो आप उसको प्यार से समझा तो सकते हो, थोड़ा सा दूसरे के मन को रख कर कार्य कर सकते हो, तभी आप प्रसन्न रह सकेंगे। आप की बात कोई माने या न माने आप अपने कर्त्तव्य का ठीक से पालन करेंगे।

आप क्रोध न कीजिए कोई कहे क्यूँ ही, हँसकर उत्तर दीजिए, हाँ बाबूजी यूँ ही।

प्रभु प्रेमियों ! एक बार श्रीचक्रधर स्वामी जी ज्ञान निरूपण कर रहे थे, तब बाइसा ने श्री नागदेव जी को बुलाकर कहा, नागदेव गोदावरी जाकर पानी ले आओ, घड़ा बाहर रखा हुआ है। 

आचार्य श्रीनागदेव जी को क्रोध आया और मन ही मन बुदबुदाया कैसी है ये बाईसा? भगवान निरूपण कर रहे थे और यह बीच में ही पानी लेने भेज रही हैं, परन्तु जब लोणार तीर्थ से पानी ला रहे थे तो विचार करने लगे कि बाइसा ने पानी अपने निजी काम के लिए नहीं मँगाया है, वह तो भगवान के काम के लिए मँगा रही हैं और तब उसका क्रोध शान्त हुआ। 

इस पर श्रीचक्रधर स्वामी जी ने कहा कि जाते हुए नागदेव तुम्हारे विचार उत्तम नहीं थे, अर्थात् मनुष्य को दूसरे की कही हुई। बात पर क्रोध न करके ठीक से समझना चाहिए। श्रीचक्रधर स्वामी जी ने कहा है काम, क्रोध, लोभ यह तीनों नरक के द्वार हैं। अतः इन तीनों पर काबू रखना चाहिए।

प्रभु प्रेमियों ! क्रोध का प्रारम्भ मूर्खता से होता है और अन्त पश्चाताप और ग्लानि में होता है। क्रोध हमेशा अपनी और दूसरों की हानि करता है। क्रोध छोड़ने पर मनुष्यतनाव रहित और शान्त रह सकता है। 

मनुष्य को विवेकशील होकर गेंद की तरह गिरने पर प्रत्येक बार उठ जाना चाहिए और क्रोधी मनुष्य मिट्टी के ढेले की तरह गिरकर पड़ा रह जाता है। क्रोध जैसे दोष को स्वीकार करके भगवान की शरण में जाकर हमेशा पश्चाताप करना चाहिए तभी आप आत्म शुद्धि द्वारा आत्मोद्धार और आत्म कल्याण कर सकते हैं।

मैंने क्रोध के बारे में एक कथन सुना है जो मैं आपको अपने विचारों से सुनाना चाहती हूँ। क्रोध मत करो, कहते तो सब हैं पर हम कितना पालन कर रहे हैं, यह हमें तभी पता चलता है जब हमें ज्ञान होता है। 

एक बार कौरवों-पाण्डवों को उनके गुरु द्रोणाचार्य ने कहा कि बेटा एक पाठ याद करके आना 'क्रोध मत करो'। अगले दिन गुरु द्रोणाचार्य ने सब शिष्यों को बुलाकर पाठ सुना तो सभी शिष्यों अर्जुन, भीम, दुर्योधन, दुशासन अर्थात् सभी कौरवों-पाण्डवों ने सुना दिया। गुरुजी बहुत खुश कि सबने सुना दिया पर युधिष्ठिर की बारी आने पर उसने कहा कि मुझे याद नहीं हुआ। मुझे याद नहीं हुआ, कहते हुए पन्द्रह दिन व्यतीत कर दिए। फिर द्रोणाचार्य को उन्होंने पूछा युधिष्ठिर पर गुस्सा आया और उनकी पिटाई शुरु कर दी। बहुत मार खाने के बाद युधिष्ठिर बोले कि याद हो गया कि इतनी मार खाने के बाद कैसे याद हो गया? तो वे बोले कि इतनी मार खाते हुए यह अनुभव किया कि मेरे मन में जरा भी विकृति नहीं आयी तो मैं समझ गया कि मुझे वह पाठ याद हो गया है। तब गुरुजी जी उनके आगे नतमस्तक हो गये कि मैं तो याद करा रहा था और मैं ही भूल गया। 

हम गलत सोच बनाकर क्रोध करते हैं वह हमारे शरीर को अग्नि बनाकर फूंकता है, अर्थात् जब कोई कुछ कहता है या किसी को काम करते देखता है तो क्रोध आने पर या तो वहाँ से हट जाओ या मन में ठण्डे विचार लाकर जय श्रीकृष्ण जय श्रीकृष्ण करते हुए उस क्रोध को शान्त करना चाहिए और उसे प्यार से समझाना चाहिए। 

भाइयों ! आप यह ध्यान में रखो कि क्रोध मनुष्य का महान शत्रु है उससे सावधान रहो। 

जिज्ञासा :- ग्रामों में कहावत है कि कोई बुरा भला कहे, तो मुक-बधिर की तरह सुन लेना चाहिए। परन्तु हमें कोई भी अपशब्द कह देता है तो हम सुन बुरा नहीं मानना चाहते फिर भी हमारे दिल को झटका लगता है और चेहरे का रंग भी बदल जाता है, ऐसा क्यों ?

पूर्ति :- सभी मनुष्यों की प्रकृति एक जैसी नहीं होती, किसी की राजस है, किसी की तामस है और किसी की सात्विक है, उसमें भी कम अधिक भाव होते हैं। जितनी-२ सात्विकता अधिक होती है उतना कम होता है और जितना-२ तमोगुण अधिक होता है उतना-२ अधिक होता है। कहावत है "उत्तम पुरुष" को क्षण भर के लिए क्रोध आता है तथा "मध्यम पुरुष" को आया हुआ क्रोध दो प्रहर यानि छ घण्टे तक रहता है और "कनिष्ठ पुरुष" को आया हुआ क्रोध 28 घन्टे तक रहता है फिर शांत हो जाता है परन्तु दुष्ट व्यक्ति को आया हुआ को मृत्यु आने तक नहीं जाता। 

दूसरा कारण यह भी होता है कि मनुष्य की प्रकृति तामस हो, जिस भूमि पर खड़ा हो वह भूमि भी तामस हो तथा तामस भोजन किया गया हो और समय भी तामस हो और जवानी हो, किसी अधिकार पर हो, द्रव्य की मात्रा अधिक हो और मूर्खता हो तो क्रोध तुरन्त आ जाता है। इसके विपरीत सभी कारण सात्विक हों तो सहसा क्रोध नहीं आता। क्रोध को समाप्त करने के लिए शास्त्र में उपाय बतलाए हैं।

एक तो क्रोध के समय में चुप रहें उत्तर न यदि चुप रहना कठिन हो तो वह जगह छोड़कर दूसरी ओर चले जाएं अतः पर दूर जाना भी नहीं होता और चुप भी नहीं रहा जाता तो ऐसे ढंग से उत्तर दे कि सामने वाला व्यक्ति अपने आप ही शर्मिंदा हो जाए। जैसे कि कोई हमारी गलतियां निकाल रहा है तो उसे कहें कि आप जो कुछ कह रहे हैं सत्य है। आप तो एक-दो गलतियां बता रहे हैं मेरे में तो अनेक त्रुटियां हैं। अच्छा है आपने बताने का कष्ट किया है, आपका धन्यवाद है। कृपया भविष्य में भी इसी तरह मुझे मार्गदर्शन करते रहें।

जिस तरह थोड़े पानी में अधिक गरम वस्तु को डाल देने से पानी को गरम कर देती है और पानी की मात्रा बहुत अधिक हो, गरमी का पता भी नहीं चलता। उसी तरह किसी के भी अपशब्दों को सहन करने के लिए सात्विक प्रकृति के साथ-२ विचार विवेक हो तो अपशब्दों की ओर मनुष्य का सहसा ध्यान नहीं जाता। ध्यान जाता भी है तो वह सम्भाल लेता है। जिस तरह पागल व्यक्ति के शब्दों को ओर मनुष्य ध्यान नहीं देते उसी तरह सज्ञान, समझदार व्यक्ति मूर्खों के शब्दों पर ध्यान नहीं देते।


नोट :- यदि हमारी गल्ती के कारण कोई बुरा-भला कहता है तो नम्रता से उत्तर देना चाहिए, मान जाना चाहिए कि मेरे से गलती हो गई है भविष्य में इस प्रकार की गलती नहीं होगी। नम्रता पूर्वक उत्तर देने पर सामने वाला शान्त हो जाता है। संसार का नियम है। गरम और ठंडे लोहे के टकराव में ठंड का कुछ भी नहीं बिगड़ता गरम लोहा ही कटता है उसी की शक्ल सूरत खराब होती है वैसे ही शान्त व्यक्ति का नम्र व्यक्ति का नुकसान नहीं होता नुकसान तो को व्यक्ति का ही होता है।

आजकल बढ़ते हुए कलियुग के कुप्रभाव से दिन प्रति दिन अज्ञान बढ़ता जा रहा है, अन्यथा ज्ञान की झूठो कल्पना अधिकाधिक बढ़ती जा रही है। सत्य को समझने को मनुष्य कल्पना भी नहीं करता । पिता पुत्र में मां-बेटी में प्रेम कम होता जा रहा है। स्वामी सेवक का भी यही हाल है। छोटी गलतियां होने पर पिता-पुत्र को अथवा मालिक नौकर को इतनी डाट फटकार देते हैं कि नौकर काम छोड़ कर भाग जाता है और पुत्र घर छोड़ कर बाहर भटकना शुरू कर देता है। कई तामस वृत्ति के बालक तो आत्महत्या भी कर लेते हैं । यही वर्ताव स्त्रियों का है। निर्धन माता-पिता के द्वारा पर्याप्त दहेज दिए जाने पर लड़की का जीवन कटका कीर्ण बन जाता है। पति या ससुराल के अभद्र व्यवहार के कारण दुःखी होकर कई लड़किया आत्महत्या कर लेती है। उपरोक्त समस्याओं का समाधान विचार-विवेक के द्वारा ही संभव है। क्रोध से नहीं । जिस तरह किसी बालक, नौकर अथवा स्त्री के हाथों से कुछ नुकसान हो जाता है ऐसे समय में बड़ों का कर्त्तव्य यह है कि चुप रहें, कुछ बोलना भी हो तो इतना ही कहे कि कोई बात नहीं होता ही रहता है। कुछ समय के पश्चातशान्ति से बतलाएं कि सम्भाल कर कार्य करना चाहिए। जिसके हाथों से नुकसान हुआ होता है : उसको अपने आप ही पश्चयाताप होगा। भविष्य में उसके हाथों से वैसी गलती नहीं होगी। उसी समय क्रोध करना शुरू कर देने से कुछ जिद्दो वालक ऐसे होते हैं कि एक प्लेट उसके हाथों से अनजान में टूटी होगी परन्तु माता-पिता के क्रोध के कारण दो-चार जान बूझ कर तोड़ डालते हैं। भविष्य में उन्हें मजबूर होकर झूठ बोलना पड़ता है। एक गलबी को छिपाने के लिए उन्हें अनेक बार झूठ बोलना पड़ता है। इस प्रकार परस्पर का प्रेम अपनापन नष्ट हो कर द्वेष की भावना पैदा होकर एक-दूसरे से दूर 2 होते जाते है।

जिस तरह गृहस्थाश्रम में पति-पत्नि, पिता-पुत्र स्वामी सेवक में प्रेम की जगह कटुता निर्माण हो जाती है जिसका मूल कारण है क्रोध । उसी तरह संन्यास आश्रम में भी गुरु शिष्य के प्रेम में क्रोध के कारण उदासीनता घर कर लेती है। हालांकि गुरू-शिष्य की भलाई के लिए क्रोध करते हैं। क्रोध में भी गुरु का शिष्य के प्रति अपार प्रेम होता है। सत्शिष्य को भी गुरु अपनी आत्मा से अधिक प्रिय होते हैं। सुना है कि पुराने समय में गुरूजन शिष्य को भलाई के लिए ऊपर-2 से क्रोध करते थे, डाट फटकार करते थे। यहां तक भी कह देते थे कि इसको आश्रम से निकाल दो इसका सामान फेंक दो । खाना मत दो। तीन-2 दिन बीत जाते थे परन्तु योग्य शिष्य गुरू का द्वार छोड़कर दूसरी तरफ नहीं जाता था। फलटण में वैरागी बुआ थे उन्होंने अपने बचपन की एक घटना सुनाई थी कि हम कुछ बच्चे शरारत कर आए। श्री बाबा जी को पता चल गया। उन्होंने हमें बुला कर अच्छी तरह पिटाई कर दी। उस दिन आमरस की पंगत थी। बड़ी सुन्दर रस बनाया हुआ था। बाबा जो ने कहा, बच्चों को भोजन के लिए पंगत में बिठाओ। हमारी इतनी पिटाई हुई थी कि हमारे आंसु बन्द नहीं हो रहे थे। खाना तो दूर रहा खाने के नाम से उल्टी हो रही थी। खैर बाबा के आग्रह से खाना खाने के लिए बैठे परन्तु एक ग्रास भी अन्दर नहीं गया। वैरागी बुआ ने बतलाया था कि आजकल ऐसे शिष्यों का अभाव होता जा रहा है। कि आजकल पुराने युग की कल्पना करने वाले हैं भविष्य में भी नहीं मिलेंगे ।


जय श्रीकृष्ण 

Thank you

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