भगवान
कें कथनानुसार सब कुछ करने पर ही होता है। किसी भी कार्य को शुरुवात
करने पर ही वह कार्य होता है। चलने से पहले ही सफर लम्बा लगता है। चलना शरु कर देने
पर धीरे-२ सफर कम होता जाता है। चाहे वह कार्य स्वार्थ का हो
अथवा परमार्थ का हो। कहावत सत्य है "कण-२ जोरे मण जुरे'
या ‘‘बूंद-२ से घट भरे” एक-२ पैसा जमा करने
से मनुष्य धनवान बन जाता है। उसी तरह परमार्थ के एक विधि का आचरण करने से दूसरे विधि
की स्फूर्ति होती है; प्रेरणा मिलती
है।
जब तक किसी कार्य का आरम्भ नहीं किया जाता तब तक उस कार्य के प्रति प्रेम उत्पन्न
नहीं होता और प्रेम उत्पन्न हो जाने पर भले ही रुकावट आ जाएं मनुष्य पीछे नहीं हटता।
दुनियावी कार्य करने में तो मनुष्य का मन स्वभाविक ही लग जाता है, क्योंकि विषय और इन्द्रियों के द्वारा उसका तुरन्त अनुभव आ जाता
है। पुत्र, धन, मान-सम्मान के लिए तथा रिश्तेदारों के लिए मनुष्य जी-जान से
कार्य करता है। उसका कारण यही होता कि प्रत्यक्ष लाभ दिखाई देता है या सुख की आशा होती
है।
दुनियावी कार्य को पूर्णता के लिए मनुष्य क्या नहीं करता? पुत्र, परिवार व रिश्तेदारों
की सुरक्षा के लिए मनुष्य सब कुछ लुटाने के लिए तैयार हो जाता है। अपने जीवन को सुखी
बनाने के लिए मनुष्य जी-जान से परिश्रम करता है। दुःख-कष्टों से बचने के लिए परम्परा
से प्राप्त हुई सम्पत्ति का परित्याग कर देता है। कर्ज लेकर भी कार्य करता है।
जिस तरह दृष्ट लाभ के लिए मनुष्य प्रयत्नशील रहता है उतना प्रयत्न परमार्थ
के लिए सहसा नहीं करता क्योंकि परमार्थ का लाभ तुरन्त दिखाई नहीं देता। यही कारण है
कि आज हम जितने भी प्राणी संसार में दिखाई दे रहे है चाहे वे कीड़े-मकौड़े हैं, पशु-पक्षी हैं या मनुष्य मात्र है अथवा साधु-सन्त ही क्यों नहीं।
हम सब हो जीव स्वार्थ के लिए सृष्टि के आरम्भ से आज तक अच्छे-बुरे कर्म करते
आए, सुख-दुख भोगते आए । परन्तु
परमार्थ नहीं यही कारण है कि आज हम दुनियां में पथके खाते हुए दिखाई दे रहे हैं।
सृष्टि आरम्भ से लेकर आजतक परमात्मा की ओर से हमें अनन्त सृष्टियों में अनन्त
बार मनुष्य देह प्राप्त हुई। परमात्मा को ओर से अनन्त बार हमें ज्ञान प्राप्त हुआ।
नित्य-अनित्य वस्तु का विवेक हुआ । इष्ट अनिष्ट का परिज्ञान हुआ परन्तु हमने ज्ञान
के अनुसार आचरण नहीं किया। अनिष्ट का त्याग करके इष्ट को नहीं अपनाया।
परमात्मा के किए हुए उपकारों को भूलाकर स्वार्थ के राह पर चलते आए। हम सभी
परमात्मा से विमुख रहे। हम बेउपकारी है कृतघ्न हैं, बेईमान है इसमें कोई सन्देश नहीं है ।
स्वयं ध्यान दें कि यदि रिश्तेदार विदेश से रात के समय आने वाले हों तो हम
हवाई अड्डे पर पहुंच जाते हैं। फलाईट लेट हो जाए तो इन्तजार करते हैं। विवाह शादी, जन्म-मृत्यु के समय हम रिश्तेदारों में समय से पहले पहुंच जाते
हैं। देने का प्रसंग हो तो कर्जा लेकर भी देते हैं।
परमार्थ के लिए हम कितना उद्यम करते हैं यह स्वयं सोच-विचार
करें। परमार्थ के लिए तो मनुष्य के पास समय ही कहां है? साधु-महात्मा बाहर से आए हों यदि कोई सन्देशा देता है कि दर्शन
कर जाएं तो भी समय पर जाना नहीं होता। यह काम है, वह काम है कहकर टाल देते हैं । यदी साधु महात्मा बतलाए कि सुबह उठकर भगवान का नाम स्मरण किया कर तो उत्तर मिलता
है नोंद हो नहीं खुलतो क्या करें? दिन भर काम करते हुए थक जाते हैं। देर से उठते हैं खड़े-२ दो विशेष मस्तक से लगाकर बिना चबाए हो आखा - भागा निगलकर काम के लिए चल पड़ते हैं। यदि सत्संग में आने के लिए। कहा जाए तो समय पर नहीं जाता।
दान करने के लिए कहा जाए तो अपनी ही समस्या सामने रख देते है क्या करें ? हाथ बहुत तंग है।
दुःख-कष्टों से पीड़ित हो और महात्मा कहे कि कुछ पाठ स्मरण करो जिससे दुःख
निवारण हो जाएगा। उत्तर मिलता है समय ही नहीं है आप हो मेरे लिए पाठ-स्मरण कर दें। क्योंकि साधु-महात्मा परोपकार के
लिए ही होते हैं। पाठ-स्मरण के लिए मनुष्य के पास समय नहीं है। ज्ञान सुनने के लिए
समय नहीं है। तीर्थ यात्रा के लिए समय नहीं है। सेवा करने के लिए समय नहीं है। दानधर्म
करने के लिए धन नहीं है। मात्र निंदा-चुगली
के लिए समय निकल आता है। लड़ाई-झगड़ों के लिए समय निकल आता है।
सांसारिक खर्च के लिए द्रव्य होता है। कचहरी-कोर्ट के लिए द्रव्य होता है, अपनो सुख-सुविधा के लिए द्रव्य होता है। यदि नहीं है तो केवल
भगवान के लिए। परन्तु भगवान से मांगते हुए नहीं शरमाते। कुछ स्वार्थी भक्त तो भगवान
को कहते रहते हैं, हे प्रभु ! मेरी
एक लाख की लाटरी निकल आएगी तो में पांच हजार रुपये दान कर दूंगा । भगवान को कौनसी
मुसीबत पड़ी है कि वह पहले एक लाख रूपया दे और उसमें से पांच हजार रूपये की दे आशा करें
। भूमी निर्जीव होती है । उसको कोई समझ नहीं है पर भी जब तक किसान जमीन
में बीज नहीं डालता भूमि कुछ भी नहीं देती। भूमि में बीज डालने पर ही एक के बदले में
अनेक दाने प्राप्त होते हैं ।
सर्वज्ञ परमात्मा तो हमारे अन्दर-बाहर के भाव जानता है। परमात्मा का भजन-पूजन, सेवा-दास्य, दान धर्म करने से उनको क्या लाभ है? धर्माचरण करने से लाभ तो जोवों का ही है। परमात्मा को पदार्थों से प्रसन्न नहीं
किया जाता वह सिर्फ प्रेम से ही प्रसन्न होता है। प्रेम-पूर्वक उसको पत्र पुष्प, फल, जल, अर्पण किया जाता है उसी का वह स्वीकार करता है।
द्रौपदी के हाथों का भाव पूर्वक अर्पण किया हुया दो इंच कपड़ा
लेकर साडियों का ढेर लगा दिया था। सुदामा के हाथों से प्रेम-पूर्वक भेंट किए हुए दो
मुट्टी चावल खाकर भगवान ने उन्हें स्वर्णमय सुदामा नगरी दे दी। मुट्ठी भर चने उपाध्यबास
के हाथों से प्रेम पूर्वक दिए हुए स्वीकार करके उन्हें ब्रह्माण्ड भोजन के समान इष्ट
दिया। स्वामी की आज्ञा के अनुसार करने पर सब कुछ हो सकता है।
संसार की अनेकविध सम्पत्ति सच्ची सम्पत्ति नहीं है ! जीव को सच्ची
सम्पत्ति परमेश्वर है। अतः उस सच्ची सम्पत्ति को प्राप्त करने के लिए मनुष्य को चाहिए
कि अपने तन, मन और धन का अधिक
से अधिक भाग परमेश्वर के निमित खर्च करें।
गत सृष्टियों में अथवा अनंत गत जन्मों हम जो जो गलतियां
करते आएं इस बार वे गलतियां हमारे हाथों से न हो उसके लिए सावधान रहना चाहिए ।
जीव उद्धरण व्यसनी सर्वज्ञ दयालु अवतार श्रीचक्रधर महाराज ने कृपा करके हमें
अपने धर्म में प्रवेश दिया है। हमें ज्ञान देकर सावधान किया है। आलस को त्याग कर उसके
बतलाए हुए मार्ग पर चलने का जो-जान से प्रयत्न करें। वे हमारी प्रतीक्षा कर रहें है।
हमें दर्शन देने के लिए आतुर हैं। सन्निधान देकर हमारे कर्मों का नाश करके परमानन्द
प्रदान करना चाहते हैं।
एक बार अपनी जीवन नौका उसके हाथों में पकड़ा दें। फिर न
चिन्ता रहेगी न शोक, न ताप रहेगा न पाप,
दीन रहे। न दुनियां,
न कर्मों का बन्धन रहेगा
न अविधा का फांस रहेगा सिर्फ आनंद ही आनन्द ।