अनन्य भक्ति का महत्व
#Ananya_bhakti
संन्यास कब लेना चाहिए?
अनन्य शब्द हमारे जीवन में एक महत्वपूर्ण स्थान रखता है। अनन्य शब्द का अर्थ है
जो अन्य (दूसरे) का नहीं एकमेव केवल शुद्ध, अद्वितोय या सम्पूर्ण भक्ति शब्द भज् धातु से बना है।
जिसका अर्थ "सेवा करना” । जैसे कि एक पतिव्रता स्त्री अपने पति की ही सेवा करती है। एक
परमेश्वर को छोड़कर सभी देवताएं अन्य है। अतः सभी देवी-देवताओं को छोड़कर एक परमेश्वर
की भक्ति को हो "अनन्य भक्ति" को संज्ञा दी जाती है। हमारे श्री जय कृष्णी
(महानुभाव पंथ में अनन्य भक्ति का सबसे अधिक महत्व है। युग-२ में देश,
काल और परिस्थिति के अनुसार जीवों के अधिकारों के अनुरूप परमेश्वर
संसार में मनुष्य अवतार धारण करके जीवों का उद्धार करते हैं। में जीवों का उद्धार करने
के लिए परमेश्वर अनन्त जड़-चेतन शक्तियों का स्वीकार करते हैं। केवल उदयदर्शी अवतार
(पर तथा अवर शक्ति युक्त) ही जीवों को ज्ञान तथा प्रेम का साधन प्रदान कर उद्धार करने
में समर्थ है।
१) लीला, २) सम्बन्ध, ३) ग्रहणा और ४) कैवल्य ऐसे चार प्रकार के दान
परमेश्वर देते है। उभयदर्शा चारों प्रकार के दान देते हैं। पर आच्छादित अवरदर्शी अवतार
साढ़े तीन दान (लीला, सम्बन्ध, ग्रहणा तथा अर्ध कैवल्य) अवर आच्छादित दे परदर्शी अवतार अढाई दान (लीला,
सम्बन्ध तथा अर्ध कैवल्य दे सकता है जीवों को मारकर उसे देवताओं के सुखफलों में भेज देना इसे ‘लीला दान’ कहते हैं परमेश्वर अवतारों का स्पर्श होने से जड़-चेतन वस्तुओं में निवास करने
वाले जीवों को वहां का भोग समाप्त होने पर भोग भूमि भोग
सम्पन्न में मनुष्य देह दिया जाता है। इसको सम्बन्ध दान कहते हैं तथा देवताओं को स्पर्श
होने से उन्हें आनन्द प्राप्त होता है उन्हीं के सुखों में तत्काल वृद्धि होती है।
जीवों के दुःखरुप कर्मफलों का क्रम रोककर सुखरुर कर्मफलों का भोग पहले प्रदान करना
इसे ग्रहणा दान करना कहते हैं। ज्ञान प्रेम न देकर दूसरे अवतारों के द्वारा योग्य किए
हुए जीवों की अविद्या का नाश कर उन्हें मोक्ष प्रदान करना इसे अर्ध कैवल्य कहते हैं।
जीवों (मनुष्यों) को मोक्ष प्राप्ति के लिए ज्ञान तथा प्रेम का साधन देकर योग्य होने
पर मोक्ष प्रदान करना अथवा ईश्वर प्राप्ति देना इसे कैवल्य दान कहते हैं ।
जय कृष्णी पंथ में पंच-कृष्ण की भक्ति का विधान
(1) भगवान श्रीकृष्णचन्द्र जी
(2) श्रीदत्तात्रेय प्रभु जी
(3) श्री चक्रपाणी महाराज जी
(4) श्री गोविन्द प्रभु जी
(5) श्री चक्रधर स्वामी जी
ये श्री जयकृष्णी पंथ के पांच कृष्ण हैं। पहले दूसरे और पांचवें उभयदर्शी अवतार
है। तथा तीसरे पर आच्छादित अवरदर्शी और चौथे अवर आच्छादित परदर्शी अवतार है। उभयदर्शी
चारों दान दे सकते हैं। पर अच्छादित साढ़े तीन दान और अवर आच्छादित अढ़ाई दान दे सकते
हैं। इसके सिवाय स्वीकार तथा दानों के अनेक प्रकार हैं। विस्तार भय से अधिक विवरण न
करते हुए विराम दे रहा हूं ।
कुछ लोग तर्क प्रस्तुत करते हैं कि पांच कृष्ण की भक्ति में अनन्यता कसे हो
सकती है ? अनन्यता तो किसी एक की भक्ति में ही हो सकती है। इस प्रकार का तर्क स्वभाविक भी
है। लेकिन हमें इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि ये पांचों अवतार भिन्न-२ होने पर भी मूल रूप में एक ही है । शक्ति स्वीकार,
काल अथवा अवतार धारण करने का प्रकार अलग-२ होने पर भी मूल रुप में परमेश्वर वस्तु तो
एक ही है। जैसे कि नाटक में भाग लेने वाला एक ही पात्र अलग-२
वेषभूषा में रोल अदा करते हुए भी वास्तव में एक ही होता है। ठीक वैसे ही जीवों का उद्धार
करने के लिए अलग-२ वेषों में भी परमेश्वर
एक ही है और उसके वास्तविक स्वरुप का ध्यान ही अनन्यता का प्रतीक है।
यहां यह बात उल्लेखनीय है कि माहिमभट्ट की प्रथम भेंट में भगवान
श्रीचक्रधर स्वामी ने उन्हें क्रमवार सभी अवतारों के नाम बताकर किसी एक अवतार को भक्ति
(सेवा दास्य) करने से भी जीव को मोक्ष प्राप्ति हो सकती है,
ऐसा बतलाया है। अब दूसरा प्रश्न यह उत्पन्न होता है कि एक ही
अवतार को भक्ति करने से मोक्ष प्राप्ति हो सकती है तो फिर पांचों
अवतारों की भक्ति क्यों? इसका उत्तर स्वयं माहिमभट्ट के प्रश्न में छिपा है। स्वामी ने भगवान श्रीकृष्णचन्द्र
जी का नाम लिया तो माहिमभट्ट ने आक्षेप किया कि वह अवतार तो द्वापर युग में हो चुका
है अब विद्यमान नहीं है, अतः उनका सेवा-दास्य सम्भव नहीं है ।
भगवान श्रीदत्तात्रेय प्रभु का नाम बतलाने पर कहा कि वे तो सदा
अदृश्य रूप में विचरण करते हैं वे अमोघदर्शी हैं इस लिए उनका सेवा-दास्य भी नहीं हो
सकता। श्रीचक्रपाणी प्रभु कामाख्य के निमित्त श्री मूर्ति का त्याग कर चुके हैं और
गोविन्द प्रभु सदा विदेही अवस्था में रहते हैं, अतः उनका, सेवा दास्य भी सम्भव नहीं है। अन्त में स्वामी जी ने अपनी ओर
संकेत करके कहा कि हम तुम्हारे सम्मुख विद्यमान हैं, हमारे सेवा-दास्य से आप मोक्ष प्राप्त कर सकते हैं। यह तो था
उन भक्तों के लिए जिन्हें स्वामी का सेवा-दास्य प्राप्त था,
लेकिन हम जैसे असन्निधान स्थित जोवों के उद्धार के लिए स्वामी
जी ने आज्ञा रूप वचन जिसे कि वचन रूप परमेश्वर अथवा असतिपरी कहा जाता है। उसके अनुसार
आचरण करने से पुनः सम्बन्ध प्राप्त होकर वहां सेवा-दास्य तथा सन्निधान प्राप्त कर मोक्ष
प्राप्ति रूप फल प्राप्त किया जा सकता है।
यहां ध्यान से देखें तो भक्ति तथा सेवा-दास्य एक ही है,
दूसरे निमित्त कारण हैं। भगवान श्रीकृष्णचन्द्र जी सर्व जगमान्य
अवतार हैं। इसी प्रकार उनके गीता शास्त्र में निष्काम कर्म योग तथा संन्यास योग,
दोनों का विवेचन मिलता है। अधिकतर लोग गृहस्थ से ही संन्यास
धर्म में प्रवेश करते हैं, अतः निष्काम कर्म योग के सिद्धांतों पर चलना उनके लिए अनिवार्य हो जाता है। दूसरी
बात जैसे किसी घर का एक सदस्य किसी प्रसिद्ध तथा प्रतिष्ठित पद पर आसीन हो तो दूसरे
सदस्य उस प्रतिष्ठित सदस्य का नाम लेकर ही लोगों को अपना परिचय करवाते हैं। ठीक उसी
तरह भगवान श्री कृष्ण चन्द्र जी प्रसिद्ध तथा संसार में सर्वत्र प्रतिष्ठित होने के
कारण भगवान श्री चक्रधर स्वामी ने इस पंथ की पहचान बताने के लिए भगवान श्रीकृष्ण चन्द्र
जी का नाम सर्वप्रथम लिया। जीव का स्वभाव है कि वह बड़प्पन (उपाधि) से आकर्षित हो जाता
है।
भगवान श्रीदत्तात्रेय प्रभु ने अवतार धारण कर ब्रह्मचर्य सहित संन्यास धर्म
को स्वीकार किया तथा इसी की असतिपरी का विधान भी किया। उन्होंने स्वयं अनेक जीवों को
ज्ञान तथा प्रेम रूपो साधन प्रदान करके उद्धार किया तथा अभी भी कर रहे हैं। लेकिन इस
अवतार की विशेषता यह है कि वे केवल अधिकारी तथा कोरे जीवों के उद्धार का ही बीड़ा उठाते
हैं। तथा प्राप्ति तक उनके साधन की पूर्णता करवाते हैं। उनका भक्त कभी प्रमादी (पतित)
नहीं होता। श्रीदत्तात्रेय प्रभु को निमित्त करके श्रीचक्रपाणी
महाराज ने ज्ञान शक्ति का स्वीकार किया। उन से श्रीगोविन्द प्रभु और उन से हमारे साधन
दाता (ज्ञान दाता) सर्वज्ञ श्रीचक्रधर स्वामी ने ज्ञान शक्ति को स्वीकार किया था। इस
प्रकार गुरु शिष्य परम्परा चलाकर ज्ञान शक्ति को स्वीकार करके जीवों का उद्धार किया।
परमेश्वर अवतार स्वयं ज्ञान शक्ति का स्वीकार करते है अथवा दूसरे विद्यमान अवतारों
को निमित्त मान कर ज्ञान शक्ति को स्वीकार करते हैं। इस प्रकार इस जय कृष्णी पंथ के
आदि कारण श्रीदत्तात्रेय प्रभु है। अतः यह धर्म या पंथ निवृत्ती (संन्यास) प्रधान है। जिसमें कि संन्यास को ही मोक्ष प्राप्ति का अन्तिम साधन
माना है। भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र जी ने भी गीता के अट्ठारहवें अध्याय में संन्यास को
अन्तिम महत्व दिया है।
नैष्कर्म्य सिद्धि परमां संन्यासेनाधिगच्छति । (18/49)
अर्थ :- अर्थात् कर्म बन्धन से छट कर परम सिद्धि (मोक्ष) केवल
संन्यास से ही प्राप्त हो सकती है। गृहस्थ में रहकर निष्काम कर्मयोग के संन्यास की नींव बनाई जाती है। तत्पश्चात् अपने
सभी कर्तव्यों को यथा समय पूरा करके संन्यास धारण करने (अनुसरण से पूर्व गुरु अथवा
अधिकरण के मुख से ज्ञान प्राप्ति भो आवश्यक है। जिन्हें ज्ञान (बोध) नहीं हुआ उनके
कि लिए आयु का कोई बन्धन नहीं, वे कभी भी संन्यास ले सकते हैं। लिना संन्यास के परमेश्वर की
अनन्य शरणां गति नहीं कही जा सकती। वह इसलिए कि घर में रह कर इस विषय प्रधान युग (कलियुग)
में कोई बिरला जीव ही अलिप्त रह सकता है। घर स्त्री, पुत्र तथा घन आदि की चिता में हो मनुष्य अधिकतर खोया रहता है।
राग-द्वेष, काम-क्रोध,
मद-मत्सर आदि दोषों से बचकर चलना अत्यन्त कठिन कार्य है। जब
तक मनुष्य संसार से अलग नहीं होता तब तक अनन्यता पूर्ण रूप से अनन्यता नहीं कही जा
सकती। चाहे वह एक ही इष्ट को भक्ति क्यों न करता हो । यहां पर हमादे साधन दाता सर्वज्ञ
श्रीचक्रधर स्वामी द्वारा वचन रूप आज्ञा ही हमारे लिए सेवा सन्निधान तथा असतिपरी का
आचरण ही हमारे लिए सेवा-दास्य है। अनु सरण धारण करना हो हमारे लिए पूर्णरूप से अनन्य
शरणागति है। अनन्यता के विषय में भगवान श्री कृष्ण चन्द्र जी ने गीता में कहा है।
अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते।
तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्
अर्थ :- जो लोग मेरीअनन्य भाव से उपासना करते हैं उन मेरे में
सदा लीन भक्तों का योग क्षेम (अप्राप्त की प्राप्ति-२ की रक्षा) में वहन करता हूं।
यहां पर अनन्य चितन का एक विशेष अर्थ है । जो अन्य किसी भी जड़ या चेतन वस्तु का मन
में ध्यान नहीं करता, किसी वस्तु की इच्छा नहीं रखता, केवल एक परमेश्वर का ही चिंतन करता है उसे अनन्य चितन कहते हैं।
अनन्य वह नहीं जो दूसरे किसी को मानता नहीं, अनन्य तो वह है जो दूसरों को जानता भी नहीं है। केवल एक परमेश्वर
या अपने इष्ट की भक्ति करने में ही अनन्यता नहीं। अनन्यता में और भी अधिक गहराई छिपी
है। निष्कामता भी अनन्यता के अन्तर्गत हो आती है। एक व्यक्ति के मनम सुख-दुःख की भावना
विद्यमान है अच्छे-बुरे, नीच ऊंच की भेद बुद्धि विद्यमान है, उसके मनमें अनन्यता कैसे विद्यमान रह सकती । जहां अनस्यता है
वहां कोई दूसरी वस्तु रह ही नहीं सकती। वह सुख दुःख से कभी विचलित नहीं होता। किसी
प्रकार की भेद बुद्धि रखता। बड़े से बड़ा प्रलोभन उसे आकर्षित नहीं कर सकता । किसी
भो लौकिक अथवा पारलौकिक फल को इच्छा नहीं रखता। यहां तक कि मोक्ष की भी इच्छा नहीं
रखता।
केवल प्रभु प्रेम के रस में ही डूबे रहने में सदैव आनन्द अनुभव करता है उसे
ही परमेश्वर का अनन्य भक्त कहना चाहिए। निरभिमानता तथा निर्लोभता उसके स्वभाविक लक्षण
हैं। परोपकार व दया ही उसकी भावना है। अखण्ड चितन ही उसकी आत्मा की खुराक है। ज्ञान
रूपो आभूषणों से सुसज्जित है, वैराग्य रूपी रथ पर विराजमान होकर भक्ति रूपी घोड़ों की बाग
डोर को अत्यन्त कुशलता से संभाले हुए आत्मरमण बने रहना हो उस का एक मात्र धर्म है।
उपरोक्त सभी लक्षण जिसमें हो वास्तव में वही अबन्ध भक्त है ।
मात्र जय कृष्णी धर्म में प्रवेश पालेने से कोई अनन्य भक्त नहीं बन सकता। जब
तक कि इन गुणों का उसमें विकास नहीं होता। कारण यह कि जिन-2 कारणों से मनुष्य का अन्तःकरण तथा इंद्रियां विचलित होती है,
वे सभी कारण देवता शक्तियों के अधीन है और जो व्यक्ति देवता
शक्तियों के अधीन है, वह परमेश्वर के अधीन कैसे हो सकता है ? जिस व्यक्ति में निराभिमानता है,
उसमें कोई देवता शक्ति अभिमान नहीं ले सकती। क्योंकि निराभिमानता
तो केवल परमेश्वर का ही गुण है। केवल व अनन्य परमेश्वर इस शरीर में वास करे इसके लिए
उसके जैसे गुणों का विकास होना भी साधक के लिए आवश्यक है। बोध (ज्ञान) होने पर जो आचरण
द्वारा इन गुणों का विकास करता है। उसके सभी कार्य बोध शक्ति द्वारा सम्पन्न होते हैं।
बोध,
परमेश्वर की श्रेष्ठ शक्ति है। जहां श्रेष्ठ विद्यमान होगा,
वहां गौण की प्रतिष्ठा नहीं होती। अतः वहा पर देवता सामर्थ्य
या अभिमान काम नहीं करते, केवल परमेश्वर द्वारा ही सभी कार्य सम्पन्न करवाए जाते हैं।
इसी प्रकार निष्काम कर्म योगी भी सभी कार्यों को करता हुआ न उनमें आसफल होता
है न उनके कर्म फलों को ही इच्छा रखता है। अतः उसे भी अनन्य भक्त की संज्ञा दी जाती
है। लेकिन इस विषय राम युग में कोई बिरला ही इस योग पर चल पाता है। इसलिए हमारे साधन
सर्वज्ञ स्वामी ने अंततः संन्यास योग द्वारा अनन्य भक्ति करने
का विधान बताया है और यही मोक्ष का साधन है।
सच्चे अर्थों में योग क्षेम यही है,
जिसे प्राप्त करके मनुष्य का फिर पतन नहीं होता। अनन्य भक्ति
से अपने साधन दाता का पुनः सम्बन्ध तथा साक्षात् सेवा-दास्य प्राप्त हो सकता है। सारांश
यह कि परमेश्वर प्राप्ति के लिए केवल नाम धारक बनना, ज्ञान प्राप्त करना अथवा सन्यास लेना ही पर्याप्त नहीं है। बल्कि
उसके लिए अपने-अपने वर्णाश्रम धर्मानुसार, अपने-अपने अधिकारों के अनुसार अपने कर्त्तव्यों का पालन करते
हुए आसक्ति रहित हुआ निष्काम भाव से परमेश्वर की भक्ति करते हुए समय रहते (56 वर्ष से पूर्व) ज्ञान प्राप्त करके अनुसरण करना ही कल्याणप्रद
है। यही पूर्णरूप से अनन्यता है तथा परमेश्वर प्राप्ति का एक मात्र साधन भी है। ऋतु
के अनुसार समय पर भूमि में बीज बोने तथा प्रयत्न करने पर ही फल लगते हैं। अन्यथा बाद
में हाथ मलने से क्या लाभ । ऐसी अनेक सृष्टिया व्यर्थ चली गई अब एक क्षण भी व्यर्थ न जाएं,
यही दृढ़ निश्चय कर परिश्रम पूर्वक आगे बढ़ते रहना है। परमेश्वर
भी उसी की सहायता करता है जो अपनो सहायता स्वयं करता है। स्वामी जी का यह कथन है
"ऐसा दुनियां में कुछ भी नहीं हैं, जो उपाय से प्राप्त न किया जा सके।”
ह्दयस्पर्शी प्रेरणादायी, दंडवत
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