गुरु का अनुकरण करें
परमार्थ साधना की सिद्धि के लिए यथार्थवादी गुरु की आज्ञा का पालन तथा उसके
पदचिन्हों पर चलना साधक के लिए अनिवार्य है। जो साधक गुरु आज्ञा का पालन नहीं करता
तथा उनके पदचिन्हों पर नहीं चलता उसके लिए परमार्थ की सिद्धि का होना कठिन हो नहीं
वरना असम्भव है। अतः स्वामी ने अपने साधकों के लिए आज्ञा की है कि "गुरु के पीछे
गमन करें", "गुरु की आज्ञा भंग करने से साधक सिद्धि से वंचित रहता है"
। गुरु के साथ अधिकता का वर्ताव न करें"। "जिस गुरु से जो भो गुण (वेध,
बोध, ज्ञान, अनुसरण)
प्राप्त हुआ हो उस पर श्रद्धा भाव नहीं रखने पर वह गुण लुप्त हो जाता है। हो सकता है
कि साधक परमार्थ साधना से भ्रष्ट हो जाता है"। यहां तक कि किसी ने सब्जी बनाने
का ज्ञान किया हो उसको भी गुरु मानें, निमित्त का मान करें, गुरु के गुरु का भी आदर सत्कार करें ।
भगवान श्रीचक्रधर
स्वामी ने उदाहरण देकर समझाया है कि लुई-पाई नामक सिद्ध कलाल की भट्टी पर बैठा हुआ कीड़े मकौड़े मुंह में डाल रहा था। वहां से राजा को सवारी जा
रही थी। लुई-पाई प्रधान के गुरु थे, अतः राजा ने हंसते हुए कहा, प्रधान जी ! देखिए आपके गुरु का हाल ! कीड़े मकौड़े ही खा रहे
हैं। यह सुनकर सिद्ध ने कहा "राजा तू हंसा तो तू अकेला ही हंसा,
यदि मैं हंसुगा तो तेरा सारा परिवार हंसने लग जाएगा"। राजा
ने कहा 'हंस-हंस बापेया' अर्थात् ‘‘हंस कर दिखा, अपनी तो होश नहीं है मेरे सारे परिवार को क्या हंसाएगा।’’ सिद्ध
ने थोड़ा ही हंसना शुरु किया कि राजा और प्रधान को छोड़कर राजा की सारी फौज,
हाथी, घोड़े जोर-जोर से हंसने लग पड़े । यहां तक कि पेट की आंतड़ियां
निकलने की नौबत आ गई। प्रधान ने राजा से कहा यदि आप अपनी फौज की कुशलला चाहते हो तो
क्षमा याचना करले वरना एक भी
जीवित नहीं रहेगा। अतः राजा और प्रधान ने सिद्ध के पास जाकर माफी मांफी माफी मांगने
पर सिद्ध ने हंसना बन्द कर दिया, उसके बाद सब शांत हो गए ।
यह घटना देखकर राजा ने प्रधान से कहा कि हमारे पास इतना ऐश्वर्य हैं परन्तु
इस सिद्ध की सिद्धी के सामने इसका कोई मूल्य नहीं है अत: हमने भी इस प्रकार की सिद्धी
प्राप्त करनी चाहिए। राजा ने सिद्ध से प्रार्थना की कि हे गुरुदेव ! आपके पास जो सिद्धि
है वह हमें भी प्रदान करने का कष्ट करें। सिद्ध ने कहा कुम्हार के घर से टूट खप्पर
को लाकर 12 बजे दिन में गांव में से भिक्षा लेकर आ जाओ हम सिद्धि आज ही आपको दे देंगे ।
दूर जाकर राजा ने प्रधान से कहा कि मैं इस गांव का राजा और तू प्रधान,
भिक्षा करना बड़ी शर्म की बात है। इस शर्म से बचने के लिए अन्धेरे
के समय भिक्षा माँगकर ले चलेंगे और उन्होंने वैसा ही किया। भिक्षा लेकर गुरु के पास
गए तो सिद्ध ने कह दिया बेटा ! सिद्धि का समय आप लोगों ने गंवा दिया। अब बारह वर्ष
के बाद सिद्धि प्राप्त होगी। दिन के समय भिक्षा लेकर आते तो आज ही सिद्धि मिल सकती
थी ।
राजा और प्रधान को सिद्धि की लगन थी, अतः अपने पुत्रों को राजा और प्रधान बनाकर सिद्ध के साथ चल दिए।
सिद्ध ने एक कलाल की दुकान पर जाकर शराब पीकर प्रधान को गिरवी रख दिया और कहा कि पैसे
देकर इसको छ ड़ा लेंगे, जब तक हम नहीं आते तब तक यह आपकी सेवा करेगा। वहां से चले जाने पर प्रधान भट्ठी
पर लिपाई-पुताई आदि हम आपके की सेवा करने लग गया। आगे जाने पर एक वेश्या के घर गए वहाँ
नृत्य वगैरा देखा। पैसे के बदले राजा को गिरवी रख दिया और कहा कि हम पैसे देकर इसे
छड़ा लेंगे। राजा वेश्या के घर सण्डास आदि की सफाई के कार्य में लग गया।
दिन बीतते गए, 12 वर्ष पूर्ण हो जाने पर प्रधान सोया हुआ था उसके मुंह से इतना
प्रकाश निकला कि आकाश को छू रहा था। कलाल ने यह दृश्य देखा तो वह डर गया। प्रकाश प्रधान
के मुंह में समा गया। सुबह कलाल ने प्रधान से क्षमा याचना करके चले जाने को कहा तो
प्रधान ने कहा हमारे गुरुदेव आएंगे, वे आपके पैसे देंगे तब मैं जाऊगा। कलाल ने
कहा हमारे पैसे पूरे हो गए कोई देना शेष नहीं रहा। अब तो प्रधान
भी लुईपाई के समान सिद्धि का सुख लूटते हुए विचरण करने लगा ।
वैसे ही 12 वर्ष पूर्ण होने पर राजा को भी सिद्धि हो गई। एक दिन वेश्या का पति बाहर गांव
गया हुआ था। नदी में बाढ़ आ जाने से बह नदी के पार रुका हुआ था। इधर पति की इन्तजार
में वेश्या खाना नहीं खा रही थी। इस बात का पता चलने पर राजा नदी पर इस तरह चलता गया
जैसे जमीन पर ही चल रहा हो। उसे पोठ पर बिठाकर दमे ही आ गया। यह आश्चर्यमय घटना देखकर
उसने पत्नी को कहा कि जिस व्यक्ति को आपने नौकर बनाकर रखा है वह तो सिद्ध है। आज मुझे
वह पीठ पर बिठाकर जैसे भूमि पर चलते हैं वैसे ही पानी पर चलता हुआ इस पार आ गया। कहीं
ऐसा न हो कि यह हम सबको शाप देकर भस्म करदे. अतः इस को भेज देना चाहिए। राजा को जाने
के लिए कहा तो उसने भी कहा कि गुरु जी आपके पैसे देंगे तब जाऊंगा। वेश्या ने हाथ जोड़कर
क्षमा मांगते हुए कहा कि हमारे पैसे आ गए ।
अब तो राजा भी प्रधान की तरह सिद्धि में विचरण करने लग गया। गांव देश और परिवार
जनों को छोड़ कर राजा और प्रधान एक सामान्य सिद्धि के लालच में चल पड़े । लगन थी अतः
सामान्य सेवा, चाकर बन कर भी उन्होंने की गुरु की । आज्ञा का पालन करने से 12 वर्ष में सिद्धि प्राप्त कर ली । स्वामी ने कहा कि "गुरु
की आज्ञा का भंग करने से इतनी बड़ी सिद्धि से वंचित रह गए और गुरु आज्ञा का पालन करने
से इतनी बड़ी सिद्धि प्राप्त हो गई।"
इस घटना को बतलाने के पीछे स्वामी का यही उद्देश्य था कि गुरु कि आज्ञा का पालन
नहीं करने से सामान्य सिद्धि भी प्राप्त नहीं होती गुरु आज्ञा का पालन करने पर ही देवताओं
की सिद्धियां प्राप्त होती है। वह भी मान अपमान की परवाह न करते हुए लगन और प्रेम पूर्वक
गुरु आज्ञा का पालन करे तब स्वामी दूसरी बात यह भी जतलाना चाहते थे कि मुक्ति रुपी परम
सिद्धि को प्राप्त करने के लिए साधकों ने हमारी आज्ञाओं का पूर्ण रूप से पालन करते हुए मान-अपमान,
सुख-दुःख लाभ हानि को समान समझकर देश ग्राम एवं परिवार का पूर्ण
रूप से त्याग करें। कर्म दत्त द्रव्यादि पदार्थों का त्याग करें और देव दत्त द्रव्य
वस्त्रादि पदार्थों का जरुरत से अधिक प्राप्त होते है तो यह समझे कि स्वामी की इच्छा
है कि मेरे हाथों से वे परमार्ग की सेवा लेना चाहते है,
अतः उचित विधि प्राप्त होने पर कंज्सी न करते हुए साधु-संत,
तीर्थ-स्थान, या मठ मन्दिर और धर्म प्रचार के (ग्रन्थों के प्रकाशन) कार्य
में सहर्ष प्रेम पूर्वक खर्च कर डालें।