माता का नैसर्गिक स्नेह
(महानुभाव पंथिय ज्ञान सरिता)
माता (मातृ,
मान्) पूजा करना, सम्मान करना तृच् (तृ)
उणादि न् का लोप माता = जन्मदात्री/जनयित्री
(शांकरभाष्य) माता यह शब्द बड़ा ही महत्वपूर्ण है। इस जगत में इसकी महत्ता एवं श्रेष्ठता
को देख इसे स्वर्ग से बढ़कर दर्जा दिया गया है। ‘जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरियसी’ अर्थात् माता एवं पृथ्वी स्वर्ग से भी बढ़कर है। माता के कार्य पिता से भी
बढ़कर होने से इसकी महत्ता अपने आप सिद्ध होती है। नौ मास उदर में धारण करके अनेकों
कष्टों, दुःखों
एवं मुसीबतों को झेलना, बालक के जन्म समय मृत्यु तक के कष्टों को सहन करना,
उसके जन्म के बाद पालन पोषण में रात-दिन एक करना। स्वयं गीले
बिस्तर पर सोकर उसे सूखे स्थान पर सुलाना। बालक को अच्छे कपड़े पहना स्वयं चिथड़े तक
पहनना। स्वयं आधे पेट रह बालक के खान-पान का विशेष प्रबन्ध करना। बालक के बीमार होने
पर रात-रात जागकर उसे भले चंगे करने के लिए प्रयत्नशील रहना। उसके अधिक कष्टित होने
पर अनेकों देवी-देवताओं की मनौते मानते फिरना। उसके पश्चात् पढ़ाई लिखाई से लेकर उसके
विवाह तक चिंतित रहना। उसके विवाहोपरान्त पोते पड़पोते के लिए भी कार्य करते रहना।
इस प्रकार मां की ममता के अनेकों कार्य देखे एवं अनुभव किये जा सकते हैं। इसीलिए मां
की ममता सर्वश्रेष्ठ है ईश्वर को छोड़कर, यह निर्विवाद सत्य है।
सर्वज्ञ श्री चक्रधर स्वामी जी ने तो अपने उपदेश में अनेकों माताओं का स्थान-स्थान
पर निरूपण कर उसकी श्रेष्ठता प्रतिपादित की है। माता के स्नेह की महत्ता स्वयं श्रीचक्रधर
जी ने महदाइसा के पूछने पर बताई है।
देखिए यह लीला-माता-पिता की भक्ति एवं स्नेह का निरूपण
एक बार महदाइसा ने पूछा भगवन् ! पुराण में माता-पिता की भक्ति की अत्यन्त प्रशंसा
की गई है। उससे क्या प्राप्त होता है। सर्वज्ञ ने उत्तर में कहा-महदाइसा ! संसार
में माता तथा पिता के प्रेम से बालक का भला होता है। क्योंकि वे सदैव उसका भला जो चाहते
हैं। माता का प्रेम नैसर्गिक है। वह अपनी संतान को हृदय से चाहती है। उसके प्रेम में
किसी प्रकार की अपेक्षा नहीं होती। परमेश्वर के हृदय में जीवात्मा के लिए जितना प्रेम
है मां का प्रेम परमेश्वर से कम है। क्योंकि वह कम अधिक होता रहता है। जबकि परमेश्वर
का प्रेम सदैव एकसा रहता है। इससे यह सिद्ध होता है कि पिता का प्रेम इतना श्रेष्ठ
नहीं जितना माता का। क्योंकि उसमें स्वार्थता की गंध होती है। इसीलिए मां के प्रेम
को नैसर्गिक बताया है, पिता के प्रेम को नहीं।
माता के प्रेम के विषय में स्वामी श्रीचक्रधर जी ने नीचे दिया गया दृष्टांत
सुनाकर यह दिखा दिया है कि माता अपने बालक के लिए अपना सब कुछ न्यौछावर कर सकती है।
अपने पास कुछ न होने पर अपनी वस्तु भी गिरवी रखकर उसका हठ पूर्ण करती है।
गरीब मां का दृष्टान्त- यह दृष्टान्त स्वामी ने बेलापुर में महदाइसा को सुनाकर कहा-क्या
दुनिया में कोई ऐसी वस्तु है जो प्रयत्न तथा उपाय करने पर न प्राप्त हो ?
अर्थात् तरीके से सबकुछ प्राप्त हो सकता है। जीव का आग्रह देखकर
परमेश्वर उसे ज्ञान की बजाय प्रेम भी प्रदान कर सकते हैं जैसे गरीब मां का दृष्टान्त
किसी गरीब मां का पुत्र दूध चावल खाने के लिए हठ कर बैठता है। मां के पास कुछ नहीं
है जो वह उसकी वह जिद पूर्ण कर सके। उसके उस हठ से परावृत्त करने के लिए उसने कई प्रकार
की लालच दिखाई किन्तु उसका रोना चिल्लाना जारी ही रहा। तो मां उसकी मृत्यु की कल्पना
से कांप उठी। अन्त में उसने छाज तथा कड़छी गिरवी रखकर उसके लिए दूध चावल लाकर उसे दिया।
यह दृष्टान्त से यही मतितार्थ स्वामी ने प्रकट किया कि मां का बालक के प्रति कितना
प्रेम है जो वह उसके लिए सब कुछ करने को तैयार रहती है। इसी प्रकार परमेश्वर भी आग्रह
करने पर प्रेम भी प्रदान कर सकते हैं। ऐसे स्वामी के निरूपण में माताओं के अनेकों उदाहरण
दिखाई देते हैं जो उसकी श्रेष्ठता एवं प्रेम को प्रगट करते हैं।
देखिए यह एक उदाहरण ।
स्वामी ने यह दृष्टान्त चांगदेव के प्रति निरूपित किया है। श्री चक्रधर स्वामी
का निवास सिंगनापुर में था। चांगदेव भगवान से अलग एक मन्दिर में था। भगवान ने उसे सायंकाल
के समय स्थित्यानन्द (अलौकिक सुख-जिसमें साधक इन लौकिक सभी बातों को भूल अपूर्व आनन्द
में मग्न हो जाता है) में निमग्न कर दिया। वह रात भर उसी अवस्था में पड़ा रहा। जब प्रातः
स्वामी वहां गये तो उन्होंने चांगदेव से कहा- परमेश्वर अपने आतुर भक्त को दान देते
हैं चाहे वह भक्त उनसे कितनी भी दूरी पर क्यों न हो ?
जैसे दूरस्थ माता का उदाहरण
एक मां अपने नन्हें बच्चे को सोता छोड़ गली में किसी के घर आटा पीसने जाती
है। जब बच्चे का दूध पीने का समय होता है तो प्रेम की अत्याधिकता के कारण उसकी छाती
से दूध उतर आता है। वह जान जाती है कि मेरे बच्चे के भूख का समय हो गया है। अत: झटपट
कार्य समाप्त कर आकर वह बच्चे को दूध पिलाती है। इसी प्रकार परमेश्वर भी साधक का ध्यान
रखते हैं। इससे मां के प्रेम की अत्याधिकता अपने आप सिद्ध होती है।
जहां स्वामी ने मानवी माताओं के प्रेम के अनेकों उदाहरण अपने निरूपण में बताये
हैं वहां उन्होंने पशु-पक्षियों में स्थित अनेकों माताओं के उदाहरण देकर माताओं के
प्रेम की अत्याधिकता को दर्शाया है। मछली, कछवी, मुर्गी (कुकड़ी) तथा बंदरी के उदाहरण हम यहां दे रहे हैं जो माताओं
के अपने बच्चे के प्रति अगाध प्रेम को प्रगट करते हैं।
मछली का दृष्टान्त- यह दृष्टान्त पैठन में स्वामी ने माईबाइ एवं एकाइसा सुनाकर
कहा- दृष्टि, स्पर्श,
आलाप तथा
अन्तःकरण को इन चार साधनों से को परमेश्वर वेध देते हैं। जैसे मछली का दृष्टान्त है-मछली पानी में अण्डे या बच्चे
देती है उसके बाद वह अपनी नजर से पीछे मुड़कर उन्हें देखती रहती है। मां की इस ममता
को पाकर बच्चे बढ़ने लगते हैं। यह है मां की ममता का करिश्मा।
कछवी का दृष्टान्त- यह दृष्टान्त सावखेड़ा संगपर नागदेव को सुनाकर स्वामी बोले-
परमेश्वर दृष्टि आदि चार साधनों से वेध देते हैं। परमेश्वर अन्तःकरण
द्वारा देते हैं। जैसे कछवी का दृष्टान्त है।
कछवी किनारे पर अण्डे देकर स्वयं उनसे दूर जा बैठती है किन्तु
वह अपने हृदय में लगातार सन्तान का स्मरण करती रहती है। माता के शुभचिंतन से सन्तान
मां का प्यार पा लेती है और शनैः शनैः बढ़ने लगती है। यहां अन्तःकरण में मां का कितना
अत्यधिक प्रेम होता है जिसका सन्तान पर प्रभाव पड़ता है। यह उसके प्रेम अनूठा,
अपूर्व उदाहरण है।
मुर्गी का उदाहरण- यह दृष्टान्त सिंगनापुर में चांगदेवभट को सुनाकर स्वामी ने कहा-जीवों को वेध (स्थित्यानंद)
तथा वेधशक्ति हम जैसे ईश्वरीय अवतारों से प्राप्त होती है। इसके लिए स्वामी मुर्गी
का उदाहरण देकर समझा रहे हैं। मुर्गी अण्डे देती है। उससे चूजे बाहर आते हैं। उनको वह अपने
पंखों के नीचे लेकर अपनी गरमी देती है। जिससे उनके पंख निकल आते हैं और धीरे-धीरे 'वे बड़े होने लगते हैं। यहां भी मां की ममता का अनूठा प्रकार
दिखाया है स्वामी ने।
बन्दरी का दृष्टान्त- यह दृष्टान्त पैठण में सारंग पंडित को सुनाकर स्वामी बोले दुनियादारी में प्रतिष्ठित श्रेष्ठ
पुरुष ईश्वरीय मार्ग में कनिष्ठ माना गया है। क्योंकि उसमें भक्ति भाव नहीं होता। यह
केवल कीर्ति तथा सम्मान के लिए कार्य करता है। इसी तरह ईश्वर के यहां बड़ा गया मनुष्य
लौकिक दृष्टि में नष्ट-भ्रष्ट गिना जाता है क्योंकि परमेश्वर धर्म के अतिरिक्त वह दूसरों
के काम का नहीं रहता।
जैसे बन्दरी का दृष्टान्त ।
बन्दरी बच्चे को छाती से चिपकाये जब एक डाल से दूसरी डाल पर
कूदती है तो देखने पर ऐसा प्रतीत होता है देखने वालों को कि अब बच्चा गिर की जायेगा
किन्तु बन्दरी बच्चे को न गिरने देने की कला में और बच्चा पकड़ने केम कला में प्रवीण
होने से उसका कुछ नहीं बिगड़ता।
इस उदाहरण में भी बन्दरी का एक हाथ से बच्चे को पकड़े रखना,
गिरने न देना मां की ममता का ही द्योतक है। इस प्रकार से अनेकों उदाहरण
स्वामी के निरूपण में मां के ममत्व के विषय में दृष्टिगोचर होते हैं। तात्पर्य यही
है कि परमेश्वर के ममत्व के बाद मां ही एक ऐसी ममता रखने वाली है चाहे वह पशु-पक्षी
योनि में हो अथवा मानव योनि में जिसके समान बालक के प्रति ममता करने वाला कोई नहीं
है।
अतः ऐसी ममतामयी मां का सम्मान करना, आदर करना हर एक के लिए अनिवार्य हो जाता है। किन्तु आज के इस
वैज्ञानिक युग में तथा अपने आप को उन्नति के शिखर पर जाते हुए समझने वाले युग में मानव
मात्र की इसके प्रति उपेक्षा, लापरवाही अनादर होता हुआ दिखाई देता है। ऐसी ही एक आप बीती एक
असहाय माता से सुनी तो आंखों में आंसू आ गये। उसका थोड़ा-सा अंश ही केवल यहां उद्धृत
करता हूं पाठकों की जानकारी के लिए।
चंद रोज पहले एक जानी पहचानी माता से भेंट हो गई। उसके अत्याग्रह से मुझे उसके
घर जाना पड़ा। वहां जाने पर जब उसने अपनी आप बीती सुनानी आरम्भ की तो रोंगटे खड़े और
आंखें आंसुओं से छल-छल उठीं। आप बीती सुनाते समय उसकी आंखों से निकली अविरत अश्रुधारायें
बह रही थीं। मेरे बार-बार सांत्वना देने पर भी उसकी आंखों के आंसू नहीं थम रहे थे।
जैसे तैसे मेरे आग्रह को मान थोड़ी देर चुप हो माता ने अपनी कहानी कहनी शुरू की। जिस
बेटे की सुख समृद्धि एवं उन्नति के लिए मैंने अपने प्रभु से अनेकों मनौते की थीं,
पूजा-पाठ किये, कराये थे उसी कृतघ्न बेटे ने अपनी पत्नी के आने पर तथा मेरे
पति के मृत्यु की बाद एक दिन चालाकी से मुझसे कागजों पर हस्ताक्षर करा लिये और सारा
ही कीमती सामान एवं जमीन, जायदाद आदि हथिया लिये। सब कुछ लेने के बाद भी उसे शान्ति नहीं आई तो मुझे कचहरी
के दरवाजे पर ला खड़ा किया उसने। जिस खानदान की स्त्रियों ने कभी कचहरी का नाम नहीं
लिया था या सुना था आज कचहरी के दरवाजे पर खड़ी हैं। यह अनुभव करके उस दिन मेरे पांव
के नीचे से जमीन खिसक गई किन्तु मैं मजबूर थी। यह कहते हुए वह माता फूट-फूट कर रो उठी।
मां के बहते हुए खून के आंसू देखकर मेरे मुख से बरबस निकल पड़ा कि धिक्कार
है ऐसे पुत्र को जिसने मां के ममत्व की कदर नहीं की। इतना होने
पर भी ममतामयी मां के मुख से एक अपशब्द भी नहीं निकला;
उस कपूत के लिए। यह सब सुन मैं हैरान हुआ,
परेशान हुआ दुःखी हुआ, और बड़े प्रयत्न से उस माता को धीरज
दे मैं वहां से चल पड़ा।
इसी घटना से प्रेरित होकर ही मैं यह लेख लिखकर अपने सुज्ञ पाठकों से यह परिज्ञान
कराना चाहता हूं कि अपनी महान् भारतीय संस्कृति के आचार्य देवो भव,
मातृदेवो भव,
पितृ देवो भव वचनों को आत्मसात करें और ममतामयी माता का आदर,
सम्मान करें क्योंकि माता के उपकार का ऋण हम अपनी चमड़ी के जूते
बनाकर भी उसे पहनायें तो भी उस ऋण से मुक्त नहीं हो सकते।
अपना अभिप्राय कमेंट करके बताए
दंडवत प्रणाम जी
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