Sanyas kaya hota he संन्यास का मार्ग क्या है

Sanyas kaya hota he संन्यास का मार्ग क्या है

 संन्यास का मार्ग क्या है



         भगवान श्रीचक्रधर जी ने अपने ब्रह्मविद्या शास्त्र में संन्यास के विषय एक बहुत महत्वपूर्ण बात कही है। संन्यास के मार्ग पर चलना एक तलवार में की तेजधार पर चलने के समान है। तलवार की तेज धार पर चलने वाले का ध्यान केवल तलवार की नोंक पर ही होना चाहिए। यदि उसने इधर उधर देखा निश्चित ही पांव कट जायेंगे।

         इसका आशय यह है कि संन्यास की राह पर चलते हुए ध्यान केवल परमेश्वर पर ही होना चाहिए। जो करना है वह परमेश्वर के लिए करना है। न अपने लिये जीना है ना अपने लिए कोई काम करना है। परमेश्वर के भजन करने के लिए खाना है; परमेश्वर की आज्ञा पालन, यही काम करना है और सांस सांस में परमेश्वर का नाम लेकर जीना है।

         यदि संन्यास की इस सच्चाई को नहीं समझा तो निश्चित ही पतन हो जाना है। एक छोटी सी अविधि-साधक को धर्म पतित कर सकती है। श्री चक्रधर स्वामी जी कहते हैं "एक अविधि से दूसरी अविधि पैदा होती है और ऐसे अविधि करते करते साधक धर्म से पतित हो सकता है।''

         भगवान श्री चक्रधर जी ने इस बात को छर्दोंबा नामक भक्त की बात बताकर समझाया है। भगवान श्री चक्रधर जी का निवास पैठन नामक स्थान पर था। सुबह का पूजा अवसर होने के बाद भगवान श्री चक्रधर जी विहरण के लिए निकले तो रास्ते में उन्होंने छर्दोबा नामक अपने भक्त को आते देखा जिसके हाथ में बकरी थी कन्धे पर बच्चा था, सिर पर बच्चों को संभालने वाला पालना था। साथ में स्त्री भी थी जिस के सिर पर गठरी थी।

         ऐसे भगवान श्रीचक्रधर स्वामी जी ने रास्ते से उसे जाते देखा और सहसा उनके मुख से निकल आया कि ये हमारा ज्ञानी. भक्त (बोधवन्त) था और हमारे वियोग में जंगलों में आचरण करने के लिए गया था और इसने घृणा को इतना जीत लिया था कि उल्टी किया हुआ अन्न भी यह खा सकता था परन्तु एक स्थान पर न रहने की हमारी आज्ञा को भंग करने से पतित हो गया। श्री चक्रधर स्वामी जी ने भक्तिन आऊसा से कहा-अरे नायका यह हाथ में बकरी सिर पर पालना लिए हुए व्यक्ति से पूछी तुम किसके अनुयायी हो तो आऊसा ने उससे जाकर पूछा अरे तुम किसके अनुयायी हो ?" तो छर्दोबा बोला मैं नागदेव राऊल का हूँ।

         आऊसा आकर के श्रीचक्रधर स्वामी जी से कहा तो श्री भगवान जी ने कहा यह तो हमारा नाम श्रीचांगदेव राऊल भी भूल गया है। तो बाईसा तथा भक्त जनों ने पूछा श्री भगवान जी इसका ऐसा पतन क्यों हो गया?

         तो श्रीभगवान ने बतलाया यह प्रातःकाल एक झाड़ के नीचे बैठकर हमारा स्मरण करता था। वह वृक्ष किसी खेत की सीमा पर था। उसे उस वृक्ष के नीचे बैठने की आदत पड़ गई। उस वृक्ष के नीचे खेती करने वाले किसान आते थे और उसको कुछ दे भी देते थे। फिर एक किसान कहने लगा। मेरे खेत के बीच में बैठा करो और फिर वह उसे अनाज भी देता था। फिर वह खेत के कमरे में रहने लगा।

         उसके बाद किसान उसे अपने घर भी ले जाता था और वहाँ भी उसे खिलाता, पिलाता भी था। फिर वह किसान के घर के कमरे में रहने लगा। एक दिन वह किसान मर गया।

         मरते समय उसने कहा कि अब ये बच्चे व स्त्री अब तुम ही सम्भाल लो और इस प्रकार एक पेड़ के नीचे बैठने से तथा हमारी आज्ञा का भंग करने से छर्दोबा धर्म से इतना पतित हो गया कि भगवान का नाम तक भूल गया इस प्रकार एक छोटी सी अविधि (दोष) करने से आगे अनेक अविधियां (दोष) हो जाते हैं और साधक धर्म से पतित हो जाता है।

         संन्यास के मार्ग पर चलना बड़ी बहादुरी और कुशलता का कार्य है। एक संन्यासी उस योद्धा के समान है जिसको युद्ध भूमि में युद्ध करते समय दो बातों का ध्यान करना परम आवश्यक है (1) अपने आपको दुश्मन के वार से बचाना है (2) दुश्मन पर कुशलतापूर्वक प्रहार कर उसे मारना है। इसका अर्थ यही है कि संन्यास के मार्ग पर चलते हुए सबसे पहले अविधि (दोषों) से बचना परम आवश्यक है फिर उसके बाद श्री भगवान जी ने बताई हुई विधि का पालन तथा आचरण करना है तभी संन्यास लेना सार्थक हो सकता है अन्यथा पतन होने में कुछ पता भी नहीं लगेगा और न ही समय लगेगा।

         हे मेरे श्रीचक्रधर स्वामी हम आपके बच्चे हैं आपकी शरण आए हैं आप हमारी उंगली पकड़ कर इस संन्यास मार्ग मोक्षमार्ग पर आगे ले चलें। यदि आपकी

मोक्ष मार्ग कृपा दृष्टि हो गई और आपका आश्रय मिल गया तो हम आगे बढ़ पायेंगे। हे प्रभु आप दयालु, कृपालु, मयालु हैं हमारे माता पिता सखा, सुहृदय, अनिमित बन्धु अनार्जित दाता रक्षक आप सदा हमारी सहायता करें हम बच्चों की ओर ध्यान देवें। कहीं हमारे पांव लड़खड़ा न जायें हमारे धर्म की रक्षा करें हमारे दोषों को क्षमा करें और हमारे पीठ के पीछे चल कर अपनी रोशनी से हमारा मार्ग-दर्शन करें बस यही है संन्यास का मार्ग।

गीता में भगवान ने दो बातें जीव के लिए आवश्यक कही हैं - एक तो साधना के विषय में दूसरी अन्तकाल के विषय में इसलिए ही

कहते हैं कि मनुष्य को भगवद्प्रेम में निमग्न रहना चाहिए। उनकी साधना, उनका नाम स्मरण, आँखों में उनकी लीला को ध्यान करके स्मरण या आँखों को तुष्ट करना चाहिए। वे बार-बार यही कहते हैं कि "मामेकं शरण वज्र" तू मेरा हो जा बस किसी तरह मेरा हो जा, तू फिर दुख-सुख के बंधन से मुक्त होकर विश्राम करेगा। संसार में जिन नश्वर और अनश्वर वस्तुओं को हम अपना समझते हैं वह अपनी नहीं रहेगी।

         इन भौतिक वस्तुओं या सुख साधनों से हमें कुछ प्राप्त नहीं होने वाला। हर मनुष्य को इस संसार में अवश्य ही दुख का अनुभव करना पड़ता है। संसार तो बस धोखा ही धोखा है। सुख-दुख तो क्षणिक होते हैं क्योंकि ये शरीर नाशवान है और शरीर मिट्टी है जबकि भगवान अविनाशी हैं।

         हमारा जब जन्म होता है तो जीवन-यात्रा चल पड़ती है। जीवन क्षण-प्रतिक्षण खत्म हो रहा हैस। हम जन्मदिन मनाते हैं, हमें यह नहीं पता कि उस दिन तो हमने जीवन का एक साल खत्म कर लिया। इस तरह हर साल एक-एक साल खत्म होकर यह जीवन क्षण-प्रतिक्षण करके खत्म हो जाता है। मनुष्य हरेक वस्तु को यहीं छोड़कर चला जाता है। मैं एक उदाहरण देती हूँ। जब निशान्त की मृत्यु हुई हो वह क्या साथ लेकर गया। वह काश्मीर वालों के ताबूत में ही मेरठ आया और 2-4 मिनट शरीर को बाहर रखकर ले गये तो हमने में जो उसके लिए अर्थी मँगा रखी थी और नये कपड़े मँगा रखे थे, वे सब यहीं रखा रह गया। वह घर की दहलीज भी प्राप्त न कर सका। फटी निकर में ही सब कुछ यहाँ छोड़कर चला गया। हम अन्तिम दर्शन या प्यार न कर सके। काश्मीर में ही मिला तो उन्होंने ही स्नान कराया और मस्जिद में रखकर कलमा (पूजा-पाठ) पढ़ा। अतः अन्तिम क्रिया भी ठीक से न कर सके। अतः वह क्या साथ लेकर गया? कुछ नहीं हाँ जो कुछ अच्छाई कर सका था, सबको याद करने के लिए छोड़ गया था उसने जो 3 दिन पूजा प्रार्थना या गीता पाठ सबसे कराया या कोई नेक काम जीवन में किये या कभी किसी को दान दिया या कोई जीवन में किसी से ईश्वर की बात सुनी या सुनायी वही उसके साथ गयी।

         सिकन्दर जिसने पूरी पृथ्वी को जीतना चाहा था, अनेक लड़ाईयाँ लड़ीं। एक बार खाने की जगह सोना देखकर इतना विरक्त हुआ कि उसने भी कह कि समय में अर्थी पर मेरे हाथ खुले रखना। सिकन्दर सारी दुनिया फतह करना चाहता था। उसने काफी भूमि पर लड़-लड़ कर कब्जा कर लिया था। एक दिन वह भूखा-प्यासा एक बुढ़िया के घर पहुँचा और उसने वहाँ खाना माँगा। उसने थाली में सोने के जेवर ढककर खाने को दिये। उसने देखकर कहा ये क्या ? उसने कहा कि तुझे तो सोने की भूख हे तो ये ही खा। उस समय वह दुःखी हुआ और उसने दुनिया फतह करने का विचार छोड़ दिया।

         राजा भीष्म ने अपने पिता शान्तनु को देखकर दुःखी होने का कारण पूछा था। उन्हें केवट की लड़की से प्यार हो गया था। वे स्वयं वहाँ गये तो केवट ने कहा कि तुम शादी नहीं करोगे। उन्होंने उन्हें वचन दे दिया और अन्त में अनेक कष्ट झेलकर राज्य की गद्दी स्वीकार नहीं की।

         धन ही आज सर्वोपरि है। धन के लिए मनुष्य अपने बहन, भाइयों, माता-पिता या किसी भी रिश्तेदार या परिचित को मारने से नहीं डरता। जबकि अन्त में सब यहीं छोड़कर जाना है। अनेक किताबों में यह लिखा है कि मनुष्य थैला भरकर सोना लेकर जायेंगे, परन्तु बदले में रोटी नहीं मिलेगी। रोटी और पानी, जमीन के लिए आपस में लड़ मरेंगे।

         आज अनेक भाई-बहन आपस में झगड़ा होने से नहीं मिल पाते। एक समय संयुक्त परिवार होता था। सब एक साथ बैठकर पूजा करना, त्यौहार मनाना, खाना-पीना करते थे। यह सब पैसे के कारण हो रहा है। आपस में बहन भाई जब कभी भी नहीं मिलते, तो कैसा दुःख भरा जीवन होता है। समय की धारा कैसे बहती चली जाती है पता नहीं नहीं चलता। बस भगवान ही अपने साथ होते हैं। आज जब बहन-भाई या भाई-भाई आपस में हाथ पकड़कर चलते हैं तो मैं कहती हूँ कि यह आज का सच है। कल तो पता भी नहीं होगा कि हम आपस में मिलेंगे या नहीं या कब मिलेंगे अन्त में यही कहती हूँ कि भगवान का नाम लेकर प्यार बॉटते चलो।


Thank you

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