ज्ञान मनुष्य की तीसरी आंख है Gyan hi manushya ki Teesri Aankh Hai

ज्ञान मनुष्य की तीसरी आंख है Gyan hi manushya ki Teesri Aankh Hai

 ज्ञान मनुष्य की तीसरी आंख है

Gyan hi manushya ki Teesri Aankh Hai



          द्वापर युग में शिशुपाल का जन्म हुआ, वह सुन्दरता के 32 लक्षणों से युक्त था । परन्तु उसको तीसरी आंखऔर तीसरा हाथ भी था इसलिए उसे अवलक्षणी माना गया। तीसरी आंख और तीसरा हाथ निकालने के लिए नारद मुनि ने बतलाया कि सभी राजाओं को बुला कर बारी-बारी से सभी की गोद में देना। जिसकी गोद में रखने से इसकी तीसरी आंख और तीसरा हाथ गिर जाएगा। उसके हाथों से इसकी मुत्यु भी होगी। सभी राजाओं को बुलाकर उनकी गोद में बालक को बारो-2 मे डाला गया : जब भगवान श्री कृष्णचन्द्र जो की गोद में शिशुपाल को दिया तो उसकी तीसरी आंख और तीसरा हाथ टूट पड़ा। शिशुपाल की माता ने भगवान से अपने बालक के जीवन दान की याचना की भगवान ने कहा कि इसके 100 अपराध माफ कर दिए जाएंगे। 

कहने का तात्पर्य शरीर की तीसरी आंख प्राण घातक होती है, अवलक्षणी होती है। परन्तु किसी को न दिखाई देने वाली तीसरी ज्ञान की आंखों के अभाव में मनुष्य जीवन सफल नहीं हो सकता। दो हाथ, दो पैर, दो आंख, एक नाक से मनुष्य सुन्दर लगता है। इन इन्द्रियों को चलाने के लिए अन्तः करण की योजना ईश्वर ने बनाई ।।

कहावत है :-- मन चंगा तो कठुक में गंगा जिसका मन शुद्ध न हो वह बुरा माना जाता है जिसका मन निर्मल होता है वह अच्छा, भला माना जाता है ।

          राजा को योग्य सलाह देने के लिए चतुर बुद्धिमान्, विद्वान् प्रधान की आवश्यकता होती है। जिस राजा का प्रधान चतुर होता है उसकी चारों तरफ बाहर होती है। जिस तरह सम्राट चन्द्रगुप्त का प्रधान चाणक्य था। चाणवय ने अपनी चतुराई से नन्द राजा के प्रधान को (राक्षस नामक) चंद्रगुप्त का प्रधान बना ही दिया। राजा को अपनी दो आंखे होते हुए प्रधान की तीसरी आंख होता है। वैसे ही मन रूपी राजा को योग्य मार्ग दर्शन के लिए अच्छे ज्ञानरूपी प्रधान की आवश्यकता होती है। राजा अगर अधा भी हो परंतु प्रधान बुद्धिमान् हो और राजा का विश्वास पात्र हो तो भी राज्य ठीक तरह से चल सकता है। उसी तरह मनुष्य को भले ही चमं चक्षु न हो परंतु ज्ञान रूपी आंख हो तो वह अच्छा कार्य कर सकता है।

 

          महादेव को भी तीसरी आंख है। जब उन्हें किसी पर क्रोध आता है तो वे तीसरी आँख निकाल कर भस्म करते है। परंतु मनुष्य को जिस समय ज्ञान रूपी तीसरी आंख निकलती है उस समय वह अज्ञान को, क्रोध को, दुर्व्यसनों को दुराचारों को जलाकर भस्म कर देता है और 84 लाख योनियों से अपने आप को बचा लेता है। मनुष्य को आंखें होते हुए भी अन्धेरे में। पड़ा हो तो उसे कुछ नहीं दिखाई देता। जो वस्तु प्राप्त करनी हो वह प्राप्त नहीं कर सकता। जहां जाना हो जा नहीं सकता। उसे किसी भी प्रकार के प्रकाश का सहारा लेना पड़ता है। उसी तरह अज्ञान रूपो अन्धकार में, अन्यथा ज्ञान रूपी अंधकार में सप्तव्यसनों के अंधकार में, 84 लाख योनियों के अंधकार में पड़े हुए मनुष्य को दो आंखें होते हुए भी ज्ञान रूपी तीसरी आंख की जरूरत होती है।

          अज्ञानी मनुष्य किसी भी प्रकार की उन्नति नहीं कर सकता। उसको कोई भी धोखा दे सकता है अन्त तक दूसरों के सहारे रह कर दुनियां का दोस बनेगा। अच्छा जीवन जीने के लिए स्वाभिमान से रहने के लिए, द्रव्यप्राप्त करने के लिए अथवा मोक्ष प्राप्ति के लिए ज्ञान रूपी तीसरी आंख की अत्यन्त आवश्यकता होती है। मनुष्य कम से कम ऐहिक जीवन तो भी अच्छी तरह चला सकेगा। ज्ञान यह मनुष्य को गुप्त आंख है गुप्त धन है, इसको न तो चोर चुरा सकता है, न कोई भाई-बन्धु ही हिस्सा बंटा सकते हैं, किसीको देने से कम नहीं होता किंतु बढ़ता ही जाता है। ज्ञानी मनुष्य को देश में ही नहीं परंतु दुनियाँ में जहां भी जाएगा वहां पर उसकी पूजा होती है। में यश मिलता है। क्योंकि कहा भी है। विद्वान् सर्वत्र पूज्यते । जिसको ज्ञान रूपी तीसरी आंख है वही इन्सान है। ज्ञान के बिना तो मनुष्य का आकार होते हुए भी शास्त्रों में पशु से उसकी तुलना की है।

विद्या विहिनः पशुः ॥

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आध्यात्मिक तीन बन्दर

 

क्या देखें

    परमात्मा को छोड़कर किसी अन्य की ओर देखना पड़े तो अपनी आँखें बन्द कर लो। देखना ही पड़े तो कम से कम दूसरों के दोषों को मत देखो, ललचाई दृष्टि से दूसरों की सम्पन्नता मत देखो, दूसरों के पापों को मत देखो।

    हृदय से देखना ही चाहते हो तो दूसरों की अच्छाईयाँ देखो, दूसरों की सादगी देखो, दूसरों के सत्कर्मों को देखो और वैसा ही दूसरों को देखने के लिए कहो, क्योंकि आँखें हमें प्रभु के दर्शन करने के लिए ही मिली हैं।

 

क्या सुनें :-

    परमात्मा की स्तुति को छोड़कर कुछ भी सुनना पड़े तो अपने कान बन्द कर लो। सुनना ही पड़े तो कम से कम भगवान की निन्दा मत सुनो, पराये अहित की चर्चा मत सुनो, सन्त व गुरु की निन्दा मत सुनो, अपनी प्रशंसा मत सुनो।

    हृदय से सुनना ही चाहते हो तो भगवत चर्चा ही सुनो, प्रभु की स्तुति व गुणों को सुनो और वैसा ही दूसरों को सुनने के लिए कहो, क्योंकि कान हमें प्रभु के गुणों को, प्रभु की चर्चा सुनने के लिए ही मिले हैं।

 

क्या बोलें :-

    छोड़कर परमात्मा के नाम महिमा, गुण, चरित्र, स्तुति आदि को कुछ बोलना पड़े तो अपना मुँह बन्द कर लो। बोलना ही पड़े तो कम से कम असत्य मत बोलो, परनिन्दा के लिए मुँह मत खोलो, किसी से क्रोध से मत बोलो।

    हृदय से बोलना ही चाहते हो तो सिर्फ मीठा व मधुर वाणी से बोलो और वैसा ही दूसरों से बोलने को कहो, क्योंकि मुँह हमें प्रभु ने अच्छी व सत्संग सम्बन्धी बातें कहने के लिए ही दिया है।

    ऐसा देखो, लगे सर्वत्र प्रभु दर्शन कर रहे हो। ऐसा सुनो, लगे प्रभु का गुणगान सुन रहे हों। ऐसा बोलो, लगे सत्संग कर रहे हो।

Thank you

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