सत्संग किसे कहते है? सत्संग की व्याख्या? satsang kise kahate hain

सत्संग किसे कहते है? सत्संग की व्याख्या? satsang kise kahate hain

 सत्संग किसे कहते है । सत्संग की व्याख्या?

( satsang kise kahate hain )



बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते ।

वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः ॥ (गी. अ. ७ श्लो. १९)

        ज्ञान आप्त, महाजन और ज्ञानी-गुरुजनों से प्राप्त होता है, यह हमने जाना किन्तु प्राप्त हुए ज्ञान के अनुसार आचरण करने के लिए तथा ज्ञान को सदैव जाग्रत रखने के लिए सत्संग की नितान्त आवश्यकता है। क्योंकि विना ज्ञानजागृति के नाम-स्मरण, अनन्य भक्ति तथा सच्चा वैराग्य स्थिर नहीं रह सकता । जिस प्रकार पानी सदैव ढालान की ओर बिना प्रयास स्वयं बहने लगता है किन्तु उसे ऊपर ले जाने के लिए प्रयास की आवश्यकता पड़ती है, उसी प्रकार जीवात्मा की स्वाभाविक प्रवृत्ति अधोगामी है जिसे उर्ध्वगामी बनाने के लिए सत्तत सत्प्रयत्नों की आवश्यकता होती है । सत्प्रयत्न सत्संगति से ही संभव हो सकते हैं । फिर वह सत्संगति चाहे सत्ग्रन्थों की हो, सद्विचारों की हो अथवा साधुजनों की हो; किन्तु सदैव सत्संगति का होना परमाश्यक है। इसलिए इस प्रकरण के प्रारम्भ में दिये श्लोक के अनुसार, जिसका पूर्ण जीवन परमात्मा में लीन बहुत जन्मों के अन्त के जन्म में तत्वज्ञान को प्राप्त हुआ ज्ञानी सब कुछ वासुदेव ही है, इस अति दुर्लभ है । मेरे को भजता है। वह महात्मा हो गया है ऐसे दुर्लभ महात्मा का सत्संग सदैव प्राप्त हो ऐसा प्रयत्न करना चाहिए । शास्त्रकारों ने भी लिखा है :

सत्संगो मानसं मलं हरति ।

अर्थ :- सत्संग मन के मल को धो डालता है ।

        सत्संग का अर्थ है-सत् और पवित्रों का संग, सत्यार्थियों का संग । वास्तव में देखा जाए तो सब पवित्रों का पवित्र परमेश्वर है। सब सत्यार्थियों का सत्यार्थी ईश्वर है। उसका संग अर्थात् उभयदर्शी अवतार श्रीकृष्ण भगवान, श्रीदत्तात्रेय महाराज तथा परब्रम्ह श्रीचक्रधर प्रभु जी का संग अथवा जिन सत्पुरुषों ने ईश्वरीय ज्ञान प्राप्त कर लिया है, उनके सान्निध्य में रह कर, उनसे ज्ञान सीखना, पढ़ना और पढ़ कर आत्मसात करने का नाम सत्संग है । यदि इस सत्संग में रहते हुए भी ज्ञान प्राप्त नहीं हुआ, तो भी ज्ञानी को देख कर उनके अनुसार आचरण करना और उन ज्ञानी जनों को आप्त या 'सत्' मान कर उनके वचनों पर श्रद्धा रखना, इसी का नाम सत्संग हैं। श्रीकृष्ण जी ने गीता में यही कहा है :

अन्य त्वेवमजानन्तः श्रुत्वान्येभ्य उपासते ।

तेऽपि चातित रन्त्येव मृत्युं श्रुतिपरायणाः ॥

(गी. अ. १३ श्लो. २५)

अर्थ :- दूसरे ईश्वरीय ज्ञान न जानते हुए भी तत्त्वज्ञानियों से सुन कर उपासना करते हैं। अथवा गीता-ब्रह्मविद्या शास्त्र को सुन कर ईश्वर के प्रति श्रद्धा करते हैं, ऐसे श्रुति परायण और सत्संग करने वाले मनुष्य चाहे वे नर हों या नारी, शूद्र हों या चांडाल अथवा दुराचारी ही क्यों न हों अवश्य मृत्यूपरान्त तर जाते हैं।

 

सत्संग की श्रेष्ठता

सत्संगलब्ध्या भवत्या मयि मां समुपासिता ।

सर्व मे दर्शितं सद्‌द्भिरजसा विन्दते पदम् ॥

(श्रीमद्भागवत स्कन्द ११, अ. ११, लो. २५)

अर्थ :- इस प्रकार सत्संग से प्राप्त हुई मेरी भक्ति के द्वारा वह उपासना करता हुआ, उन साधुओं के बतलाये हुए मेरे स्वरूप को सहज ही में अवश्य पा जाता है ।

महानुभाव संसर्गः कस्य नोन्नतिकारकः ।

पद्मपत्रस्थितं वारिधत्ते मुक्ताफलश्रियम् ॥

अर्थ :- ईश्वर का महान् अनुभव रखने वालों का संग पापी मनुष्यों को भी धर्मात्मा बना देता है। कमल के पत्ते पर पानी की बूंद मोती के सदृश शोभा धारण करती है।

दोहा

कदली सीप भुजंग मुख, स्वाति बूंद गुण तीन ।

जैसी संगति बैठिए, वैसी ही गुण दीन ।।१।।

तुलसी लोहा काठ संग, चलत फिरत जल माँहि ।

डूबे न डूबन देत है, जाकी पकड़ी बाँहि ।।२।।

नीचहु उत्तम संग मिल, उत्तम ही हो जाय।

गंगा संग जल झील का, गंगोदक हो जाय ।।३।।

जाहि बड़ाई चाहिए, तजे न उत्तम साथ ।

ज्यों पलाश संग पान के पहुंचे राजा हाथ ।।४।।

भले नरन के संग से, नीच उच्च पद पाय ।

जैसे पिपलिका पुष्प संग, ईश शीश चढ़ जाय ।।५।।

लोहा तरयो नौका मिले, साखी सकल सुन लीजिये ।

साधु संग ते साधु मिल, श्रीकृष्णनाम रस पीजिये ।।६।।

 

सवैयाः

लियो नीम सतसंग मलयागिरि चंदन ।

लोहा पारस परस दरस दरसत है कुंदन ।।

मिले सुरसरी नीर सार निहचै सो गंगा

मिश्री से मिलि वंश तुल्यो ताहु के संगा ।।

इत्यादि अनेक कवियों, संत, महंत और योगीश्वरों ने सत्संग की श्रेष्ठता मुक्तकंठ से हृदय खोल कर गायी है ।

 

सत्संग अध्यात्मज्ञान का प्रवेश द्वार है।

        सर्वप्रथम अध्यात्मज्ञान में प्रवेश करने के लिए सत्संग ही महाद्वार है । सत्संग का बिना आश्रय लिये कोई भी जीवात्मा भवसागर से पार नहीं उतर सकता । आज से पूर्व जितनी जीवात्माएँ मोक्षवासी हुई हैं, उन सभी ने संसार सागर को लाँघने के लिए सत्संग रूपी नौका का ही आश्रय लिया है। यदि इस विश्व से सत्संग का पूर्णतया लोप हो जाए, तो ईश्वर के अस्तित्व को कोई भी जीवात्मा नहीं जान सकता है। सत्संग से ही ईश्वर का प्रकाश प्रकाशित हुआ है । महद्भाग्य से सत्संग का योग प्राप्त होता है। सत्संग के समक्ष ज्ञान, भक्ति और वैराग्य दास के सदृश हाथ जोड़ कर खड़े रहते हैं। सत्संग से मोह और ममता से निवृति होती है । सत्संग से प्रवृत्ति मार्ग (आसक्ति) से घृणा एवं निवृत्ति पथ (विरक्ति) अनुराग करने की प्रेरणा प्राप्त होती है । सत्संग से ज्ञान और भक्ति का प्रकाश प्राप्त होता है। जिससे देवताओं के नाना प्रकार के कर्म कांडों में अरुचि और यज्ञ, तीर्थ, क्षेत्र और व्रतादि की अनित्यता का ज्ञान प्राप्त होता है। ब्रह्मा, विष्णु, शिव, गणेश, इन्द्र, चन्द्र और अनेक देवी देवताओं से तथा उनके निवास स्थान कैलाश, वैकुंठ, स्वर्गादिक से अरुचि पैदा होती है। सत्संग से वेद, शास्त्र, पुराण और कुरान तत्त्वज्ञान का सत्यासत्य प्रकाशन किया जाता है । सत्संग के प्रभाव से साधक को संसार के सम्पूर्ण कर्म मार्ग और के देवमार्ग, दुःखदायक प्रतीत होने लगते हैं। सत्संग साधक को निन्दा तथा स्तुति से विमुख करता है ।

 

सत्संग की मस्ती सर्वश्रेष्ठ है

        सत्संग साधक को मानापमान, सुख-दुःख, अहंकार और ममता से विमुख करके अपनी मस्ती में मस्त कर देता है । संसार में अनेक प्रकार की मस्ती है। उदाहरणार्थ: मदिरा, स्त्री, धन, यौवन और स्वामित्व से सम्बन्धित मस्ती । उपर्युक्त अनेकों प्रकार की मस्ती सब स्त्री-पुरुषों के लिए दुःख दायी है। परन्तु सत्संग के आश्रय साधक के सारे क्लेश तिरोहित हो जाते हैं। वह परमानन्दरूप परमेश्वर के आनन्द स्वरूप मस्ती को प्राप्त कर, नित्य और अविनाशी पद पर आरूढ़ हो जाता है।

द्य की मस्ती :-द्यपान से मद्य की मस्ती आया करती है। परन्तु कुछ काल के पश्चात् निशा टूट जाने पर मस्ती समाप्त हो जाती है। धन की मस्ती शराब की मस्ती से अधिक होती है परन्तु धन के जाने के साथ ही वह मस्ती भी समाप्त हो जाती है । यौवनावस्था को प्राप्त करने के पश्चात् प्रत्येक नर को यौवन की मस्ती आ घेरती है। परन्तु यह मस्ती भी क्षणिक है क्योंकि वृद्धावस्था आने के पश्चात् वह समाप्त हो जाती है ।

स्वामित्व या श्रेष्ठाधिकार की मस्ती :- स्वामित्व या श्रेष्ठाधिकार प्राप्त होने पर मस्ती आती है परन्तु अधिकार भ्रष्ट हो जाने पर मस्ती पलायन कर जाती है । जीवन सम्बन्धी मस्ती का लोप मृत्यु से हो जाता है ।

स्त्री की मस्ती :- सांसारिक सब मस्तियों में स्त्री की मस्ती सर्वश्रेष्ठ है । यह मस्ती पुरुष को इतना भ्रमित करती है कि पुरुष उस मस्ती में अपना मनुष्यत्व ही खो देता है। उसी मस्ती के प्रभाव से स्त्री भी अपना जप, तप, जाति, कुल, धर्म तथा लज्जा को त्याग कर पशुतुल्य हो जाती है

        स्त्री की मस्ती में देव दानव ऋषि-महर्षि पागल तथा विषय-लंपट हो जाते हैं। फिर साधारण मनुष्यों की क्या दशा होती होगी ? इस नारी की मस्ती ने ब्रह्मदेव को इतना पागल किया कि उन्हें सरस्वती जो उनकी कन्या थी उनके पीछे दौड़ाया। इसने महादेव के देवत्व को नष्ट कर दिया। उनकी इसके द्वारा लिंगपतन होने तक की नौबत आ पहुँची। उस लिंग के द्वादश टुकड़े आज भी विद्यमान हैं। इस मस्ती की फेरी जिस समय वैकुंठवासी विष्णु पर आयी, उस समय उस के प्रभाव से विष्णु को गंडका नदी में (शालिग्राम) हो कर बदला देना पड़ा। इन्द्र को अहिल्या की मस्ती ने भगेन्द्र (हज़ार भग वाला)बना कर छोड़ा। इसी प्रकार बृहस्पति, चन्द्र और सूर्य पर भा इसका प्रभाव पड़ा ।

        इस नारी-मस्ती ने पराशर, वेदव्यास, विश्वामित्र, नारद, वशिष्ट श्रृंग ऋषि और अन्य महपियों को भ्रमित किया और इनके जप, का और कीर्ति का होम, हवन किया। इनके समक्ष साधारण मानव की क्या क़ीमत है। इसलिए ऊपर वर्णित सब प्रकार की मस्ती दुःखदाई एवं नाशवान है।

        इन सब मस्तियों की मुकुट मणि सुखदायिनी और दुःख विनाशिनी मस्ती सत्संग की है। यह मस्ती अविनाशी है । ईश्वर की कृपा और साधक के प्रयत्न से साधक को प्राप्त होने वाली सत्संग की मस्ती उसे चिरायु बनाती है। ईश्वर-स्वरूप में भी वह मस्ती वैसे ही बनी रहती है। इस मस्ती के लिए नर-नारी, दरिद्र-धनवान, जाति तथा काल का कोई बन्धन नहीं है ।


सत्संग की मस्ती के अधिकारी मनुष्य मात्र हैं।

        सत्संग अर्थात् याज्ञवल्क्य ऋषि से मैत्रयी को ज्ञान प्राप्त हुआ। नारद ऋषि ने प्रह्लाद की माता कायाधुर्या को उपदेश दिया। राक्षस की स्त्री होते हुए भी वह सत्संग की अधिकारिणी बनी। सत्संग से देवहुती को कपिल ऋषि से ज्ञान प्राप्त हुआ । ब्रह्मजाया इन्द्राणी, चन्द्र माता सरमा, रोम शोवंशी लोपामुद्रा, यमी, शाश्वती, सावित्री और दक्षिणा आदि अनेक स्त्रियाँ सत्संग से ब्रह्म ज्ञानी हुई और अनेक वर्तमान समय में भी इसका लाभ उठा रहीं हैं, और भविष्य में भी लाभ उठाएँगी ।

त्रिगुणात्मक शास्त्र सच्चा सत्संग नहीं

        यद्यपि वेदों ने स्त्री तथा शूद्र को वेदाधिकार नहीं दिया। परन्तु सत्संग के प्रभाव और भगवान् के प्रत्यक्ष वचनों के आगे वेद मूक सिद्ध हुए। भगवान् के वचन, वेदों से श्रेष्ठ और सनातन । वेद त्रिगुणात्मक अपरा विद्या हैं। इसलिए वेदों का पठन-पाठन और उनके निर्देशन के अनुसार क्रिया, कर्म करना सच्चा सत्संग नहीं है। इससे दूर रहना साधक का कर्म है ये भी सत्संग के योग्य नहीं हैं।

गेरुवा वस्त्र धारण करने, मूंड मुड़ाने या शीश पर जटा रखने से कोई संत या साधु नहीं बन सकता है। ऐसे संत जिनका मन कंचन और कामिनी से दूर नहीं है, षड्रिपुओं के जो वशीभूत हैं, चाहे उन्होंने रँग कर वस्त्र धारण किये हों अथवा वे प्रभावशाली दक्ते हों, उनसे दूर रहने का प्रयत्न कीजिए । रहीम ने कहा है :

करि कुसंग चाहत कुशल, यह रहीम अफसोस ।

महिमा घटी समुद्र की, रावन बसा परोस ।।

वाग वैखरी शब्द झरी शास्त्र व्याख्यान कौशलम् ।

वंदुष्यं विदुषां तद्वद् भुक्तये न तु मुक्तये ॥ (विवेक चूडामणि)

अर्थ :- सुन्दर शब्द योजना, उत्तम वक्तापन और शास्त्र के व्याख्यान में अत्यन्त कुशलता ये सब पंडित जी की पोपटपंची है। इसका संग करने से मुक्ति का नाम निशान नहीं प्राप्त हो सकता। अतः ऐसे लोगों के साथ संग करने को सत्संग नहीं कहा जा सकता। वैसे ही रावण को राम ने इस प्रकार मारा। भीम ने दुर्योधन को उस प्रकार मारा आदि कथाएँ भी सच्चा सत्संग नहीं है। इस प्रकार की कथाओं का सुनना दूध के बदले छाछ पीने के बराबर है। जिस प्रकार छाछ में तुष्टि तथा पुष्टि का अभाव है वैसे ही पुराणों की कथाएँ भी प्रभाव हीन हैं। उनके द्वारा भवसागर का तरना साधक के लिए असम्भव है । ब्रह्मज्ञान के अतिरिक्त जितने भी वेद-पुराण हैं, वे सभी निरर्थक हैं । निरर्थक होते हुए भी वे कुछ सार्थक भी हैं क्योंकि सर्वप्रथम साधक उनकी रोचक और भयानक कथाओं के रस के लालच से उन्हें सुनता है। धीरे-धीरे वह अध्यात्म की ओर झुकने लगता है। उसमें परमार्थ की भावना उत्पन्न होने लगती है। जिससे उस साधक का मन ब्रह्मज्ञान की ओर आकर्षित हो जाता है। उपन्यास अथवा कहानी सुनने या पढ़ने तथा कामोद्दीपक ग्रन्थों में मन लगाने से पुराण शास्त्र का पढ़ना मनुष्य के लिए कहीं अधिक लाभदायक है। सारांश यह है कि ब्रह्मज्ञान के विषय में कथाओं से विशेष लाभ प्राप्त नहीं होता क्योंकि क्या किसी अन्धे ने किसी दूसरे अन्धे को खाई से बचाया। है ?

अंधेनैव नीयमाना यथान्धाः । (कठ. ऊ)

अर्थात् - अन्धा अन्धे को रास्ता नहीं दिखला सकता है ।

        इस पर भगवान श्रीचक्रधर प्रभु जी ने एक दृष्टांत बताया है :

        किसी नगर में एक बड़ा हाथी आया। हाथी को देखने के लिए सब स्त्री-पुरुष, बूढ़े और बालक जा रहे हैं, ऐसा सुन कर अन्धों ने आपस में विचार-विमर्श किया कि हम सब भी हाथी देखने जाएँ। इसमें हम लोगों को दो लाभ प्राप्त होंगे। प्रथम यह कि वहाँ एकत्रित भीड़ से पैसा मांगेंगे और दूसरा यह कि यदि दिखाई दिया तो टटोल कर हाथी भी देखेंगे। यह सोच कर दस-बारह अंधे मिल कर जहाँ हाथी बँधा था वहाँ जा कर भिक्षा माँगना प्रारम्भ कर दिए। लोग हाथी देख कर गाँव को चले गये। उसके पश्चात् एक ने हाथी के मालिक से कहा, ‘भाई ! हम लोग चक्षुहीन हैं और हम लोग आपके हाथी को देखने के लिए आतुर हैं। अतः आप हमें अपने हाथी को टटोल कर के दिखलाइए ।मालिक दयावान था और हाथी भी शान्त स्वभाव का था। अतः हाथी के मालिक ने चार अंधों को हाथी के चारों पावों से अलग-अलग लिपटवा दिया। दो अंधों के हाथ में अलग-अलग एक-एक कान पकड़ा दिये । एक को सूंड का स्पर्श कराया। दो अंधों को एक-एक दाँत का स्पर्श कराया। एक को पूँछ पकड़ा दी। कुछ अंधों को पेट के नीचे खड़ा करवा कर पेट का स्पर्श करवाया। शेष अंधों को पीठ का स्पर्श करवाया। सब अंधे इसके पश्चात् प्रसन्न हो कर गाँव में आए।

लोगों ने पूछा, ‘‘क्या आपने हाथी देखा ?’’

उन्होंने उत्तर दिया, ‘हाँ भाई ! हाथ से टटोल कर देखा है।

ग्रामीणों ने फिर पूछा, ‘हाथी कैसा था ?’

जिस अंधे ने सूढ़ टटोल कर देखी थी, वह कहने लगा, ‘भाई ! हाथी तो डंडे के समान था ।

दूसरे दो अंधों ने कहा, ‘‘भाई ! यह झूठ बोलता है। हाथी तो छकोर की भाँति प्रतीत होता था। मैंने देखा है।’’

दूसरे अंधो ने संताप कहा, ‘‘क्या तुम्हारे माता-पिता ने झूठ बोलना ही तुम्हें सिखाया है? अरे भाई! हाथी तो चक्की के डंडे की भाँति था ।’’

जिन अंधों पेट का स्पर्श किया था, वे कहने लगे ‘‘भाई ! ये सब अकल के भी अन्धे हैं, हाथी तो दीवाल की भाँति था।’’

जिसने पीठ देखी थी, वह उछल कर बोला, ‘‘भाइयो ! सब अंधे असत्य वादी हैं, हाथी तो बड़े ढोल के सदृश था ।’’

जिस अंधे ने पूंछ देखी थी उसने कहा, ‘‘भाई ! हाथी तो झाडू की भाँति होता है।’’

यह सुन कर जिन अंधों ने हाथी के चार पैरों का स्पर्श किया था, क्रोध से लाल हो कर बोले, ‘‘भाइयो ! ये सब अंधे झूठ के घर हैं, हाथी तो खम्भे के समान था ।’’

        ऐसा कह कर सब आपस में एक-दूसरे को झूठा बनाने के लिए झगड़ने लगे । एक दृष्टिसम्पन्न व्यक्ति उनके इस झगड़े को देख कर बोला, ‘‘तुमने हाथी के भिन्न-भिन्न अवयवों का स्पर्श और जिसने जिस अवयव का स्पर्श किया है वह उसी अवयव को हाथी समझ रहा है। वास्तव में इन सब अवयवों को मिला कर हाथी का शरीर बना है। जिसका अंशतः ज्ञान तुम लोग अलग अलग दे रहे हो। इस प्रकार तुम सब झूठे भी हो और सच्चे भी हो ।’’

भगवान् श्रीचक्रधर जी के बतलाये उपर्युक्त दृष्टांत को यहाँ देने का आशय केवल यही है कि ठीक इसी प्रकार के विभिन्न विचार प्रत्येक धर्मप्रवर्तक अथवा आचार्य ने अपने धार्मिक ग्रन्थों में अथवा व्याख्यानों में धर्म, ज्ञान तथा मोक्ष के मार्ग के विषय में बताये हैं। जो एक-दूसरे के विरोधी हैं पर अंशतः सत्य हैं। किसी ने ब्रह्मा को, किसी ने विष्णु को, किसी ने महेश को और किसी ने गणेश को ही ब्रह्म माना है। कोई अलग-अलग विभिन्न देवी-देवताओं को ही ब्रह्म मानते हैं और परस्पर मतभेद बनाए हुए हैं। ऐसी परस्पर मतभेदयुक्त वार्ताओं का मीठा नाम सत्संग रख कर अंधजीवों को और भी अंधा बनाने का प्रयत्न करते हैं । इन झगड़ों को देख कर अथवा सुन कर जिस समय ईश्वर का ज्ञानी उनके सम्पर्क में आता है, उस समय वह उन झगड़ने वालों को समझा कर सुमार्ग पर लाने का प्रयत्न करता हुआ कहता है

        ब्रह्मा, विष्णु, महादेव इत्यादि विभिन्न देवी और देवता, ये सब उस परमपिता परमेश्वर के सेवक और सेविकाएँ हैं । सर्वं शक्तियुक्त, परमेश्वर, सच्चिदानन्द, जो सर्वज्ञ और सर्वेश्वर है, वह इनसे परे है।

        अनेक प्रकार की उपासनाओं व्रतो को अलग अलग प्राधान्य देते हैं। अनेक तीर्थों में भ्रमण करने से भी मोक्ष प्राप्ति की संभावना को बताते हुए भी लोग देखे जाते हैं। और इन्हीं वार्ताओं एवं मार्ग निर्देशन को सत्संग नाम से विभूषित करते हैं। किन्तु वे सब यह नहीं जानते कि इन ऊपर लिखे कर्मों से देवलोक मिलेगा जो नाशवान तथा सुख-दुःख मिश्रित है। वहाँ जीव तभी तक निवास कर सकेगा जब तक की उसके पास पुण्य का संचय है। पुण्य के समाप्त होने के पश्चात् उसे पुनः चौरासी लाख योनियों में भ्रमण करना पड़ेगा तथा यम लोक का कष्ट भोगना पड़ेगा। एवम् ये सब मोक्ष दायक सच्चे सत्संग नहीं हैं।

 

मोक्षदायक सच्चा सत्संग

श्रोत्रियोऽवृजिनोऽकामहतो यो ब्रह्मवित्तमः ।

अर्थ :- जो बहुश्रुत, विद्वान् और निष्पाप है, वही श्रेष्ठ ब्रह्मज्ञानी है। वही मानव जाति को सच्चा प्रकाश देने वाला है। उसके दर्शन, संभाषण और आज्ञा पालन से साधक भी कुछ समयोपरान्त उसके समान सन्त हो जाता है। अतः देवता के साधन छोड़ कर परमेश्वर की अनन्य भक्ति करने के लिए और ज्ञान प्राप्ति के लिए योग्य और ज्ञानी सन्त के शिष्य बनो। उससे सार वस्तु-तत्व का ज्ञान प्राप्त कर लो तथा ज्ञान, भक्ति और वैराग्य में तल्लिन हो जाओ ।

सारांश, जो ब्रह्मज्ञान का उपदेश करता है वह सद्गुरु है, जिस शास्त्र में ब्रह्मज्ञान का विवेचन किया गया है वह सच्छास्त्र है, जिससे अनन्य भक्ति प्राप्त होती है वह सच्चा मोक्ष है और जिसमें जगत् के ऐश्वर्यो से वैराग्य और परमात्मतत्व में अनुराग उत्पन्न करने का सामर्थ्य है वह ही सच्चा ज्ञान है। इसी का नाम सच्चा सत्संग है। शेष सब असत्संग है। इसका सदैव ध्यान रखो ।

        यह पढ़ कर सांसारिक गृहस्थ जन यह विचार करेंगे कि, भले ही सत्संग से मोक्ष की प्राप्ति होती होगो किन्तु जगत् में जो दारिद्र्यादि दुःख हैं उनका सत्संगति से निवारण कैसे होगा? किन्तु उनकी यह भूल है। सत्संग से जिस प्रकार पारलौकिक कल्याण होता है, उसी प्रकार इहलौकिक कल्याण भी होता है।

शास्त्रकार लिखते हैं :-  पापं तापञ्च दैन्यञ्च हन्यते सत्सुसंगतेः ।

अर्थ :- पाप (बुराई), ताप (दुःख-कष्ट) और दैन्य (ग़रीबी) ये तीनों ही सत्संगति से नष्ट हो जाते हैं। किन्तु दसवें प्रकरण में वर्णित वासनिक धर्म के अनुसार जो गृहस्थ जीवन व्यतीत करने के इच्छुक हैं वे ही सत्संगति से लाभान्वित होंगे। शेष पशु तुल्य जीवन व्यतीत कर चौरासी लाख योनियों में भटकते फिरेंगे ।

        जगत् का निर्माण परमपिता परमेश्वर ने जीवों के उद्धार के लिए ही किया है

 

Thank you

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