परमेश्वर धर्म का आचरण और अहिंसा
जिस नियम को धारण करने से अपना तथा परिवार और समाज का कल्याण होता है उसे धर्म
कहते हैं। जहां धर्म होता है वहां अहिंसा भी रहती है। और जहां अहिंसा होती है वहां
पर धर्म भी रहता है।
सर्वज्ञ श्रीचक्रधर प्रभु जी ने असतिपरी में कहा है :-
विकार विकल्प का त्याग करके स्वभावों पर नियंत्रण करके अन्त तक जो मेरा स्मरण करेगा उसको परमेश्वर प्राप्ती होगी।
भगवान श्रीकृष्णचन्द्र जी ने भी कहा है।
सर्वधर्मान्परित्यज्य
मामेकंशरणं व्रज । सभी (बारह) धर्मो का त्याग करके जो मेरी शरण में आएगा,
उस मनुष्य को में सब पापों से मुक्त करूंगा।
जिसके पास धर्म है, जिसको धर्म की मोक्ष चाह है, उसके ऊपर आकाश जैसे महान संकट भी नहीं आ सकते। गोप ग्वालों
ने इन्द्र की पूजा छोड़ कर गोवर्धन की पूजा की उस समय इन्द्र ने क्रोधित होकर
भयंकर वर्षा शुरू करवा दी उस समय भगवान श्रीकृष्ण चन्द्र जी ने गोवर्धन पर्वत को
उठा कर ग्वाल बालों को उसके नीचे खड़े करके उनकी रक्षा की। जिस समय काम करके हम थक
जाते हैं उस समय शीतल जल पान करने से हमारी थकावट दूर हो जाती है,
उसी प्रकार से धर्मोपदेश तथा ब्रह्मविद्या ज्ञान को सुनने
से संसार सागर के दुःखों से राहत मिलती है।
अनेक बार अनेक सृष्टियों में हमने ज्ञान सुना परन्तु हमारा आवागमन को चक्र
समाप्त क्यों नहीं हुआ? इसका कारण यही है कि ज्ञान सुनकर भी हमने उसके अनुसार आचरण
नहीं किया। पंच विषयों के अधीन होकर विषय वासनाओं में फंसे रहे। परमेश्वर के
परमानंद की अपेक्षा भोग विलासों को हो श्रेष्ठ माना। यदि हम अनुभव करते हैं कि भोग
विलासों में वास्तविक सुख शांति नहीं है। उलट भोग विलासों में दुःख दैन्य और पाप
हैं।
परमेश्वर का आनन्द प्राप्त करना हो मनुष्य जीवन का लक्ष्य है,
अतः संसार के नश्वर भोग विलासों से मन को हटाकर धर्मोपदेश
ग्रहण करना चाहिए। परंतु आज के समय में यथार्थ ज्ञान बतलाने वाले धर्म गुरुओं का
मिलना भी कठिन है। मिल भी जाये तो हमारे पास समय नहीं है। संसार के दूसरे कार्यों
की अपेक्षा धर्म को अधिक महत्व देना चाहिए। क्योंकि-धर्म श्रवण करके उसका पालन
करने से धर्म हमारी रक्षा करता है। किसी कवि ने लिखा है।
जाचे सुरतरू देय सुख चितत चिता रैन ।
बिन जाचं बिन चितये, धर्म
सकल सुख दैन ।।
अर्थ :-
कल्पवृक्ष याचना करने पर देता है, चिंतामणि चिंतन करने सें इच्छित फल देता है परंतु ईश्वर धर्म
ऐसा है कि बिना मांगे ही फल देता है। जिस तरह मिश्री का छोटा सा टुकड़ा मुंह में
डालते हैं तो वह मोठा हो लगता है। वैसे ही गीता शास्त्र के अनुसार ईश्वर धर्म का
थोड़ा आचरण करने पर भी महान भय-दुःख से रक्षा होकर सुख-शांति प्राप्त होती है।
संसार को सभी वस्तुएं अस्थिर है चलायमान है। किसी सुभाषितकार का कहना है :
चला लक्ष्मीश्चलाः प्राणाश्चले जीवित मन्दिरे ।
चलाचले च संसारे धर्म एको हो निश्चलः ।।
अर्थ :-
लक्ष्मी एक के पास नहीं रहती आज एक के पास है, कल दूसरे के पास चली जाएगी। आज मनुष्य स्वस्थ है,
निरोग है, कल मौत के मुख में जा सकता है। संसार में एक धर्म
ही स्थिर है। जो कुछ कर लिया वह नित्य है। स्कंद पुराण में लिखा है :
‘तस्माद्
धर्म सुखार्थाय कुर्यात् पापं विवर्जयेत्’
अर्थ :-
सुख प्राप्ति के लिए धर्म का आचरण करते हुए पाप कर्मों का त्याग करना चाहिए ।
आज कल देखा जाता है कि तरुण पीढी धर्म के नाम से दूर जा रही है अतः वे
धर्म के सुख से वंचित होती जा रही है। तथा मानव-२ से दूर हो रहा है।
विभिन्न राष्ट्रों में परस्पर संघर्ष और युद्ध का मूल कारण मनुष्य धर्म से
विमुख हो रहा है। आज के विज्ञान युग में मानव आधुनिक सुख साधनों के पीछे भाग रहा
है। घुड़-दौड़ में मनुष्य के पास समय का अभाव है। अपने धर्म और कत्तव्य की तरफ उसका
ख्याल तक नहीं जा रहा है।
जरा सोचने की बात है पूर्व जन्म के कर्मों के अनुसार हमें मनुष्य बेह
प्राप्त हुई है। साथ ही परमेश्वर धर्म, उसका ज्ञान और साधन प्राप्त है,
अतः हमारा श्रेष्ठ लक्ष्य होना चाहिए।
सुख ही प्राप्त करना है तो नित्य शाश्वत सुख को प्राप्त करना चाहिए। मोक्ष
मार्ग का पथिक बन कर धर्म का आचरण करते हुए नित्य मुक्त परमेश्वर के आनन्द को
प्राप्त करना ही मनुष्य जीवन का मुख्य उद्देश्य है। चिरकाल के पश्चात मनुष्य का
जन्म मिलता है अतः उसका उपयोग करना चाहिए। तन,
मन पर संयम करके प्रभु स्मरण करने से आत्मा परमेश्वर के
समान बन जाती है। मनुष्य जन्म की यही विशेषता है कि वह धर्म को जान सकता है और
उसके अनुसार अनुष्ठान करके परमेश्वर के परमानन्द को प्राप्त कर सकता है। यदि
मनुष्य को ज्ञान न हो, उसमें धर्म न हो तो उसका जीवन पशु समान माना जाता है। धर्म और ज्ञान को छोड़
कर पशु और मनुष्य में समानता होती है। मनुष्य देह प्राप्त होकर भी जो धर्माचरण
नहीं करता वह क्षण भंगुर सुखों की लालसा में फंस कर संसार चक्र में भ्रमण करता
रहता है। संसार में रहते हुए भी संसार के मोह-जाल से अलिप्त रहना चाहिए। एक कवि
लिखता है :-
मनुष्य को चाहिए दुनियां में रहना इस तरह जिस तरह तालाब के पानी में रहता है कमल ।
दुनियां में हूं दुनियां का तलबदार नहीं हूं ।
बाजार से गुजरा हूं खरीदार नहीं हूं ॥
अर्थ :-
संसार में रहते हुए संसार से अलिप्त रहना है परन्तु शुभ कर्मों में विलम्ब भी नहीं
करना चाहिए। कल करना है उसे आज ही कर डालें
आज करना है उसे इसी समय कर लें नहीं तो विवार करते हुए सन्धि हाथों से चली
जाती है, मनुष्य
सोचता ही रह जाता है। सुगंध में मोहित भंवरा कमल के फूल पर बैठा था। सूर्य अस्त हो
जाने से कमल का फूल बंद ही गया। वह भंवरा सोच रहा था कि,
रात्रिर्गमिष्यति भविष्यति सुप्रभातम् ।
भास्वानुदेष्यति हसिष्यति पंकजश्री ।
इत्थं विचिन्तयति कोशगते द्विरेफे ।
हा हन्तः हन्तः नलिनी गज उज्जहार ।।
अर्थ :- रात
बीत जाने पर सुबह हो जाएगा। सूर्य उदय हो जाने पर पर कमल फूल खिल जाएगा और में
बाहर निकल जाऊंगा। इस प्रकार भंवरा सोच ही रहा था कि एक हाथी आया उसने कनल को
उखाड़ डाला। इसी तरह हम इस संसार के फूल पर बैठे हुए हैं अज्ञान का पर्दा पड़ा हुआ
है। हम नानाविध कामनाएं करते रहते हैं। आज यह करूंगा कल वह करूंगा,
पैसे कमाऊंगा ।
मकान बनाऊंगा,
ऐश आराम करूंगा,
लोगों को धोखा दूंगा,
झूठ बोल कर कम,
तोल कर अमीर बन
जाऊंगा। इस प्रकार की आशा
रूपी सैकड़ों फांसियों पर लटका हुआ मनुष्य काल के गाल में चला जाता है। मृत्यू आ जाती
है । सोचा हुआ सब दिल में हो रह जाता है।
धर्म का आचरण करते हुए अहिंसा का पालन करना बहुत
जरूरी है।
सर्वज्ञ श्रीचक्रधर प्रभु जी ने अहिंसा का सूक्ष्म विवेचन किया है।
प्रभु जी कहते हैं कि ‘‘हिंसा नहीं करनी चाहिए हिंसा करना पाप है,
पाप के बदले जीव को नरक यातना भोगनी पड़ती है।
साधक ने किड़ी को भी नहीं मारना चाहिए। यहां तक कि उसके
विषय में बुरा चिंतन भी न करें ।’’
अतः हिंसा का त्याग करके अहिंसा और धर्म के पंथ पर चलना चाहिए ताकि हम
मनुष्य जन्म का पूरा लाभ मिल सके ।
धर्म करत संसार सुख, धर्म
करत निर्वाण ।
धर्म पथ साधे बिना, नर
तिर्यंच समान ।।
अर्थात :- धर्म आचरण सें हि संसार मे सुख मिलता है। धर्म ही मोक्ष प्राप्त करा देता है।
धर्म के मार्ग पर जो मनुष्य नहीं चलता वह तिर्यंच याने के पशु समान हैं।